सम्पादकीय

जब पापा करते हैं घर के काम तो बेटियां चुनती हैं बेहतर कॅरियर

Gulabi
24 Jun 2021 3:03 PM GMT
जब पापा करते हैं घर के काम तो बेटियां चुनती हैं बेहतर कॅरियर
x
बेटियां चुनती हैं बेहतर कॅरियर

कल 23 तारीख को यूनेस्‍को (यूनाइटेड नेशंस इंटरनेशनल चिल्‍ड्रेंस इमरजेंसी फंड) ने एक रिपोर्ट जारी की है. ये रिपोर्ट मर्द, मर्दानगी और जेंडर बराबरी के बारे में है, जैसाकि रिपोर्ट के सबहेड में उन्‍होंने लिखा है- masculinity, men and gender equality. रिपोर्ट की हेडलाइन है- "चेंजिंग मेंटैनिटीज: जेंडर इक्‍वैलिटी एंड मैस्‍क्‍यूलिनिटी इन इंडिया."

ऐसी रिपोर्ट तो साल में कई आती हैं, जो बता रही होती हैं कि दुनिया में कितनी जेंडर गैरबराबरी है. शिक्षा से लेकर स्‍वास्‍थ्‍य तक हम मामले में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कितनी पिछड़ी हुई हैं. लेकिन ऐसी रिपोर्ट कम ही देखने को मिलती हैं, जो जेंडर बराबरी के बारे में बात करते हुए पुरुषों और लड़कों के बारे में बात करें. वो ये बात करें कि पुरुषों की सोच और मानसिकता का परिवार और समाज की महिलाओं पर कितना नकारात्‍मक असर पड़ता है. वो उन तरीकों और उपायों के बारे में बात करें, जिनसे पुरुषों को ये समझाया जा सके कि स्‍त्री-पुरुष के बीच बराबरी के लक्ष्‍य को हासिल करने में उनकी कितनी अहम भूमिका है.
खासतौर पर भारत की लैंगिक असमानता और उसमें पुरुषों की भूमिका पर केंद्रित इस रिपोर्ट में ऐसे कई मुद्दे उठाए गए हैं, जिनका सीधा संबंध पुरुषों की सोच और व्‍यवहार से है. ये रिपोर्ट बताती है कि भारत में अभी लैंगिग बराबरी हासिल करने में संभवत: 136 साल लगेंगे, लेकिन ये लक्ष्‍य भी तभी पूरा हो पाएगा, जब उसे हासिल करने के लिए उठाए जा रहे कदमों और शुरू किए जा रहे कार्यक्रमों में पुरुषों की बराबर की हिस्‍सेदारी हो. यूनेस्‍को की रिपोर्ट कहती है कि ज्‍यादातर विमेन ओरिएंटेड प्रोग्राम असफल ही इसलिए होते हैं क्‍योंकि वो पुरुषों को भी उसमें शामिल करने से चूक जाते हैं.
उस रिपोर्ट की कुछ जरूरी बातें इस प्रकार हैं-
पुरुषों और लड़कों की बराबर भागीदारी
रिपोर्ट कहती है कि सरकार और गैरसरकारी संगठन महिलाओं के हित और अधिकारों के लिए जो भी प्रोजेक्‍ट बनाते हैं, उसमें उन्‍हें पुरुषों को भी बराबर का हिस्‍सेदार बनाना चाहिए. जैसे मुझे याद है कि बहुत साल पहले न्‍यूयॉर्क टाइम में ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च स्‍टडी छपी थी, जो कह रही थी कि जिन घरों में घरेलू कामकाज को लेकर जेंडर डिवाइड नहीं है और पुरुष भी घर के कामों में बराबर हिस्‍सेदारी करते हैं, ऐसे परिवारों की लड़कियां बेहतर कॅरियर का चुनाव करती हैं और कॅरियर में बेहतर प्रदर्शन कर हैं. वह स्‍टडी बाकायदा आंकड़ों और तथ्‍यों के बिना पर ये बात कह रही थी.
शोधकर्ता और रिसर्चर्स तो आंकड़ों पर भरोसा करते हैं, लेकिन सामान्‍य विवेक से भी सोचा जाए तो यह सहज ही समझ आने वाली बात है. घरेलू कामों का जेंडर विभाजन न हो तो न लड़कियां इस समझ के साथ बड़ी होती हैं कि घर के काम उनकी जिम्‍मेदारी हैं और न ही लड़के इस समझ के साथ कि घरेलू काम उनकी जिम्‍मेदारी नहीं हैं.
एक ऐसी दुनिया और समय में, जब महिलाएं घर से बाहर निकलकर काम कर रही हैं और अर्थव्‍यवस्‍था में योगदान दे रही हैं, जरूरी है कि घरेलू कामों की एकतरफा जिम्‍मेदारी और बोझ से उन्‍हें निजात मिले. और ये लक्ष्‍य घर में लड़ने से तो हासिल होगा नहीं. ये हासिल होगा, पुरुषों के सहयोग और भागीदारी से, जिसकी बात यूनेस्‍को की ये रिपोर्ट कर रही है.
ये रिपोर्ट कहती है कि सरकार को चाहिए कि वह महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों में जेंडर भूमिका को लेकर व्‍याप्‍त पूर्वाग्रहों को खत्‍म करने के लिए ठोस कदम उठाए और महिलाओं को पुरुष प्रभुत्‍व वाले क्षेत्र में बढ़ने के लिए प्रेरित करे और ऐसा करने की जिम्‍मेदारी पुरुषों को भी सौंपी जानी चाहिए. यह जरूरी है कि पुरुषों की मानसिकता बदले, वो स्त्रियों को हर क्षेत्र में अपने बराबर स्‍तर पर स्‍वीकार करें. उनके भीतर भी न्‍याय का बोध जन्‍मे. उन्‍हें लगे कि वो भी औरतों की बराबरी की लड़ाई में बराबर के हिस्‍सेदार हैं.
शिक्षा में बुनियादी बदलाव
यूनेस्‍को की रिपोर्ट कहती है कि जेंडर को लेकर संवेदनशीलता, न्‍याय और बराबरी की भावना बचपन से बच्‍चों को सिखाई जानी चाहिए. हमारी शिक्षा, स्‍कूली पाठ्यक्रम, किताबें और शिक्षकों की ट्रेनिंग ऐसी हो कि वो कच्‍ची उम्र से ही बच्‍चों को बराबरी का बोध दें. लड़कों को शुरू से ही जेंडर के सवाल पर संवेदनशील बनाया जाए. पाठ्यक्रम की किताबें इस पर बात करें और भेदभाव को बढ़ावा न दें. इन किताबों को बहुत समझदारी और संवेदना के साथ लिखे जाने की जरूरत है. बच्‍चों को शुरू से ही बराबरी, सम्‍मान, आपसी फर्क का आदर, जाति, लिंग, नस्‍ल, वर्ग हर तरह के विभाजन से ऊपर उठकर एकता का भाव और रूप-रंग, शारीरिक बनावट, संरचना आदि के आधार पर भेदभाव न करना सिखाया जाना चाहिए.
प्रभावी न्‍याय व्‍यवस्‍था
ये रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को संवेदनशील नजर से देखने, समझने और वहां न्‍याय को सुनिश्चित करने के लिए जेंडर सेंसटाइजेशन बहुत जरूरी है. मर्दवादी मानसिकता हर जगह है और वह अनेकों बार हमारी न्‍यायपालिका के फैसलों में भी दिखाई देती है. एक जेंडर सेंसिटिव जस्टिस सिस्‍टम की पूरे समाज और देश में जेंडर बराबरी सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका है.
ग्रामीण भारत की स्थिति गंभीर
ये रिपोर्ट शहरी भारत के अलावा ग्रामीण भारत पर भी खास जोर देती है. शहरी समाजों में भी फिर भी स्थितियां बदल रही हैं लेकिन ग्रामीण भारत में आज भी लैंगिक भेदभाव बहुत ज्‍यादा है. महिलाओं की शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य आदि की स्थितियां बुरी हैं. जेंडर वॉयलेंस बहुत ज्‍यादा है और इसमें इंटरनेट, मोबाइल, स्‍मार्ट फोन ने बहुत खतरनाक भूमिका अदा की है. छोटे शहरों और कस्‍बों के अखबार आए दिन ऐसी खबरों से भरे होते हैं कि लड़के ने लड़की का न्‍यूड वीडियो सबको भेज दिया और लड़की ने आत्‍महत्‍या कर ली. ये रिपोर्ट कहती है कि जेंडर बराबरी के सरकारी और गैरसरकारी कार्यक्रमों को ग्रामीण भारत में जाकर और उन समाजों में ज्‍यादा गंभीरता से काम करने की जरूरत है. असली चुनौती वहीं है, जहां बाजार का बेचा बदलाव तो आ रहा है, मोबाइल से लेकर मॉडर्न कपड़े तक, लेकिन मानसिकता वहीं की वहीं है.
मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य की गंभीरता
ये रिपोर्ट कहती है कि मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को गंभीरता से न लेने की वजह से भी महिलाओं के साथ बहुत सारा वॉयलेंस होता है. सच तो ये है कि जेंडर पूर्वाग्रह और भेदभाव सिर्फ महिलाओं के साथ ही अन्‍याय नहीं करते, वो पुरुषों के साथ भी उतना ही अन्‍याय कर रहे होते हैं. कई बार अगर कोई पुरुष स्‍त्री के साथ हिंसा कर रहा है तो उसकी बहुत सारी बहुत जटिल वजहें हो सकती हैं. ऐसे में संभवत: उसे भी काउंसिलिंग और मदद की जरूरत हो. यहां समझने वाली बात ये है कि दोनों जेंडर एक-दूसरे के दुश्‍मन नहीं है. उनके बीच सौहार्द्र और बराबरी लाना ही जेंडर की इस पूरी लड़ाई का लक्ष्‍य है.
Next Story