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रूसी बोल्शेविकों यानी लेनिनवादी कम्युनिस्ट सौ साल पहले ऐसा ही विध्वंस कर चुके हैं
शंकर शरण। पश्चिमी देशों में बढ़ रहा बौद्धिक अतिवाद अर्थात 'वोक बौद्धिकता' असल में 'आंख का अंधा नाम नयनसुख' वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहा है। किसी मतवादी नशे की गिरफ्त में फंसे वोक बुद्धिजीवी खुद ही स्वयं को विशिष्ट जागृत और दूसरों को सुषुप्त कह रहे हैं। उनके एक से एक विचित्र रूप सामने आ रहे हैं, जिसका असर पश्चिम का आदतन अनुकरण करने वाले भारत जैसे देशों में भी हो रहा है। जबकि मामूली परख भी दिखाती है कि इस मतवाद में रचनात्मकता के बजाय केवल वर्तमान सभ्यता के विध्वंस की प्रवृत्ति है। इसका प्रमाण वह पश्चिम जगत है जिसे मानवीय उन्नति का मानदंड माना जाता था, लेकिन अब वहां विश्वविद्यालयों में अपने ही इतिहास के पन्ने और प्रतीक मिटाए जा रहे हैं। अब वहां एक विपरीत भेदभाव प्रचारित हो रहा है, जिसमें अल्पसंख्यक की इच्छानुसार बहुसंख्यक को प्रताड़ित करना है। परिवार, माता, पिता और लिंग आदि की सुस्थापित धारणाओं को छोड़ने का दबाव दिया जा रहा है। जबकि बहुसंख्या इसे अनुचित मानती है। अधिकांश पश्चिमी लोग अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक मान्यताओं को मूल्यवान समझते हैं, किंतु उन्हें अपमानित कर इन मान्यताओं के परित्याग का दबाव बनाया जा रहा है। यह वैचारिक-सांस्कृतिक विध्वंस कोई नई-अनोखी चीज नहीं। रूसी बोल्शेविकों यानी लेनिनवादी कम्युनिस्ट सौ साल पहले ऐसा ही विध्वंस कर चुके हैं।
रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने एक हालिया व्याख्यान में कहा कि वोक मतवाद पश्चिम को उसी प्रकार नष्ट कर रहा है, जैसे बोल्शेविकों ने रूसी समाज को किया था। इस वोक मतवाद में वही बातें हैं जो बोल्शेविकों ने फैलाई थीं। 1917 में रूसी सत्ता पर कब्जे के बाद उन्होंने मार्क्सवादी जड़सूत्रों पर भरोसा कर अपनी परंपराओं, विचारों और संस्थाओं को नष्ट करना शुरू किया। राजनीतिक, आर्थिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आदि क्षेत्रों में भी बड़े बदलाव तय किए। मानवीय नैतिकता की मूलभूत धारणाओं पर प्रहार किए गए। स्त्री-पुरुष आकर्षण को भी प्यास लगने पर 'एक गिलास पानी' पीने भर जैसी मामूली चीज घोषित किया। मानो संतति एवं परिवार जैसी संस्था दकियानूसी और बेकार हों। यह भी रोचक है कि तब भारत समेत पूरे विश्व में अनेक बुद्धिजीवियों ने बोल्शेविकों की सराहना की थी। जैसे वह कोई प्रगतिशील नवनिर्माण हो रहा हो। यह समानता भी उल्लेखनीय है कि बोल्शेविक भी स्वयं से असहमति होने पर उतने ही असहिष्णु थे, जैसे आज के वोक हैं।
विडंबना है कि जिन भयावह प्रयोगों को रूसी लोग एक दु:स्वप्न समझकर छोड़ चुके हैं, उसे पश्चिम में नए सिरे से स्वीकारा जा रहा है। समानता और भेदभाव जैसे अहम बिंदुओं पर अनर्गल प्रचार अपनी सीमाएं लांघ रहा है। महान लेखकों की पुस्तकें पिछड़ी और नस्लवादी करार देकर हटाई जा रही हैं। हालीवुड फिल्मकारों को मनमाने निर्देश दिए जा रहे हैं। कुछ मामलों में तो रूसी कम्युनिस्टों से भी बढ़कर मतिहीनता दिखाई जा रही है। स्पष्ट है कि यह लोगों को विभाजित करने की मंशा है। जबकि नागरिक समानता के लिए लड़ने वालों ने इसके लिए लड़ाई लड़ी थी कि रंग, नस्ल और लिंग आदि आधार पर भेदभाव खत्म हो।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने सपना देखा था कि व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी चमड़ी के रंग के बजाय उसके चरित्र से हो। जबकि आज उसके ठीक विपरीत किस्म का नस्लवाद बढ़ाया जा रहा है। हालांकि, अधिकांश आम लोग यह सब अनुचित मानते हैं। अमेरिका, यूरोप, भारत और चीन में लोग चमड़ी के रंग के बजाय व्यक्ति के गुणों को महत्व देते हैं, किंतु अभी पश्चिम में बढ़ रहा बौद्धिक पागलपन विचित्र है। इसके अनुसार स्त्री और पुरुष जैसे भिन्न लिंग नहीं होते। स्त्रीत्व और मातृत्व के अस्तित्व से ही इन्कार किया जा रहा है। ऐसे विचित्र कारनामे रूसी कम्युनिस्ट पहले ही कर चुके हैं। उससे रूसी समाज की जो तबाही हुई, उसे सोल्झोनित्सिन और जार्ज आरवेल जैसे महान लेखकों की रचनाओं से बखूबी समझा जा सकता है। इसके बावजूद पश्चिम में आज वही भूल दोहराई जा रही है। स्कूलों में बच्चों को सिखाया जा रहा है कि वे चाहें तो लिंग परिवर्तन करा सकते हैं। बच्चों के अभिभावक कुछ नहीं बोल सकते। बाल मनोविज्ञानियों तक की कोई पूछ नहीं। सब कुछ वोक बुद्धिजीवी खुद तय कर रहे हैं। लड़का-लड़की को प्राकृतिक भेद कहने वालों पर गालियों की बौछार की जाती है, ताकि वे खामोश हो जाएं। उनका व्यवहार ऐसा है कि मानो असहमत होने वाले स्वयं दुष्ट हों।
नि:संदेह किसी को भी अपने विचार रखने का अधिकार है, किंतु अन्य लोगों को भी अपनी पारंपरिक एवं समयसिद्ध मान्यताएं रखने का वही अधिकार है। अब इसी अधिकार को खारिज किया जा रहा है। यह एक जबरिया एवं संरचनात्मक विध्वंस है। लिहाजा उसके प्रति सतर्कता बरतनी होगी। विशेषकर औपचारिक शिक्षा में। अन्यथा संभावित सामाजिक एवं राजनीतिक तबाही की कल्पना भी कठिन है। संभव है कि भविष्य में हमारा जीवन बदल जाए। कई परिवर्तन आकार लें। तब किसी परिवर्तन या सुधार को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए, लेकिन जब ऐसे बदलाव केवल सब कुछ बदलने की जिद से किए जा रहे हों तो अपनी परंपराओं पर भरोसा करने में ही भलाई है।
भारत का दुर्भाग्य है कि गत सौ वर्षों में यहां पश्चिमी वैचारिक फैशन के अंधानुकरण का रोग स्थायी हो गया है। हमारे सार्वजनिक विमर्श में समय-समय पर मार्क्सवाद, लेनिनवाद, फ्रायडवाद, माओवाद और समलैंगिकतावाद जैसे कई विचारों की भक्ति भाव से नकल होती रही। उनकी सत्यता नहीं परखी गई। जिन नेताओं बुद्धिजीवियों पर यह जिम्मा था वही उसके पिछलग्गू बनते गए। वोक मतवाद का काला जादू भी हमारी हस्तियों पर कुछ ऐसे ही हावी है, जिनमें पत्रकार से लेकर न्यायाधीश, शिक्षाविद, फिल्मकार और क्रिकेटर तक शामिल हैं। जब आप असल इतिहास से अनभिज्ञ रहते हैं, तभी ऐसी गलतियां करते हैं, जो भविष्य में भयंकर रूप धारण कर सकती हैं। ऐसे में यही प्रार्थना है कि जिनकी बुद्धि को वोक मतवाद भ्रष्ट कर रहा है, उन्हें सद्बुद्धि आए।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
Gulabi
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