सम्पादकीय

सपने देखने में हर्ज क्या

Subhi
7 Nov 2022 6:09 AM GMT
सपने देखने में हर्ज क्या
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जब बात बिगड़ जाती, तो वे अपने-आप को धीरज बंधा देने के लिए कह दिया करते थे। लेकिन किस बात की उम्मीद रखें वे? अच्छे दिन आने की उम्मीद रखी थी कि आंकड़ा-शास्त्रियों ने घोषणा कर दी, लो तुम्हारे अच्छे दिन तो आकर चले भी गए। शहर के चुनिंदा रईस अब रईस कहलाना पसंद नहीं करते।

सुरेश सेठ: जब बात बिगड़ जाती, तो वे अपने-आप को धीरज बंधा देने के लिए कह दिया करते थे। लेकिन किस बात की उम्मीद रखें वे? अच्छे दिन आने की उम्मीद रखी थी कि आंकड़ा-शास्त्रियों ने घोषणा कर दी, लो तुम्हारे अच्छे दिन तो आकर चले भी गए। शहर के चुनिंदा रईस अब रईस कहलाना पसंद नहीं करते। दादा जान कहा करते थे, 'जिन्हें हाथी पालने हों, वैसे रईसों को अपनी ड्योढ़ियों के दरवाजे ऊंचे रखने चाहिए।' लेकिन जमाना बदल गया।

उन्हें कितनी उम्मीद थी कि कभी इन ड्योढ़ियों में हमारा घुसना भी हो सकेगा। क्या फुटपाथों पर आलीशान दरवाजे लग जाएंगे? नोटबंदी होगी तो सारा कालाधन बाहर आ जाएगा और उनकी दुनिया साफ हो जाएगी! मगर इतना अधिक काला धन जमा हुआ कि हवेलियों वालों को सफेदपोश बना गया। जो फुटपाथ पर बैठे थे, वे लोग धंसते हुए फुटपाथों के जानशीं बनते चले गए। उधर सरकारी खातों में लिखा गया कि सब फुटपाथों का नवीनीकरण हो गया।

धंसते हुए फुटपाथ और टूटी-फूटी सड़कें जो मरम्मत के ठेकेदारों की कृपा से और भी टूट-फूट गर्इं और नाम लग गया मानसून के अप्रत्याशित तेवरों का। सावन बीत जाने पर मरम्मत होती, तो घपला, घोटाला करने वालों को मुक्ति द्वार कैसे मिलते! वे कहते रहे हम तो चमचमाती सड़कों वाले अच्छे दिन लाए थे। यह सावन ही खलनायक बन सब बहा ले गया। अब न कहना कि अच्छे दिन लाने का वादा पूरा नहीं हुआ। 'भगवान की मर्जी' के आगे किसी का कोई बस नहीं चलता। न जाने कितनी सदियां गुजर गर्इं, अपनी गरीबी, अभाव और भुखमरी को दुर्भाग्य के सितम या 'भगवान की मर्जी' के हवाले करते हुए। पूरा देश भाग्यशाली बना, हस्तरेखा विशारदों और नजूमियों के हवाले कर दिया गया और कर्मशीलता, चरैवेति-चरैवेति अपनी जिंदगी खुद बनाने के उपदेश केवल मंचों के हवाले कर दिए गए।

उम्मीद के पहाड़ ढोते-ढोते उनके कंधे शिथिल पड़ गए, लेकिन मंजिल मिलने का सपना एक बार रूठा तो जिंदगी में लौट कर नहीं आया। उधर बड़े लोगों की जिंदगी से हवेलियां रूठीं तो बहुमंजिली इमारतों के रूप में छवि बदल कर आ गर्इं। मर्सिडीज, टोयोटा और आयातित गाड़ियों ने हाथियों की जगह ले ली। इन गाड़ियों के खड़े होने के लिए मंजिल दर मंजिल गैराज बनने लगे और सफेद हाथी का नाम तो योजना आयोग को देकर नकार दिया गया। लेकिन वह उम्मीद ही क्या जो उनके लिए कभी वफा हो जाए! अब नीति आयोग फैसला कर रहा है कि नई उम्मीदों का दायरा बिछाने की अवधि क्या रखी जाए! अब या तो उस नारों का अलाव भेंट करो, जो हथेली पर सरसों जमा दे या विकास की तारीफ इतनी लंबी कर दो कि लोगों के धीरज की परीक्षा हो जाए।

धैर्यवान बहुत हैं इस देश के लोग। अच्छे दिन आगामी अतीत बन गए, उनके पास तो यादों की कोई बारात भी नहीं है सजाने को। यादों की कोई मिठास भी होती है, ऐसा उन्होंने कभी जाना नहीं। हरी घास पर ठिठक कर किन अच्छे दिनों का एहसास तक पास फटकने नहीं दिया। न्यायपालिका ने कहा कि इस देश में कोई भूख से न मरे, क्योंकि हर नागरिक को रोटी मिले, यह उसका मूलभूत अधिकार है। देश के फरिश्तों ने इसकी हामी भरी, लेकिन दुनिया का भुखमरी सूचकांक कहता है कि देश भुखमरी वाले देशों की तालिका में कई सीढ़ियां नीचे उतर गया।

भूख से मरते लोगों की संख्या दुगनी होने के बावजूद देश की युवा शक्ति को रोजगार का मूलभूत अधिकार नहीं दिया गया। हां, उनमें रोटी बांटने की दरियादिली दे दी गई। इसे खैरात कहते हैं। चौराहों पर बढ़ती हुई भिखारियों की संख्या ने चेताया, लेकिन न्यायपीठ ने कह दिया, देश में भीख मांगना प्रतिबंधित नहीं की जा सकती। चौराहों से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच तक भीख के समझौते करते देश करते रहेंगे।

प्रबंधन की असफलता अच्छे और बेहतर जीने की रखी उम्मीदें देश के फुटपाथी लोगों के कानों में फुसफुसा देती हैंं, 'उम्मीद रखो, वह दिन दूर नहीं, जब भीख मांगना संवैधानिक अधिकार बन जाएगा, कानूनसम्मत तो यह हो ही गया है!' आओ एक महोत्सव मना लेने के बाद उस शतकीय महोत्सव मनाने की प्रेरणा प्राप्त करें जब बेहतर जीने की उम्मीद केवल फुसफुसाएगी नहीं, जब टूटी सड़कें टूटे सपनों की गलबहियां नहीं लेंगी, जब देश विकासशील की उपाधि त्याग विकसित होगा और हर काम मांगते हाथ में रियायती अनाज की तश्तरी नहीं, बल्कि अपने हक की रोजी और हक की रोटी होगी। आप मुस्कुरा क्यों दिए? आखिर दिन-दिहाड़े सपने देखने में हर्ज ही क्या है?


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