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सम्पादकीय
ओबीसी के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण पर फैसला जो भी आए मध्य प्रदेश में चुनावी राजनीति बदलनी तय है
Gulabi Jagat
8 May 2022 9:47 AM GMT
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मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव अगले साल होना है
दिनेश गुप्ता |
मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव (MP Assembly election) अगले साल होना है. लेकिन,चुनाव से पहले ही भारतीय जनता पार्टी (BJP) जाति के वोटों का ऐसा गुलदस्ता तैयार करने में लगी है,जिसके जरिए वह चुनाव में 51 प्रतिशत वोट हासिल करने का लक्ष्य पा सके. लक्ष्य को पाने के फेर में भाजपा कभी आदिवासी वोटों की कवायद करती नजर आती है तो कभी हार्ड कोर हिन्दुत्व को चुनावी मुद्दा बनाने पर विचार करती है. अब पार्टी का नया दांव ओबीसी (OBC Quota) वोटों को लेकर है. स्थानीय निकाय चुनाव में ओबीसी को 35 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की वकालत भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में की है. कोर्ट का फैसला दस मई को आएगा.
अभी आदिवासी वोटों के पास है सत्ता की चाबी
आमतौर पर मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण बहुत हावी दिखाई नहीं देते. उत्तरप्रदेश राज्य की सीमा से लगे हुए कुछ इलाकों में जातियों की एकजुटता कभी-कभी देखने को मिलती है. मध्यप्रदेश में कुल 230 विधानसभा की सीटें हैं. राज्य की राजनीति मुख्य तौर पर चार अंचलों में बंटी हुई. इनमें ग्वालियर-चंबल और विंध्य का इलाका ऐसा है, जहां जातीय एकजुटता देखने को मिल जाती है. उच्च वर्ग में ठाकुर ब्राह्मण की राजनीति है. जबकि आरक्षित वर्ग में जाटव और गैर जाटव अनुसूचित जाति वर्ग उम्मीदवार की जाति के हिसाब से एकजुट होता है. आदिवासी निमाड मालवा और महाकोशल इलाके में हैं. आदिवासी वर्ग के चुनावी एकजुटता भील-भिलाला और गोंड आदिवासियों में बंटी हुई होती है. राज्य में बीस प्रतिशत से अधिक आदिवासी वोटर हैं. जबकि अनुसूचित जाति वर्ग सोलह प्रतिशत है. राज्य की विधानसभा में आदिवासियों के लिए 47 और अनुसूचित जाति वर्ग के लिए 35 सीटें आरक्षित हैं.
वोटों के विभाजन से कांग्रेस को होता है नुकसान
सरकारी नौकरियों में आदिवासियों को बीस प्रतिशत और अनुसूचित जाति को सोलह प्रतिशत आरक्षण है. अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए चौदह प्रतिशत आरक्षण मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद से दिया जा रहा है. राज्य की राजनीति में अनुसूचित जाति और आदिवासी वर्ग सालों तक कांग्रेस का प्रतिबद्ध वोटर माना जाता रहा है. लेकिन पिछले तीन चुनावों में वोटों के विभाजन का ट्रेंड सामने आया. नतीजा कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई. पंद्रह साल विपक्ष में बैठना पड़ा. यद्यपि हार की मुख्य वजह कांग्रेस की गुटबाजी मानी जाती रही. दरअसल, वर्ष 2003 के बाद कांग्रेस ने किसी खास रणनीति और रणनीतिकार को आगे रखकर चुनाव ही नहीं लड़ा था. पिछले विधानसभा चुनाव में कमलनाथ के नेतृत्व में पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरे को आगे रखकर चुनाव लड़ा था. नतीजा पंद्रह साल बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस की गुटबाजी को साधने का काम किया था.
ओबीसी आरक्षण से दिग्विजय को दोबारा मिली थी सत्ता
दिग्विजय सिंह ने 1998 का विधानसभा चुनाव अन्य पिछड़ा वर्ग को दिए गए चौदह प्रतिशत आरक्षण के चलते जीता था. वे लगातार दस साल राज्य के मुख्यमंत्री रहे. लेकिन, 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दलित एजेंडा से चुनावी समीकरण साधने की कोशिश की थी. दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में ही सरकारी ठेकों और खरीदी में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई थी. इसके बाद भी इस वर्ग के वोट कांग्रेस को नहीं मिल पाए थे. चुनाव में विकास मुद्दा बना और उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई. मध्यप्रदेश में पहली बार भाजपा ने मुख्यमंत्री का चेहरा चुनाव से पहले ही घोषित कर दिया था. उमा भारती को महिलाओं के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग का भी वोट मिला. भाजपा की ऐतिहासिक जीत हुई थी. उमा भारती के बाद भाजपा ने दो और मुख्यमंत्री दिए. बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान. ये दोनों भी अन्य पिछड़ा वर्ग के ही थे.. लेकिन,चुनाव में ओबीसी राजनीति का असर नहीं दिखा. भाजपा की रणनीति कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक को कमजोर कर जीत हासिल करने की रही. बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे दलों ने इसमें अहम भूमिका अदा की. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी,भाजपा की मदद नहीं कर पाई. भाजपा की पंद्रह साल की सरकार हाथ से निकल गई.
पिछले एक साल से आदिवासी वोटों पर भाजपा का फोकस
भाजपा अगले चुनाव की रणनीति को अंतिम रूप देने से पहले मैदानी स्तर पर नजर जमाए हुए है. पिछले एक साल से पार्टी आदिवासियों को केन्द्र में रखकर कार्यक्रम कर रही और योजनाएं लागू कर रही है. रघुनाथ शाह, शंकर शाह की शहादत दिवस जबलपुर में कार्यक्रम कर भाजपा ने गोंड आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश की. आदिवासियों के बीच भाजपा की स्थिति को मजबूत करने के लिए केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह मुख्य भूमिका दिखाई दे रहे हैं. हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री ने भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में आदिवासियों को तेंदू पत्ता तुड़ाई के बोनस का भुगतान किया. टंटया भील पर भी सरकार कार्यक्रम कर चुकी है.
अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण बन सकता है मुद्दा
अन्य पिछड़ा वर्ग भाजपा की रणनीति में कभी सबसे ऊपर कभी सबसे नीचे दिखाई देता है. सरकारी दावे के अनुसार राज्य में 48 प्रतिशत आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग की है. इसी आधार पर सरकार ने स्थानीय निकाय के चुनाव में ओबीसी को 35 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव रखा है. राज्य में स्थानीय निकाय के चुनाव पिछले ढाई साल से टल रहे हैं. राज्य निर्वाचन आयोग ने जब त्रिस्तरीय पंचायती राज चुनाव की प्रक्रिया शुरू की तो 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के प्रावधान के चलते चुनाव टल गए. महाराष्ट्र में इस मुद्दे पर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने स्थानीय निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को नामंजूर किया है,उसी तरह की स्थितियां मध्यप्रदेश में भी मानी जा रही हैं. आरक्षण के लिए ट्रिपल टेस्ट से गुजरना जरूरी है. सरकार ने जल्दबाजी में आयोग का गठन किया. आबादी का आंकड़ा वोटर लिस्ट से लिया गया. सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को लेकर तथ्यात्मक तस्वीर सामने नहीं है. लेकिन,सरकार ने पैंतीस प्रतिशत आरक्षण की बात कर ओबीसी की आकांक्षा को हवा जरूर दे दी है. दस मई को सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कुछ भी लेकिन, आगे की राजनीति में ओबीसी आरक्षण आदिवासी वोट से बड़ा मुद्दा बन सकता है.
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