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पश्चिम बंगाल (West Bengal) में बीजेपी की तमाम समस्याओं में से एक समस्या नेतृत्व की कमजोरी भी रही है
अविजीत घोषाल |
पश्चिम बंगाल (West Bengal) में बीजेपी की तमाम समस्याओं में से एक समस्या नेतृत्व की कमजोरी भी रही है. हाल में जिस तरह से राज्य में नेतृत्व में बदलाव हुए, उसने इस समस्या को और बढ़ा दिया है. जिससे पार्टी के तमाम समर्थकों को शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ी, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. सितंबर 2021 में गौर बंगा विश्वविद्यालय के बायोलॉजिकल प्रोफेसर सुकांत मजूमदार (Sukanta Majumdar) को पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चुना गया था. इन्हें दिलीप घोष के बदले लाया गया था, जिन पर आरोप था कि वे दंगा भड़काने का प्रयास कर रहे थे और अपने समर्थकों से सत्ताधारी पार्टी के हमले का विरोध करने का आग्रह करते थे. हालांकि बीजेपी आलाकमान के इस फैसले का विरोध केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर सहित लगभग एक दर्जन बीजेपी विधायकों ने किया था और इसी विरोध के चलते उन्होंने पार्टी के व्हाट्सएप ग्रुप को भी छोड़ दिया था. जिसके बाद जवाबी कार्रवाई में शांतनु मजूमदार के नेतृत्व में राज्य के नेताओं ने पार्टी की राज्य इकाई के सभी प्रकोष्ठों को भंग कर दिया
बीजेपी महासचिव अमिताभ चक्रवर्ती के खिलाफ पार्टी के असंतुष्ट नेताओं में काफी गुस्सा था. लोगों ने उनके घर के बाहर पोस्टर भी लगाए थे, जिसमें उन पर आरोप लगाया गया था कि वह तृणमूल कांग्रेस (TMC) के एजेंट हैं. मई 2021 में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद कई बीजेपी कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर पार्टी का नेतृत्व सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों के हमले से उनकी रक्षा करने में पूरी तरह से विफल रहा है, इसलिए ऐसी पार्टी में रहने का क्या फायदा जो अपने कार्यकर्ताओं की रक्षा भी नहीं कर सकती.
गहरी समस्या
ऐसे में अमित शाह के सामने बड़ी चुनौती थी, क्योंकि इस संकट की जड़ें बेहद गहरी हैं. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में जहां बीजेपी का प्रदर्शन शानदार था, वहीं पार्टी के सामने आज भी कई बड़ी चुनौतियां मौजूद हैं. आइए उनमें से कुछ की जांच करें. एक सवाल जिसे बीजेपी नेता अपने जोखिम पर अनदेखा करते हैं, वो यह है कि 2019 में बीजेपी को मिली भारी बढ़त सिर्फ इसलिए थी क्योंकि 2018 के पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस द्वारा बहुत ज्यादतियां की गई थीं. लेकिन 2019 के चुनाव में उलटफेर के बाद जब ममता बनर्जी ने 'दीदी के बोलो' (दीदी को बताएं) और द्वारे सरकार (घर के दरवाजे पर सरकार) जैसे कार्यक्रम शुरू किए तो बहुत सारा संतोष अपने आप ही शांत हो गया और विधानसभा चुनाव में वोट बनकर टीएमसी के पाले में वापस चला गया.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पार्टी नेताओं ने 2019 के लोकसभा चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव के बीच बंगाल के मतदाताओं के मूड को समझने में गलती कर दी. बीजेपी नेताओं को लगा कि लोग हिंदुत्व के एजेंडे को अपना समर्थन देंगे और ममता बनर्जी द्वारा किए गए उनके तमाम सुधारात्मक कार्यों को देखते हुए भी उनके पास कोई वोट बैंक नहीं जाएगा. हालांकि, बंगाल में हिंदुत्व का एजेंडा बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सका. शायद इसीलिए साल 2018 के अंत में तृणमूल कांग्रेस के पूर्व नंबर 2 के नेता मुकुल रॉय ने जब राज्य में प्रस्तावित रथयात्रा की शुरुआत करनी चाहिए तो उन्होंने उसे लोकतंत्र बचाओ यात्रा का नाम दिया.
कुछ अन्य कारणों को देखें तो पार्टी के कैडर को तैयार करने में जिन युवाओं की जरूरत होती है, वो छात्र संघ से आते हैं. जहां तमाम राजनीतिक दलों के युवा विंग होते हैं और इस क्षेत्र में वामपंथ की बेहद मजबूत उपस्थिति है. बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ऐसे युवाओं के आइडल हैं. एक तरफ जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 'मार्क्सवादी' की स्टूडेंट शाखा प्रदेश के हर कॉलेज में मजबूत है, वहीं दूसरी ओर बीजेपी से जुड़े छात्र संघ की उपस्थिति इन कॉलेजों में बेहद कमजोर दिखाई देती है. 2021 के विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में बुद्धिजीवियों को लुभाने के लिए भी बीजेपी ने खूब प्रयास किए. लेकिन ये सभी प्रयास विफल रहे, क्योंकि इन तमाम प्रयासों के बावजूद भी बहुत कम लोगों ने बीजेपी ज्वाइन की.
बीजेपी लोगों को प्रभावित नहीं कर पाई
राज्य के हिंदुओं के लिए बीजेपी की अपील ज्यादा कारगर साबित नहीं हुई जो कोलकाता के प्रमुख दुर्गा पूजा से स्पष्ट था. हालांकि इनमें से कुछ प्रमुख दुर्गा पूजा समितियां तृणमूल कांग्रेस के नेताओं द्वारा भी संचालित थीं, लेकिन इसके बावजूद ऐसा कोई नहीं था जो बीजेपी नेताओं से प्रभावित हो. वामपंथ के 34 साल के रिकॉर्ड कार्यकाल के दौरान भी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने दर्जनों प्रमुख पूजा समितियों पर प्रभाव डाला, जिसने संकेत दिया कि इन नेताओं के पास भले ही राजनीतिक शक्ति न हो, लेकिन सामाजिक प्रभाव था. वहीं कोलकाता और उसके तमाम उप नगरों में बीजेपी नेताओं द्वारा नियंत्रित हजारों में से शायद ही कोई बड़ी दुर्गा पूजा हो. राज्य में बीजेपी नेताओं द्वारा स्थापित किसी भी प्रभाव से बचने के लिए तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने बेहतर काम किया. जब संघ परिवार के नेताओं ने 2017 में कोलकाता में बड़े पैमाने पर रामनवमी समारोह को आयोजित किया तो सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने पहले इस प्रयास की आलोचना की और तर्क दिया कि यह बंगाल की संस्कृति नहीं है. लेकिन अगले साल ही टीएमसी के नेताओं ने अपने विरोधियों की हवा निकालने के लिए ऐसे ही समारोहों का आयोजन करना शुरू कर दिया.
बीजेपी राज्य में अपनी जड़ें जमाने में पूरी तरह से विफल रही, यह ऐसे भी सिद्ध हो जाता है कि उसके 294 विधानसभा क्षेत्रों में लगभग 100 से अधिक उम्मीदवार टीएमसी के पूर्व नेता थे. जिसकी वजह से उसके पार्टी के समर्थकों के बीच भी बहुत असंतोष था. नाडिया और उत्तर 24 परगना जिले के बड़े हिस्से में मटुआ और नमशूद्र आबादी रहती है, जिसे भाजपा समर्थित माना जाता था, क्योंकि शांतनु ठाकुर इसी समुदाय से आते हैं. वही पूर्वी पाकिस्तान से पलायन करने वाले पिछड़े वर्ग के हिंदुओं ने भी साल 2019 के चुनाव में बीजेपी को अपना समर्थन दिया था. लेकिन जूट उद्योग में संकट के मुद्दे पर केंद्र सरकार की तीखी आलोचना करने वाले सांसद अर्जुन सिंह के तेवर बदले बदले हैं. अगर वह बीजेपी से दूर हो जाते हैं तो आने वाले समय में उत्तर 24 परगना में हिंदी भाषी जूट मिल श्रमिकों और उससे संबंधित आबादी का एक बड़ा वर्ग बीजेपी से दूर हो जाएगा, क्योंकि परगना जिले में अर्जुन सिंह बीजेपी की रीढ़ की हड्डी हैं.
अमित शाह जो भी कुछ करते हैं एक बात तो तय है कि वह सब कुछ राज्य में पार्टी को बढ़ाने के लिए करते हैं. हालांकि इसके बावजूद भी दिल्ली से आने वाले केंद्रीय नेता लंबे समय तक पश्चिम बंगाल के लिए स्थाई नीति नहीं हो सकते. इसलिए उन्हें भविष्य के नेताओं को तैयार करने के लिए राज्य में जमीन तैयार करनी होगी और पार्टी का नेतृत्व मजबूत करना होगा. मौजूदा समय में बीजेपी राज्य में कमजोर हो रही है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह बहुत जल्द हाशिए पर चली जाएगी जैसा कि इससे पहले की स्थिति में थी.
विपरीत परिस्थितियां
अगर हम आबादी के आंकड़ों पर नजर डालें तो स्थिति कुछ और दिखती है. राज्य के लगभग 100 विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमानों की आबादी 50 से 20 फ़ीसदी है. इस वजह से बीजेपी के लिए इन सीटों पर जीत हासिल करना बेहद मुश्किल हो गया है. क्योंकि राज्य में बहुमत साबित करने का जादुई आंकड़ा 148 है, इसलिए भविष्य में बंगाल की लड़ाई को जीतने के लिए बीजेपी को 194 में से कम से कम 148 सीटें जीतने होंगी. यह एक बड़ी चुनौती है और इसके लिए कुछ हद तक ध्रुवीकरण भी जरूरी होगा जो बंगाल में हासिल करना बेहद मुश्किल लग रहा है. अमित शाह के सामने जो चुनौतियां हैं उसका विश्लेषण करने की जरूरत है और बीजेपी को इस बात को समझने की जरूरत है कि कैसे वह अपने उन तमाम नेताओं को रोक सके जो लगातार सत्तारूढ़ दल में पलायन कर रहे हैं.
बीजेपी को अपने विरोधियों की गलतियों से सीखने की जरूरत है, टीएमसी तेजी से आगे बढ़ने वाली पार्टी है और हाल की घटनाओं ने यह दिखा भी दिया है कि इसके नेता फिलहाल हिंसा करने में भी पीछे नहीं हैं. रेत और पत्थर खनन, गौ तस्करी, निर्माण सामग्री में सिंडिकेट जैसे तमाम अवैध व्यवस्थाओं से आर्थिक लूट अपने चरम पर है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तमाम चेतावनी के बावजूद भी यह नहीं रुक रहा है, यहां तक की 2018 में तो ऐसे मानसिकता वाले नेताओं ने विपक्षी नेताओं को पंचायत चुनाव में नामांकन दाखिल करने से भी रोक दिया था और उन्हें डराने धमकाने की तमाम कोशिशें की थीं.
लक्ष्य पर नजर
जैसे-जैसे देश में विकेंद्रीकरण बढ़ा है, वैसे ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारियां पंचायत स्तर पर स्थानांतरित हो गई है, जिसके परिणाम स्वरूप इनके माध्यमों से ज्यादा से ज्यादा धन प्रसारित हो रहा है. इसे जमीनी स्तर पर सत्ता बेहद आकर्षक और एक बढ़ता हुआ करियर ऑप्शन बन गई है. वही सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के लिए चुनाव से पहले अपने दमखम को दिखाना इसे और आकर्षक बनाता है. अगर सत्ताधारी दल 2023 के विधानसभा चुनाव के दौरान अपनी गलतियों को दोहराती है तो यह फिर से बड़े पैमाने पर राज्य में सत्ता विरोधी लहर पैदा कर देगी. जैसा कि 2019 में हुआ था और अगर ऐसा हुआ तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी फिर से मुस्कुराती नजर आएगी.
हालांकि कुछ विश्लेषक फिलहाल इसे उतनी तवज्जो नहीं दे रहे हैं. एक बात और गौर करने वाली है कि जैसे-जैसे बीजेपी राज्य में कमजोर हो रही है वैसे-वैसे वामपंथी धड़ा मजबूत हो रहा है और धीरे-धीरे वह राज्य में फिर से अपनी वापसी करने की फिराक में है. निकाय चुनाव के परिणाम साफ बताते हैं कि कैसे माकपा को बीजेपी से ज्यादा वोट मिले. दरअसल वामदल के नेतृत्व ने अपने पुरानेचेहरों से छुटकारा पा लिया है और अब वहां की बागडोर युवा और मुखर नेताओं के समूह ने अपने हाथों में ले ली है.
जबकि अगर हम 2019 के नतीजों को देखें तो पता चलता है कि बीजेपी को जो बढ़त हासिल हुई थी उसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा वामपंथी धड़े से टूटे हुए वोट बैंक का था. लेकिन अब बीजेपी जिस तरह से नीचे गिर रही है उससे पूरी उम्मीद है कि राज्य में ज्यादातर टीएमसी विरोधी वोटबैंक फिर से वामपंथियों के धड़े में आ जाएगा. हालांकि निकाय चुनाव में वामपंथियों को जो बढ़त मिली वह शहरी इलाकों में थी, देहात के इलाके में आज भी टीएमसी की पकड़ मजबूत है और वामपंथी धड़े को यहां अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए काफी मेहनत करने की आवश्यकता है. लेकिन एक बात और समझने वाली है कि बीजेपी की जड़ें जितनी तेजी से शहरों में नहीं जम रही हैं, उससे अधिक तेजी से गांवों में फैल रही हैं. अगर टीएमसी के नेताओं का हिंसात्मक रवैया इसी तरह से बना रहा तो अनुमान है कि अमित शाह की रणनीति के चलते टीएमसी विरोधी गांव का वोट बैंक बीजेपी के करीब आ जाएगा.
उत्तर की ओर देखो
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बीजेपी के लिए फिलहाल बंगाल में स्थिति आशावादी नहीं है. हालांकि इस बीच एक बात और निकल कर सामने आ रही है कि बीजेपी को फिलहाल अखिल बंगाल का सपना छोड़ अपना पूरा ध्यान उत्तर बंगाल पर केंद्रित करना चाहिए. जहां वह अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. उत्तरी बंगाल बीजेपी के लिए बेहतर रहा है और यहां टीएमसी हमेशा से कमजोर रही है. इस क्षेत्र की 7 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से छह बीजेपी के पास हैं और एक कांग्रेस के पास. 2021 के विधानसभा चुनाव में भी यहां बीजेपी का प्रदर्शन बाकी के बंगाल की तुलना में काफी बेहतर रहा था. 54 विधानसभा क्षेत्रों में से बीजेपी ने 38 और टीएमसी ने 24 पर जीत हासिल की थी.
इस बात को पूरी तरह से माना जा सकता है कि विकास के मामले में उत्तरी बंगाल दक्षिणी बंगाल से कहीं ना कहीं पीछे रह गया है. यहां ह्यूमन डेवलपमेंट इंडिकेटर्स राज्य के बाकी हिस्सों से पीछे हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सुखांत मजूमदार उत्तर बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर जिले से आते हैं. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर दक्षिण का विभाजन वास्तव में बीजेपी के पक्ष में काम कर सकता है.
क्योंकि लंबे समय से सत्तारूढ़ दलों ने इस क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं किया है. अमित शाह भी उत्तर बंगाल में अपना काफी समय बिताने जा रहे हैं, शायद अपने पूरे यात्रा की एकमात्र जनसभा वह इसी क्षेत्र में कर सकते हैं. वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी चुपचाप तरीके से जमीनी स्तर पर उत्तर बंगाल के जिलों में ही अपनी पैठ बनाई है. दिलचस्प बात यह है कि पिछले हफ्ते ही बीजेपी विधायक शंकर घोष ने ट्विटर पर सुझाव दिया था कि उत्तर बंगाल को एक अलग राज्य बना दिया जाना चाहिए.
Rani Sahu
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