सम्पादकीय

प्रियंका गांधी की लखीमपुर खीरी यात्रा को इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा से जोड़ने वालों की क्या पूरी होगी उम्मीद?

Rani Sahu
6 Oct 2021 12:36 PM GMT
प्रियंका गांधी की लखीमपुर खीरी यात्रा को इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा से जोड़ने वालों की क्या पूरी होगी उम्मीद?
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तारीख थी 13 अगस्त 1977, इंदिरा गांधी 35 कारों के काफिले के साथ पटना पहुंची थीं

संयम श्रीवास्तव तारीख थी 13 अगस्त 1977, इंदिरा गांधी 35 कारों के काफिले के साथ पटना पहुंची थीं फिर देर रात हाथी की पीठ पर भींगते नदी पार करने का हिम्मत वो भी बिना हौदे के. 11 दलितों का नरसंहार हुआ था. ऐसे में इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) मालूम था कि अगर कांग्रेस पार्टी (Congress Party) को फिर से खड़ा करना है तो उन्हें इस मौके का फायदा उठाना चाहिए. और उन्होंने ऐसा ही किया. इसका फायदा हुआ और 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में वापसी करने में कामयाब हो गईं. आपको लग रहा होगा कि हम आपको आज से 40 साल पुरानी कहानी क्यों बता रहे हैं? दरअसल प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) जिस तरह से लखीमपुर खीरी (Lakhimpur Kheri) कि दुर्घटना के बाद वहां पहुंचना चाह रही हैं उसे सोशल मीडिया पर कुछ लोग इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा की तरह बता रहे हैं.

और उन्हें लग रहा है कि शायद अब उत्तर प्रदेश में मरणासन्न की स्थिति में जो कांग्रेस पहुंच गई है उसे प्रियंका गांधी अपने लखीमपुर खीरी की यात्रा के बाद फिर से जिंदा कर देंगी. हालांकि प्रियंका गांधी किसी घटना वाली जगह पर पहली बार नहीं जा रही हैं, इससे पहले हाथरस और सोनभद्र के उम्भा गांव में भी प्रियंका गांधी पहुंचकर कांग्रेस को यूपी की राजनीति में जिंदा करने की कोशिश कर चुकी हैं. हालांकि उनकी पिछली यात्राओं का कांग्रेस की स्थिति पर ज्यादा असर नहीं पड़ा. इसलिए पूरा दारोमदार प्रियंका गांधी की लखीमपुर खीरी यात्रा पर है. आने वाले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं ऐसे में कांग्रेस पार्टी के साथ कोई भी क्षेत्रीय पार्टी खड़े होने के मूड में नहीं है और अकेले कांग्रेस पार्टी के भीतर इतना दम नहीं है कि वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 10 सीटों पर भी मजबूत लड़ाई लड़ सके. कांग्रेस आलाकमान को पता है कि अगर इस मुद्दे को प्रियंका गांधी- राहुल गांधी भुनाने में कामयाब हो जाते हैं तो शायद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी स्थिति कुछ बेहतर हो जाए.
हाथी से बेलछी गांव फिर दिल्ली की गद्दी
प्रियंका गांधी लखीमपुर खीरी पहुंच कर उत्तर प्रदेश की गद्दी हासिल करना चाहती हैं. हालांकि उनकी दादी इंदिरा गांधी बेलछी गांव पहुंचकर दिल्ली की सत्ता हासिल करना चाहती थीं और उन्होंने किया भी. 13 अगस्त 1977 को इंदिरा गांधी बिहार के पटना जिले के सीमा पर बसे गांव बेलछी पहुंची, जो आजकल नालंदा में है. वहां वह 11 दलितों नृशंस हत्याकांड के बाद उनके परिवारों से मिलने पहुंची थीं. उस वक्त बिहार में बेतहाशा बारिश हो रही थी और बेलछी गांव बाढ़ की गिरफ्त में था.
ऐसे में इंदिरा गांधी का उस गांव में पहुंचना मुश्किल हो रहा था, उन्होंने पहले जीप से जाने की कोशिश की लेकिन जीप कीचड़ में फंस गई. बाद में उनके लिए 'मोती' नाम का एक हाथी मंगाया गया जिस पर सवार होकर वह बेलछी गांव पहुंचीं और मृतकों के परिजनों से मिलकर अपनी संवेदना व्यक्त की. कहते हैं इंदिरा गांधी की इस यात्रा के बाद पूरे देश के दलितों और पिछड़ों का उन्हें समर्थन मिला और 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत हुई. इसके बाद मरणासन्न की स्थिति में जा चुकी कांग्रेस फिर से जिंदा हुईं. हालांकि इंदिरा गांधी अपने इस शासनकाल को पूरा नहीं कर सकीं और 1984 में उनकी हत्या कर दी गई.
सोशल मीडिया पर लोग प्रियंका गांधी की लखीमपुर खीरी यात्रा को बेलछी यात्रा की तरह देख रहे हैं
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में 3 अक्टूबर को एक दुर्घटना हुई, जिसमें कुल 8 लोगों की मौत हो गई. मरने वालों में बीजेपी के कार्यकर्ता एक पत्रकार और किसान शामिल हैं. हालांकि स्थिति ज्यादा बिगड़ती इससे पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार ने किसान नेता राकेश टिकैत के साथ मिलकर इस मसले को सुलझा लिया और मारे गए व्यक्तियों के परिजनों को 45 लाख का मुआवजा और एक सरकारी नौकरी की बात कही गई. हालांकि राकेश टिकैत के इस समझौते के कारण विपक्ष की पार्टियां खासतौर से कांग्रेस उनसे नाराज है, क्योंकि उन्होंने उससे 2022 के विधानसभा चुनाव का एक अहम मुद्दा छीन लिया.
खैर यह बातें अलग रखते हैं. प्रियंका गांधी सुलह समझौते के बाद भी नहीं मानी, उन्होंने ठान लिया कि उन्हें लखीमपुर खीरी पहुंचना ही है. लेकिन प्रियंका गांधी लखीमपुर खीरी पहुंच पाती उससे पहले ही उन्हें सीतापुर में ही गिरफ्तार कर लिया गया. क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने लखीमपुर खीरी में धारा 144 लगा रखी है और प्रदेश सरकार का मानना है कि वहां नेता पहुंचकर स्थिति को और बिगाड़ सकते हैं इसलिए किसी भी नेता की एंट्री लखीमपुर खीरी में फ़िलहाल बैन है. सोशल मीडिया पर कई बड़े पत्रकारों ने प्रियंका गांधी के इस जज्बे को इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा से जोड़कर देख रहे हैं. हालांकि बुधवार को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को लखीमपुर खीरी जाने की अनुमति मिल गई है. अब देखना होगा की इस यात्रा के बाद क्या सच में प्रियंका गांधी भी इंदिरा गांधी के बेलछी यात्रा की तरह कांग्रेस को जिंदा करने में कामयाबी हासिल कर पाएंगी.
प्रियंका गांधी के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी है
2014 के बाद से देश में कांग्रेस की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस 90 के दशक के बाद से आज तक सत्ता में ही नहीं आई. यानि सत्ता से लगभग 32 सालों का गैप. ऐसे में कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं में जोश खत्म हो चुका है. इसलिए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिंदा करने की कमान प्रियंका गांधी के हाथों सौंपी गई. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी खूब मेहनत के बावजूद भी कांग्रेस पार्टी को बेहतर स्थिति में नहीं ला सकीं. अब कांग्रेस पार्टी को उनसे उम्मीद है कि वह 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बेहतर स्थिति में लाएंगी. इसके लिए प्रियंका गांधी खूब मेहनत भी कर रही हैं. उत्तर प्रदेश से जुड़ी ऐसी कोई छोटी-बड़ी घटना नहीं होती जिस पर प्रियंका गांधी रिएक्ट नहीं करतीं. उत्तर प्रदेश को लेकर उनके द्वारा की जा रही मेहनत को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि अभी यूपी में कांग्रेस को अपनी स्थिति मजबूत करने में शायद 5 से 10 साल और लगेंगे.
कांग्रेस का काडर खत्म होना
उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी या प्रियंका गांधी की कोई भी योजना सिरे न चढ़ पाने का एक बहुत बड़ा कारण पार्टी का काडर खत्म हो जाना है. वर्षों से पार्टी में संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए हैं. जिला कमेटियां भंग पड़ी हुई हैं या निष्क्रिय हैं. पार्टी के वोट बैंक पर दूसरी पार्टि यों का कब्जा हो चुका है. ब्राह्मण और मुसलमान पूरी तरह कांग्रेस के साथ आ भी जाएं तो कांग्रेस के हाथ यूपी में कुछ आने वाला नही है. कई साल तक पार्टी के सत्ता में न आने के चलते राज्य में कद्दावर नेताओं का अभाव हो गया है
राहुल-प्रियंका केवल बड़ी घटना पर ही दिखते हैं
उत्तर प्रदेश में विपक्ष की राजनीति सुषुप्ता अवस्था मे है. जब कोई बड़ी घटना होती है तभी ये नजर आते हैं. बाकी दिनों में सभी दिल्ली वासी हो जाते हैं. राहुल-प्रियंका ही नहीं दूसरी पार्टियों की नई पीढ़ी भी संघर्ष का माद्दा नहीं रखती. यूपी या पूरे देश में दशकों से कोई लंबा राजनीतिक संघर्ष नहीं हुआ. महंगाई, किसान आंदोलन, गन्ना मूल्य बढोतरी आदि के नाम पर लंबे संघर्ष चलाए जा सकते थे पर विपक्ष ने कुछ नहीं किया. चुनाव के कुछ दिनों पहले नेता रथ यात्रा लेकर निकलते हैं. गेस्टहाउस के कमरे मे सफाई करते प्रियंका की तस्वीर जरूर वायरल हुई है पर बेलछी की तरह देर रात हाथी की पीठ पर भींगते नदी पार करने का हिम्मत वो भी बिना हौदे के जैसी बात नहीं दिखी अब तक.
इंदिरा गांधी की नेतृत्व क्षमता
इंदिरा गाधी एक करिश्माई नेता थीं. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी उनकी तरह का लीडरशिप डिवेलप नहीं कर सके. इंदिरा गांधी सीजनल लीडर नहीं थीं. राहुल गांधी और प्रियंका गांदी वाड्रा का बीच-बीच में गायब हो जाना आम लोगों ही नहीं पार्टी कार्यकर्ताओं को भी अखरता है.


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