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जस्टिस रमना ने जो नहीं कहा, वह यह है कि अब पुलिस ज्यादतियों को एक सरकारी नीति के रूप में अपना लिया गया है।
जस्टिस रमना ने जो नहीं कहा, वह यह है कि अब पुलिस ज्यादतियों को एक सरकारी नीति के रूप में अपना लिया गया है। 'ठोक दो' के औपचारिक आदेश ने पुलिस को बंधन मुक्त कर दिया है। जब बात यहां तक पहुंच गई है, तब जस्टिस रमना ने वह कहा, जो स्थिति आजादी के बाद हमेशा से रही है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने मानवाधिकारों और उससे जुड़े खतरों को लेकर जो कहा, वह खूब चर्चित हुआ है। आज के मायूसी के दौर में बहुत से लोगों ने उसे उम्मीद की एक किरण के रूप में देखा है। पर अगर गौर करें, तो वे ऐसी सामान्य बातें हैं, जिन्हें भारत का हर जागरूक नागरिक जानता है। एक पूरी पीढ़ी 1960 के दशक में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज आनंद नारायण मुल्ला की इस टिप्पणी को सुनते-सुनाते बड़ी हुई थी कि पुलिस संगठित अपराधियों का सबसे बड़ा गिरोह है। मगर सवाल है कि ऐसी बातों से होता क्या है? पुलिस तब जैसी थी, उसकी भूमिका आज उससे भी ज्यादा चिंताजनक है। बहरहाल, जस्टिस रमना ने जो नहीं कहा, वह यह है कि अब देश के कुछ या ज्यादातर राज्यों में पुलिस ज्यादतियों को एक सरकारी नीति के रूप में अपना लिया गया है। 'ठोक दो' के औपचारिक आदेश ने पुलिस को बंधन मुक्त कर दिया है। जब बात यहां तक पहुंच गई है, तब जस्टिस रमना ने वह कहा, जो स्थिति आजादी के बाद हमेशा से रही है।
फिर भी अगर वे ये बातें दस या बीस साल पहले कहते, तो उसे एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप माना जाता। लेकिन अब तो बात उससे बहुत आगे निकल चुकी है। प्रश्न है कि जस्टिस रमना जैसे उच्च पदस्थ व्यक्ति के पास स्थिति बदलने के लिए हस्तक्षेप करने की क्या योजना है? वे चाहें तो ऐसा हस्तक्षेप करने की दिशा आगे बढ़ सकते हैं। इसके लिए उन्हें चाहिए कि वे फर्जी पुलिस एनकाउंटर के आरोपों वाले तमाम मामलों- और साथ ही यूएपीए और राजद्रोह वाले तमाम मामलों के समयबद्ध निपटारे का आदेश अदालतों को दें। सुप्रीम कोर्ट में इसके लिए विशेष पीठ बनाएं, जो ऐसे तमाम मामलों की निगरानी करे। इसकी शुरुआत कश्मीर के बंदी प्रत्यक्षीकरण वाले मामलों से की जा सकती है, जो दो साल से लंबित पड़ी हैँ। अगर ये कदम नहीं उठाए जाते तो जस्टिस रमना की यह टिप्पणी निरर्थक मालूम पड़ेगी कि मानवाधिकारों और शारीरिक अखंडता के लिए खतरा पुलिस स्टेशनों में सबसे अधिक है। जस्टिस रमना ने कहा कि अब यहां तक कि विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को थर्ड डिग्री ट्रीटमेंट से नहीं बख्शा जाता है। असल सूरत तो यही है कि जब अत्याचार एक नीति बन जाती है, तो उसका निशाना बनने से कोई नहीं बच सकता। सवाल है कि हल क्या है?
Triveni
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