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स्मृति में वही ठहर जाता है जो कैमरे में कैद नहीं हुआ
मनीषा पांडेय।
एक अमेरिकन जर्नलिस्ट क्रिस्टिना फार ने एक बार अपने एक मेमॉयर में लिखा कि वो अपने बॉयफ्रेंड के साथ तुर्की के एक छोटे से आइलैंड पर छुट्टियां बिताने गई थीं. वो जगह पूरी दुनिया में अपने सूर्यास्त के लिए जानी जाती है. वहां से सूर्यास्त इतना करीब महसूस होता है, मानो आप हाथ बढ़ाकर उस डूबते हुए सूरज को छू लेंगे. क्रिस्टिना अपने संस्मरण में लिखती हैं कि सूरज डूबने से पहले वो सनसेट पॉइंट लोगों से खचाखच भरा हुआ था. इतनी भीड़ कि आपस में बिना टकराए वहां कोई सीधे खड़ा भी नहीं हो सकता था. हर कोई अपने हाथ में मोबाइल कैमरा लिए सूरज के डूबने का इंतजार कर रहा था. फिर वो क्षण आया, जब सूरज डूबने ही वाला था. कुछ दो से पांच मिनट का पूरा वक्त रहा होगा. जितनी देर सूरज डूब रहा था, हर कोई हाथों में मोबाइल लिए या तो उस डूबते सूरज की फोटो खींच रहा था या उसके बैग्राउंड में अपनी सेल्फी.
शायद ही किसी ने कैमरा साइड में करके सिर्फ उस डूबते हुए सूरज को देखा हो. पांच मिनट बाद जब सूरज डूब गया तो अचानक वो पॉइंट एकदम खाली हो गया. हर कोई डूबते सूरज को अपने कैमरे में कैद करके ले गया था. लेकिन शायद ही किसी की स्मृति में वो क्षण कैद हुआ हो.
मैंने जब जीवन में पहली बार समंदर देखा था, जब पहली बार हिमालय देखा था, उस वक्त मोबाइल फोन का आविष्कार नहीं हुआ था. वो दोनों ही क्षण मेरी स्मृति में ऐसे कैद हैं कि कभी भी आंखें बंद कर उसे याद कर सकती हूं. जैसे दिमाग ने उन दोनों क्षणों की तस्वीरें खींचकर मैमोरी में फीड कर दी हों. ऐसे अनोखे क्षण बाद में भी घटे हैं, लेकिन उनकी स्मृति मेरे दिमाग में नहीं है. वो किसी फोटो में कैद है. फोटो कहीं किसी एलबम में. मैं आंखें मूंदकर उन स्मृतियों की तस्वीरें नहीं देख पाती.
सुनने में भले ये महज एक नॉस्टैल्जिया सा लगता हो, लेकिन सच तो ये है कि साइंटिफिक स्टडी भी इस बात की पुष्टि करती हैं. कुछ वक्त पहले जरनल ऑफ अप्लाइड रिसर्च इन मैमोरी एंड कॉग्निशन (Journal of Applied Research in Memory and Cognition) में छपी यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ सांताक्रूज की एक जॉइंट स्टडी कहती है कि जिन क्षणों को लोग अपने कैमरे में कैद करते हैं, उनके मैमोरी में फीड होने की क्षमता सबसे कम होती है और वो बहुत तेजी के साथ फेड (धुंधली) भी हो जाती हैं. इस स्टडी में शोधकर्ताओं ने पाया कि हमारे मस्तिष्क का जो हिस्सा मैमोरी को रजिस्टर और स्टोर करने के लिए सक्रिय होता है, वो तस्वीरें खींचते वक्त सक्रिय नहीं होता. यही कारण है कि हर वक्त हरेक क्षण को तस्वीरों में कैद करने वाले लोगों की उन घटनाओं और चीजों की वास्तविक स्मृति काफी कमजोर होती है.
साल 2014 में कनैटीकट, अमेरिका की फेयरफील्ड यूनिवर्सिटी की एक रिसर्चर लिंडा हेनकेल की एक रिसर्च जरनल ऑफ साइकोलॉजिकल साइंस में पब्लिश हुई. इस स्टडी के लिए उसने कुछ 200 लोगों को आमंत्रित किया और उन्हें एक म्यूजियम में लेकर गई. उन लोगों से कहा गया कि वो हरेक ऑब्जेक्ट, छोटे से छोटे और बड़े से बड़े की डीटेल्ड तस्वीरें खींच सकते हैं. बाद में जब उन लोगों से उस म्यूजियम की उन्हीं चीजों के बारे में सवाल पूछा गया, जिसकी डीटेल्ड तस्वीरें उन्होंने खींची थीं तो वो अपनी स्मृति के आधार पर उन चीजों के बारे में नहीं बता पाए.
वहीं दूसरी ओर एक और समूह, जिसने उसी म्यूजियम में जाकर किसी भी ऑब्जेक्ट की तस्वीर नहीं खींची, बल्कि उस जगह पर सिर्फ कुछ घंटे बिताए, वो अपनी मैमोरी के आधार पर उस जगह का और वहां देखी गई चीजों का चित्र खींचने में ज्यादा कामयाब थे.
लिंडा हेनकेल की स्टडी कहती है कि चीजों को कैमरे में कैद करते हुए उनके हमारी स्मृति में कैद होने की संभावना क्षीण हो जाती है.
हाल ही में टेड डॉट कॉम पर एक टेड स्पीकर और NPR टेड रेडियो आवर के होस्ट मानोश जोमोरोदी का एक आर्टिकल छपा, जिसकी हेडलाइन थी- "इफ यू रिअली वॉन्ट टू रिमेंबर ए मॉमेंट, ट्राय नॉट टू टेक एक फोटो." (यदि आप सचमुच किसी क्षण को याद रखना चाहते हैं तो उसकी तस्वीर न लें.) इस आर्टिकल में मानोश अपने खुद के अनुभव और दुनिया भर के कई साइंटिफिक अध्ययनों के हवाले से कहते हैं कि एक मामूली सा कैमरा कैसे हमारे अनुभव करने की क्षमता और उस अनुभव को बदल सकता है. विज्ञान की भाषा में इसे "फोटो टेकिंग इंपेयरमेंट इफेक्ट" कहा जाता है. मानोश लिखते हैं कि अगर कैमरा किसी क्षण को कैद कर रहा है तो आपका दिमाग उस क्षण को कैद नहीं करेगा. अब ये चॉइस आपकी है कि आप उस क्षण को कैसे याद रखना चाहते हैं. किसी डिजिटल कैमरे के डिजिटल सॉफ्टवेयर में या फिर अपने दिमाग के मैमोरी बॉक्स में.
दिमाग में कैद मैमोरी भले किसी खास समय में सीमित क्षमताओं वाली जान पड़ती हो, लेकिन उसकी असीमित क्षमताओं और हमें सरप्राइज कर देने की ताकत का अंदाजा हमें भी नहीं होता.
यह अनायास तो नहीं हो सकता कि मीरा नायर की फिल्म नेमसेक में गोगोल को अपने बचपन में पिता के साथ का वो क्षण तब याद आता है, जब वो वयस्क और दुनियादार हो चुका है. उसकी शादी टूट चुकी है और बिखरी हुई जिंदगी एक बार फिर खुद को समेटने की कोशिश कर रही है. गोगोल याद करता है ठंड की वो एक शाम, जब वो अपने पिता के साथ समंदर किनारे जाता है. समंदर के बीचोंबीच बने पत्थर वाले रास्ते से होकर वे एकदम किनारे तक पहुंच जाते हैं, तभी गोगोल के पिता को याद आता है कि अरे कैमरा तो गाड़ी में ही रह गया. पिता गोगोल से कहते हैं, इस क्षण की कोई कोई तस्वीर नहीं होगी. तुम्हें इसे ऐसे ही याद रखना होगा. बेटा पूछता है, कब तक याद रखना होगा. पिता कहता है, हमेशा. याद रखना कि हम दोनों बहुत दूर किसी जगह पर गए थे, जिसके आगे जाने को रास्ता ही नहीं था.
बहुत सालों बाद भी बेटे को वो दृश्य याद है. वो दृश्य जिसकी कोई तस्वीर नहीं थी. वो दृश्य, जो बेटे को पता भी नहीं था कि उसे याद है. जो एक दिन अचानक ही याद आ गया. दिमाग के मैमोरी बॉक्स में हर वो क्षण सुरक्षित है, जो कैमरे में सुरक्षित नहीं. वो कहीं नहीं जाता. किसी दिन अचानक ऐसे ही लौटकर आता है और हमें सरप्राइज कर देता है.
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