सम्पादकीय

'सदी के सबसे बड़े दानवीर' जमशेदजी टाटा से आज के उद्योगपतियों को क्या सीखना चाहिए?

Tara Tandi
4 July 2021 7:55 AM GMT
सदी के सबसे बड़े दानवीर जमशेदजी टाटा से आज के उद्योगपतियों को क्या सीखना चाहिए?
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कोरोना काल में ऐसी तस्वीरें अक्सर देखने को मिलीं जब जरूरतमंदों को दान करते हुए

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | कोरोना (Corona) काल में ऐसी तस्वीरें अक्सर देखने को मिलीं जब जरूरतमंदों को दान करते हुए लोगों का सारा ध्यान कैमरे पर रहा. ये भारतीय परंपरा के उस सिद्धांत के खिलाफ है, जिसमें कहा गया है कि दान करो तो ऐसे कि दायां हाथ किसी को कुछ दे तो बाएं हाथ को भी पता ना चले. खैर भारतीय समाज के लिए संतोष और गौरव की बात है कि पिछले दिनों जमशेदजी नौसेरवानजी टाटा (Jamsetji Tata) सदी के सबसे बड़े फिलांथ्रोपिस्ट यानि दानवीर घोषित किए गए.

ऐसा माना जाता है कि फिलैन्थ्रॉपी पश्चिम की अवधारणा है, जिसका अर्थ लोकोपकार है. चैरिटी से उलट इसमें लोगों की मदद इस नीयत से की जाती है कि लंबे समय तक उन्हें इसका लाभ मिलता रहे. ये और बात है कि भारत में दानवीरता की ऐसी मिसाल बहुत प्राचीन रही है. पहाड़ पर रास्ते बना देना और सूखे में कुएं या तालाब खुदवा देना परोपकारिता के ऐसे उदाहरण हैं, जो इतिहास के अनंत गुमनाम नायकों के खाते में दर्ज हैं. 'आज भी खरे हैं तालाब' में अनुपम मिश्र लिखते हैं- 'पाटन नामक क्षेत्र में चार बड़े तालाब मिलते हैं. बुढ़ागर में बूढ़ा सागर है, मझगवां में सरमन सागर, कुआंग्राम में कौराईं सागर और कुंडम गांव में कुंडम सागर. 1907 में गजेटियर के माध्यम से देश का व्यवस्थित इतिहास लिखने के लिए घूम रहे अंग्रेजों ने भी इस इलाके में कई लोगों से ये किस्सा सुना और फिर इसे परखा. इतिहास ने सरमन, बुढ़ान, कौराईं और कूड़न को याद नहीं रखा, लेकिन इन लोगों ने तालाब बनाए और इतिहास ने उनको किनारे रख दिया. एक कृतज्ञ समाज तालाब बनाने वालों को अमर बनाता था और लोग भी तालाब बना कर समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते थे.'

समाज के प्रति कृतज्ञता दिखाना ही चैरिटी है
दरअसल, समाज के प्रति कृतज्ञता जताने की यही भावना हर तरह की चैरिटी का आधार होती है. जमशेदजी ने 1902 में अपने बेटे दोराबजी को जो चिट्ठी लिखी वो ऐसी ही दीर्घकालीन लोकोपकारी दृष्टि का उदाहरण है. जमशेदजी ने एक ऐसे शहर को बसाने की बात कही- 'जिसमें चौड़ी सड़कें हों, सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष हों, आबादी के बीच बगीचों के लिए पर्याप्त जगह हो, खेल के मैदान हों, मंदिर-मस्जिद-चर्च यानि हर धर्म के लिए पूजा या प्रार्थना स्थल हों.' यही परिकल्पना आज भी जमशेदजी टाटा के नाम पर बसे जमशेदपुर शहर का मूल चरित्र है.
अंग्रेजों के ज़माने में भारत का पारसी समुदाय सूरत से लेकर (तत्कालीन) बंबई के पश्चिमी तट तक बसा हुआ था. सूरत और नवसारी इन दो जगहों को पारसी लोगों का केंद्र माना जाता था. दरअसल नवसारी पारसी समुदाय को ईरान के एक प्राचीन शहर सारी की याद दिलाता था. इसी वजह से गुजरात के इस शहर को नवसारी यानि नया सारी कहा गया. जमशेदजी नवसारी में पैदा हुए और नवसारी से करीब 1750 किलोमीटर दूर उनके नाम पर एक पूरा शहर बस गया. शेक्सपियर ने कहा था 'नाम में क्या रखा है'. क्या पता जमशेदजी टाटा 400 साल पहले पैदा हुए होते तो शेक्सपीयर की धारणा इससे उलट होती!
'वो राष्ट्र जिसके पास इस्पात है, समझो सोना है'
अपनी किताब 'फॉर द लव ऑफ इंडिया: द लाइफ ऐंड टाइम्स ऑफ जमशेदजी टाटा' में आरएम लाला लिखते हैं- 'जमशेदजी का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब समुद्रों में जलयान तैरा करते थे. घोड़े और बैलगाड़ियां आदमी और सामान को इधर से उधर ले जाया करते थे. 65 वर्षों के उनके जीवनकाल में दुनिया कहां से कहां पहुंच गई. लेकिन जमशेदजी की कल्पना को उस समय पंख लगे, जब लंकाशायर की एक जनसभा में उन्होंने स्कॉटलैंड के इतिहासकार और दार्शनिक टॉमस कार्लाइल को ये कहते हुए सुना कि 'वो राष्ट्र जिसके पास इस्पात है, समझो उसके पास सोना है.'
लेकिन जमशेदजी टाटा के लिए इस्पात ही सबकुछ नहीं था. कॉलेज के दिनों में टाटा स्टील के 'जेनरल ऑफिस' के पास बस का इंतज़ार करते हुए वहां के मुख्य दरवाज़े पर लिखा एक नारा मुझे हमेशा आकर्षित करता था. ये नारा था- 'इस्पात भी हम बनाते हैं.' इस टैगलाइन में भी जमशेदजी टाटा की लोकोपकारी दूरदर्शिता समाहित है. यहां इस्पात का मतलब सिर्फ भट्ठियों में पिघलता लौह अयस्क, चिमनियों से उठता धुआं और ईंट-गारे से बना कारखाना ही नहीं, बल्कि एक तरक्कीशील वैज्ञानिक सोच भी है.
किस्सा कर्ज़न का: जब धरी रह गई चालाकी
1885 में जब कांग्रेस की पहली बैठक हुई तब उसमें जमशेदजी टाटा भी शामिल हुए थे. लेकिन वो अनावश्यक राजनीतिक व्यस्तता से बचते हुए अपना काम करते रहे. दुनिया भर में मशहूर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना के लिए जमशेदजी और लॉर्ड कर्जन में जो खींचतान हुई, और जिस तरह से कर्जन को पीछे हटना पड़ा, ये पूरा किस्सा साबित करता है कि क्यों जमशेदजी टाटा सदी से सबसे बड़ी 'दानवीर' कहलाए.
सितंबर 1898 में जमशेदजी ने एक साइंस यूनिवर्सिटी की स्थापना का ऐलान किया और उस ज़माने में इसके लिए 30 लाख रुपये का दान दिया, जिसकी कीमत आज शायद अरबों में होगी. ये रकम टाटा की पूरी संपत्ति का आधा हिस्सा थी, बाकी की संपत्ति उन्होंने अपने दोनों बेटों दोराबजी और रतनजी के लिए छोड़ दी. इसका पारसी समुदाय के कई लोगों ने ये कहते हुए विरोध किया कि साइंस यूनिवर्सिटी से हमारा क्या फायदा होगा, लेकिन जमशेदजी पीछे नहीं हटे. इस प्रस्ताव पर तब के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न को भी ऐतराज़ हुआ. कर्ज़न ने इस पर दो आपत्तियां जताईं. पहली आपत्ति ये कि साइंस की पढ़ाई के लिए भारत में छात्र कहां से आएंगे और दूसरी आपत्ति- भारत में इंडस्ट्री ही नहीं हैं तो साइंस यूनिवर्सिटी के छात्रों को नौकरी कहां मिलेगी.
टाटा के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए लंदन की रॉयल सोसायटी ने प्रोफेसर विलियम रामसे को भारत भेजा. (रॉयल सोसायटी 1660 में स्थापित दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्था है, जबकि प्रोफेसर विलियम रामसे वही मशहूर वैज्ञानिक हैं, जिन्हें 1904 में रसायन शास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला). रामसे करीब 10 हफ्ते तक भारत में रहे और इस नतीजे पर पहुंचे कि टाटा जिस संस्थान का प्रस्ताव दे रहे हैं, वो खोला जाना चाहिए. उन्होंने बैंगलोर को इस संस्थान के लिए योग्य जगह बताया. कर्ज़न ने जो सवाल उठाए थे, उनपर रामसे ने ये सुझाव दिया कि छात्रों को स्कॉलरशिप दी जानी चाहिए और भारत में नए कारखाने भी लगाए जाने चाहिए.
लेकिन कर्ज़न को ये बात समझ में नहीं आई. उन्होंने तब के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (राज्य सचिव) लॉर्ड हैमिल्टन को 1901 में चिट्ठी लिखकर कहा कि 'टाटा की योजना को उनकी महात्वाकांक्षा और रामसे के बढ़ा-चढ़ाकर दिए गए आइडिया से ख़तरा है और हमें अपनी तरफ़ से कोशिशें करनी होंगी.' कर्ज़न ने ये भी लिखा कि 'हम इस संस्थान को बनाने के लिए थोड़ा साधारण प्रस्ताव रखेंगे और जमशेदजी अगर इससे इनकार करेंगे तो योजना अमल में ना आने की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधे पर जाएगी.'
सख्या कम है, पर हर युग में होते हैं 'ऋषि दधीचि'
इसी दौरान अच्छी बात ये हुई कि मैसूर के महाराज बैंगलोर में इस संस्थान के लिए अपनी 371 एकड़ ज़मीन दान देने को तैयार हो गए. उन्होंने संस्थान की बिल्डिंग के निर्माण के लिए अलग से 5 लाख रुपये और हर साल 50 हज़ार रुपये देने का भी प्रस्ताव रखा. कर्ज़न जानता था कि टाटा जिस वैज्ञानिक संस्थान के लिए अड़े हुए हैं, वो भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए क्रांतिकारी होगा. इसीलिए वो काफी दिनों तक टालमटोल करता रहा, लेकिन आखिरकार 1905 में (जिस साल कर्ज़न ने बंग-भंग का आदेश दिया), वो इसके लिए राजी हो गया और 1911 में बैंगलोर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की शुरुआत हो गई.
लॉर्ज कर्जन और जमशेदजी टाटा के बीच जो लड़ाई चली, उसका सुखद नतीजा देखने के लिए खुद जमशेदीजी जीवित नहीं रहे क्योंकि मई, 1904 में उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन भारत के भविष्य को उन्होंने जो 'दान' दिया वो ऋषि दधीचि के दान से कम था क्या? वैसे सदी के दानवीरों की सूची तैयार करने वाली हुरुन रिपोर्ट के चीफ रिसर्चर और चेयरमैन रूपर्ट हूगवर्फ ने गलत नहीं कहा- 'आज के अरबपति जिस हिसाब से कमाई करते हैं, उस हिसाब से दान नहीं देते.'


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