सम्पादकीय

यह कैसा इंसाफ

Subhi
10 Nov 2022 2:46 AM GMT
यह कैसा इंसाफ
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दिल्ली के बहुचर्चित छावला गैंगरेप-मर्डर केस में मौत की सजा पा चुके तीन कैदी जिस तरह सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए, वह न केवल चौंकाने वाला है बल्कि हमारी पूरी न्याय प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है। यह मामला दिल्ली में बहुचर्चित निर्भया कांड से कुछ महीने पहले का है

नवभारतटाइम्स; दिल्ली के बहुचर्चित छावला गैंगरेप-मर्डर केस में मौत की सजा पा चुके तीन कैदी जिस तरह सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए, वह न केवल चौंकाने वाला है बल्कि हमारी पूरी न्याय प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है। यह मामला दिल्ली में बहुचर्चित निर्भया कांड से कुछ महीने पहले का है, जिसमें काम से लौट रही एक 19 साल की लड़की को घर के पास से अपहृत कर लिया गया था। तीन दिन बाद उसकी लाश हरियाणा के रेवाड़ी से क्षत-विक्षत अवस्था में मिली थी। पता चला कि विक्टिम के साथ गैंगरेप तो हुआ ही था, अपराधियों ने उसकी आंख में तेजाब डाल दिया था और टूटी शराब की बोतलें उसके प्राइवेट पार्ट में घुसाई थीं। इस वीभत्स कांड ने देशवासियों को दहला दिया था। इसके बाद हुए निर्भया कांड ने सबको झकझोर डाला और फिर यौन अपराधों से जुड़े कानूनों को और सख्त बनाया गया। लेकिन छावला गैंगरेप-मर्डर केस की सुप्रीम कोर्ट में हुई परिणति बताती है कि निर्भया कांड के बाद कानून में किए गए सुधार भी सरकारी और न्याय तंत्र के कामकाज के तरीकों में अपेक्षित बदलाव नहीं ला पाए।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गौर किया कि जो 49 गवाह बनाए गए थे, उनमें से 10 के साथ बचाव पक्ष ने कोई जिरह ही नहीं की। कई अन्य गवाहों के साथ ठीक से जिरह नहीं की गई। सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले में यह भी कहना पड़ा कि मुकदमे में जजों की भूमिका निष्क्रिय अंपायरों जैसी नहीं होनी चाहिए, सही निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए उन्हें गवाहों से सवाल करने की जरूरत होती है। अक्सर अभियुक्त अपने लिए अच्छे वकील करने की स्थिति में नहीं होते। ऐसे में फेयर ट्रायल के लिए यह जरूरी होता है कि जज अभियोजन पक्ष के वर्जन की ठीक से जांच-परख करें। इस मामले में तो जांच के स्तर पर भी गंभीर खामियां थीं। अपहरण की घटना के कई प्रत्यक्षदर्शी थे, इसके बावजूद आरोपियों की पहचान परेड तक नहीं कराई गई। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने आरोपियों की गिरफ्तारी, उनके कबूलनामे और जप्तियों पर साक्ष्यों से पुष्टि किए बगैर पुलिस के वर्जन को स्वीकार कर लिया। यहां तक कि सैंपल इकट्ठा करने और उन्हें फॉरेंसिक लैब भेजे जाने की प्रक्रिया में भी गड़बड़ियां पाई गईं। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इन सबके बावजूद फांसी की सजा सुनाई।

यह कोई इकलौता मामला नहीं है। नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के एक प्रॉजेक्ट 39ए के मुताबिक 2021 में देश भर में 33 ऐसे कैदियों को बरी किया गया, जिन्हें मौत की सजा सुनाई जा चुकी थी। यह बहुत बड़ी संख्या है। चूंकि अपराध को लंबा अरसा हो चुका होता है और ज्यादातर सबूत नष्ट हो चुके होते हैं इसलिए ऐसे मामलों में दोबारा जांच के आदेश भी नहीं दिए जा सकते। निश्चित रूप से यह स्थिति हमारी न्याय व्यवस्था के लिए एक कठिन चुनौती पेश करती है।


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