सम्पादकीय

वामदलों के विलय के प्रस्ताव पर सीपीएम की चुप्पी का क्या रहस्य है?

Rani Sahu
18 April 2022 9:30 AM GMT
वामदलों के विलय के प्रस्ताव पर सीपीएम की चुप्पी का क्या रहस्य है?
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पिछले दिनों मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) की केरल के कन्नूर में बड़ी बैठक हुयी

अजय झा

पिछले दिनों मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) की केरल के कन्नूर में बड़ी बैठक हुयी. सीपीएम कांग्रेस ने सीताराम येचुरी (SITARAM YECHURY) को लगातार तीसरी बार पार्टी का जनरल सेक्रेटरी चुना. मार्क्सवादी दलों में जनरल सेक्रेटरी का पद सबसे बड़ा होता है. जनरल सेक्रेटरी सेंट्रल कमिटी के अध्यक्ष होते हैं. और फिर अधिवेशन के आखिरी दिन पोलितब्यूरो (POLIT BURO) , जो पार्टी के सब प्रमुख निर्णय लेता है का भी पुनर्गठन हुआ. क्योंकि कई ऐसे नेता जो अब 75 के हो चुके हैं, उन्हें रिटायर कर दिया गया. सीपीएम अधिवेशन का केरल में होना बड़ी खबर नहीं है. सीताराम येचुरी को पार्टी का सर्वोच्च नेता चुना जाना भी बड़ी खबर नहीं है. बड़ी खबर है कि येचुरी ने अपने भाषण में वामदलों के एकता की बात की और येचुरी से एक कदम आगे निकलते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के जनरल सेक्रेटरी डी राजा (अधिवेशन में सीपीएम ने अन्य वामपंथी दलों के नेताओं को भी आमंत्रित किया था) ने सभी कम्युनिस्ट दलों के विलय की बात कर डाली. और सीपीएम के नेताओं को सांप सूंघ गया.
कांग्रेस पार्टी को लेफ्ट टू सेंटर पार्टी माना जाता था
एक जमाना था जबकि पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का एकछत्र राज होता था.विपक्ष के नाम पर मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े नेता और दल होते थे जिनमे सीपीआई और टुकड़ों में विभाजित समाजवादी दल थे. सीपीआई की कहीं सरकार तो नहीं थी पर कई राज्यों में इसका विस्तार हो रहा था और सम्भावना बनने लगी थी कि अगर भारत की जनता का किसी दिन कांग्रेस पार्टी से मन भर गया तो फिर शायद देश में सीपीआई की ही सरकार बनेगी. यह वह समय था जबकि भारत के अधिकांश दल और नेता मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे. कांग्रेस पार्टी को लेफ्ट टू सेंटर पार्टी के रूप में देखा जाता था. जहां कम्युनिस्ट पार्टी उग्र मार्क्सवादी विचारधारा से जुडी होती थी. समाजवादी दल नर्म मार्क्सवादी विचारधारा को मानते थे. 1951 में भारतीय जनसंघ नाम की पार्टी का गठन हो गया था जो कि एक दक्षिणपंथी पार्टी थी और मार्क्सवादी विचारधारा के ठीक विपरीत था. पर जनसंघ अभी भी उतनी बड़ी शक्ति नहीं बनी जैसा की उसके नए अवतार में भारतीय जनता पार्टी बनी.
कांग्रेस पार्टी की स्थिति कमजोर तो हो रही थी, पर चाहे वह कम्युनिस्ट पार्टी हो या समाजवादी दल, सभी आपसी कलह में ही उलझे होते थे. स्वतंत्रता के ठीक बाद से ही सीपीआई तीन घड़ों में बंट गया था जिसे सीपीआई-लेफ्ट, सीपीआई-सेंटर और सीपीआई-राइट के नाम से जाना जाता था. सीपीआई-लेफ्ट और सीपीआई-राइट के बीच झगड़ा इतना बढ़ गया कि 1964 में सीपीआई से अलग हो कर सीपीआई-लेफ्ट ने अलग दल बनाने की घोषणा की, जिसे बाद में सीपीएम के नाम से जाना गया.
कामरेड ज्योति बसु का समय
मार्क्सवादी दलों का पश्चिम बंगाल में अच्छा खासा दबदबा था क्योंकि इसी विचारधारा से जुड़े लोगों ने प्रदेश में नक्सलवाद आन्दोलन की शुरुआत की थी. इसका नतीजा 1977 में दिखा जबकि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में पहली बार कामरेड ज्योति बसु के नेतृत्व में सीपीएम सत्ता में आई. 1980 वाममोर्चा का गठन हुआ जिसमे सीपीएम के साथ सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लाक और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) एक साथ जुड़ गए. उस समय से वाममोर्चा अस्तित्व में है. तो फिर येचुरी का वामदलों की एकता की बात में नया क्या था?
यहां बताते चलें कि सीपीआई के विभाजन का एक प्रमुख कारण था सोवियत संघ और चीन में बढ़ता मनमुटाव. सीपीआई-राइट घड़े के नेता सोवियत यूनियन से प्रभावित थे और सीपीआई-लेफ्ट चीन के नेता माओ को अपना नेता मानते थे.1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत के कम्युनिस्ट नेता असमंजस की स्थिति में आ गए थे, खास कर सीपीआई-लेफ्ट धड़े के नेता. वह चीन की आलोचना नहीं कर सकते थे और समर्थन भी नहीं, क्योंकि उन्हें राजनीति भारत में करनी थी.वह चुप हो कर बैठ गए.सीपीआई-राइट ने चीन से मैकमोहन लाइन को मानने की सलाह दी थी जिस कारण चीन का समर्थन करने वाले कम्युनिस्ट नेता उनसे खफा हो गए थे.
सीपीआई मास्को और सीपीएम बीजिंग से संचालित होता था
बाद में भी कई बार वाममोर्चा में एकता का आभाव दिखा. अगर आज भारत में मार्क्सवादी दलों की हालत पस्त है तो इसका एक प्रमुख कारण है कि जहां सीपीआई मास्को में अपने आकाओं पर निर्भर रहता था, सीपीएम बीजिंग पर. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब 1975 में इमरजेंसी लगायी तो सोवियत यूनियन ने इसका समर्थन किया. लिहाजा मास्को के दबाव में सीपीआई को इमरजेंसी का समर्थन करना पड़ा, जिसका उसे नुकसान उठाना पड़ा. सीपीएम ने इमरजेंसी का विरोध किया था और पश्चिम बंगाल चुनावों में उसे इसका लाभ मिला.
दूसरा अवसर था जबकि 1996 में केंद्र में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनी. सभी विपक्षी दलों ने पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नाम का प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्ताव किया. बसु इसके लिए तैयार थे, पर सीपीएम पोलित ब्यूरो ने मना कर दिया. क्योंकि वह कांग्रेस पार्टी के समर्थन से सरकार चलाने को तैयार नहीं थे. भारत में मार्क्सवादी सरकार बनते बनते रह गयी और एक सुनहरा अवसर हाथ से जाता रहा. सीपीएम ने यूनाइटेड फ्रंट सरकार को बहार से समर्थन देने का ऐलान किया और सीपीआई सारकार में शामिल हुई. सीपीआई के सबसे बड़े नेता इन्द्रजीत गुप्ता यूनाइटेड फ्रंट सरकार में गृह मंत्री बने.
सीपीआई और सीपीएम में मतभेद
और तीसरा अवसर जबकि सीपीआई और सीपीएम में मतभेद दिखा, वह था जब भारत-अमेरिका परमाणु संधि के खिलाफ सीपीएम द्वारा 2008 में मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की गई . सीपीआई इस के पक्ष में नहीं था, पर उसे सीपीएम का साथ देना ही पड़ा. यह सीपीएम की एक और बड़ी भूल थी जिसका खामियाजा वाममोर्चा को आज भी भुगतना पड़ रहा है. जहां 2004 के लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा के 59 सांसद चुन कर आये थे और कांग्रेस पार्टी को उनके समर्थन के एवज में वामदलों की हर जायज और नाजायज बात सुननी पड़ती थी. मनमोहन सिंह ने परमाणु संधि पर उनकी बात सुनने से मना कर दिया. उनकी सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थन से चलती रही और वाममोर्चा से लोग ऐसे नाराज़ हुए कि 59 सांसद से 2009 में उनकी संख्या घट कर 22 पर आ गयी. पतन जारी रहा. 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा 34 वर्षों के बाद हार गयी और 2014 के लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा में सांसदों के संख्या घटकर 10 हो गयी. 2018 में त्रिपुरा में भी वाममोर्चा बीजेपी से चुनाव हार गयी और 2019 के लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा को 6 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. अब आलम यह है कि पिछले वर्ष हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में पहली बार वाममोर्चा एक भी सीट नहीं जीत पायी. अगर केरल का साथ नहीं होता तो वोममोर्चा का अंत लगभग तय लगने लगा था.
विलय की बातों में वाम मोर्चे का दर्द दिखता है
सीपीआई नेता डी राजा के वामदलों के विलय की बात में कहीं ना कहीं उनका दर्द और उनकी चिंता झलक रही है. वाममोर्चा में चार दल सम्मिलित हैं और मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े कम से कम आधा दर्ज़न और भी दल हैं जो इससे अलग हैं तथा विभिन्न राज्यों में सक्रिय हैं, जिसमे सबसे प्रमुख सीपीआई (एमएल) लिबरेशन है जो 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में 12 सीट जीतने में सफल रही, जबकि सीपीएम और सीपीआई को सिर्फ 2-2सीटें ही मिली.
मौजूदा परिस्थितियों में अगर वामपंथी दलों का विलय नही होता है तो उनका भविष्य अंधकारमय लगने लगा है. यह सभी मानते हैं कि जरूरत विलय की है, ताकि जितने भी वामपंथी दल हैं, सभी मिल कर एक दल का गठन करें. इससे कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति मजबूत होगी और आपस में जो वह एक दूसरे का वोट काटते हैं, वह भी नहीं होगा. इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इससे उनके 2004 वाले स्वर्णिम दिन की वापसी होगी जबकि केंद्र में उनकी तूती बोलती थी. हां, इतना जरूर होगा कि कम्युनिस्ट पार्टी इतिहास के पन्नो में सिमटने से बच जाएगी. पर जिस तरह डी राजा के विलय के प्रस्ताव पर सीपीएम ने चुप्पी साध ली है, लगता नहीं है कि ऐसा होने वाला है. शायदसीपीएम को बेजिंग की अनुमति नहीं है. वैसेभी अन्य वामदलों की तुलना के सीपीएम कुछ ज्यादा ही दकियानूसी और जिद्दी पार्टी है.
Rani Sahu

Rani Sahu

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