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पत्रकारों के साथ अभद्रता और मारपीट इस मौजूदा दौर में कोई नई बात नहीं है
प्रियदर्शन,पत्रकारों के साथ अभद्रता और मारपीट इस मौजूदा दौर में कोई नई बात नहीं है. उन पर इरादतन मुकदमे किए जाते हैं, उन्हें बेमतलब गिरफ़्तार किया जाता है, उन्हें उत्पीड़ित करने के तरह-तरह के तरीक़े निकाले जाते हैं. लेकिन शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि केंद्र सरकार के किसी मंत्री ने एक पत्रकार को धक्का दिया हो और पूरी पत्रकार बिरादरी को चोर बताया हो. ऐसा करते हुए वे अपना यह मलाल भी छुपा नहीं पाए कि पत्रकारों की वजह से उनके बेटे को जेल जाना पड़ा है- जिसे वे 'निर्दोष' को 'फंसाने' की संज्ञा दे रहे हैं.
क्या नरेंद्र मोदी सरकार के गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा की इस हरकत और उनके इस बयान के बाद भी इसमें कोई शुबहा रह जाता है कि वे एसाइटी की रिपोर्ट के विरुद्ध जाकर बेटे को निर्दोष मानते हैं और उसे बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे? क्या अब भी प्रधानमंत्री उनका इस्तीफ़ा नहीं लेंगे? सरकार का यह कैसा अहंकार है?
अभी एक हफ़्ता भी नहीं हुआ है जब प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा आहूत लोकतंत्र सम्मेलन में संवैधानिक मूल्यों और विधि के शासन की बात की थी. लोकतंत्र सिर्फ चुनाव जीतने का नाम नहीं है, उसके संरक्षण में बहुत सारे संवैधानिक मूल्यों का हाथ होता है, समानता और न्याय की वे लिखित-अलिखित प्रतिज्ञाएं होती हैं जो किसी नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन की आश्वस्ति देती हैं.
लेकिन उनके एक मंत्री का बेटा बाक़ायदा साज़िश रच कर शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रतिरोध में खड़े किसानों को कुचल डालता है. यह दरअसल लोकतंत्र को कुचलने का काम है जो इस अहंकार से उपजा है कि सत्ता उसकी चेरी है और न्याय उसका दास. इसके बाद जो कुछ होता रहा है, वह हमने देखा है. सरेआम हुए इस हत्याकांड के मुख्य आरोपी को हाथ लगाने में यूपी पुलिस डरती है, पहली बार उससे पूछताछ का जो समन जाता है, वह बिल्कुल अनुनय-विनय की शैली में होता है. इसके बाद अदालत के हस्तक्षेप के बावजूद पुलिस लगातार उसे बचाने में लगी रहती है. इस दौरान बीजेपी नेताओं से लेकर उसके आइटी सेल तक एक पूरा प्रचार तंत्र सक्रिय है जो तरह-तरह के दावे पर लखीमपुर खीरी के हादसे का सच बिल्कुल मिट्टी में मिला देना चाहता है. वह बताता है कि दरअसल जो लोग मारे गए हैं, वे गोली से मारे गए हैं जो किसानों ने चलाई है, कि जिस गाड़ी से हादसा हुआ, वह अजय मिश्रा के बेटे की नहीं थी, कि अजय मिश्रा का मासूम बेटा तो इन सबसे बेख़बर कहीं दूर था. लेकिन दिनदहाड़े किए गए इस जुर्म के निशान इतने पुख्ता हैं कि उनसे कोई भी संवेदनशील या विवेकशील आदमी आंख नहीं मूंद सकता. यह भी पता चलता है कि गाड़ी मंत्री-पुत्र की ही है, यह भी बात साबित होती है कि जिस राइफल से गोली चली, वह भी मंत्री पुत्र की ही है, और अंततः एसआइटी अपनी रिपोर्ट में यह मानने को विवश होती है कि ये पूरा वाकया हादसा नहीं हत्या है और इस हत्या की कोशिश का केस आशीष मिश्रा पर चलाया जाना चाहिए.
लेकिन इसके बाद सत्ता पक्ष से जो दलीलें आ रही हैं, वे बताती हैं कि वह हत्या ख़त्म नहीं हुई है जो आशीष मिश्रा ने शुरू की थी. वह दरअसल 4 किसानों की नहीं, एक देश के भीतर लोकतांत्रिक अपेक्षाओं की हत्या थी. देश के रक्षा मंत्री बयान देते हैं कि अपराध बेटे ने किया है तो सज़ा पिता को क्यों दी जानी चाहिए और संसदीय कार्य मंत्री कहते हैं कि मामला अदालत में है, इसलिए उस पर संसद में विचार नहीं हो सकता. मगर कौन सा मामला अदालत में है? किसानों की हत्या का या लोकतंत्र की हत्या का, जिसका साक्षी पूरा देश है? संसद में आशीष मिश्रा के मुक़दमे पर कोई बात नहीं हो रही थी. सांसद ये मुद्दा उठाना चाह रहे थे कि अजय मिश्रा को अब मंत्री बने रहना चाहिए या नहीं. जाहिर है, सरकार इस मुद्दे के लिए तैयार नहीं है?
लेकिन क्यों तैयार नहीं है? आख़िर उसने किसानों की सारी मांगें मानी ही हैं. जिन कृषि क़ानूनों को बिल्कुल पवित्र शब्दों की तरह बचाने की बात कही जा रही थी, उन्हें एक झटके में वापस लिया गया, जिन किसानों को नक्सल, आतंकवादी, खालिस्तानी सब बताया जा रहा था, उनकी मौत पर मुआवज़ा देने की बात भी मानी गई और किसानों पर मुकदमे भी हटा लिए गए. तो आखिर इस आशीष मिश्रा प्रकरण में क्या रखा है कि सरकार अपने एक मंत्री का इस्तीफ़ा नहीं ले सकती? क्या इसलिए तो नहीं कि जिस यूपी चुनाव के लिए सरकार ने ये सारी कवायद मंज़ूर की, उसी में उसे अजय मिश्रा के इस्तीफ़े से अपने ब्राह्मण वोट खोने का डर है? या यह डर है कि सरकार के भीतर गलतियों पर इस्तीफ़े देने की परंपरा शुरू हो जाएगी तो इसका सिलसिला लंबा तो नहीं चल निकलेगा? आख़िर सरकार के मंत्री गुरूर के साथ यह कहते रहे हैं कि यह माफ़ी मांगने वाली और इस्तीफ़े देने वाली सरकार नहीं है. यह मज़बूत सरकार है. यह अलग बात है कि पिछले कुछ वर्षों में बजट प्रस्ताव से लेकर क़ानून तक इस मज़बूत सरकार ने वापस लिए हैं.
चाहें तो याद कर सकते हैं कि कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने कितनी विनम्रता दिखाई थी. उन्होंने कहा था कि शायद उनकी तपस्या में ही कोई कमी रह गई कि किसानों को समझा नहीं सके. अगर वाकई वे तपस्या शब्द का मर्म समझते हैं तो यह भी जानते होंगे कि उनके मंत्री की ताज़ा बदतमीज़ी ने दरअसल उनकी तपस्या को सबसे ज़्यादा लांछित किया है. अगर इस मंत्री का इस्तीफ़ा नहीं होता तो माना जाएगा कि किसानों के सामने प्रधानमंत्री की अतिशय विनम्रता वाली तपस्या की बात दरअसल बस एक दिखावा थी. लेकिन जिस लोकतंत्र के हाथों मजबूर होकर सरकार ने तीनों कृषि क़ानून वापस लिए, वही लोकतंत्र देर-सबेर उसे विवश करेगा कि वह अपने इस मंत्री का इस्तीफ़ा भी ले.
Rani Sahu
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