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सम्पादकीय
हिंदू-मुस्लिम संबंधों में बिगाड़ के क्या है कारण, पढ़े एक्सपर्ट व्यू
Gulabi Jagat
5 Jun 2022 7:09 AM GMT
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किसी भी सभ्य समाज में एक वर्ग के धार्मिक प्रतीकों का दूसरे मतावलंबियों द्वारा अपमान तब भी स्वीकार्य नहीं
कास सारस्वत। वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर पर न्यायिक कार्यवाही रोकने के तमाम प्रयास असफल होते देख मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं का एक समूह बौखलाया हुआ है। ज्ञानवापी परिसर में निकले शिवलिंग के साथ छेड़छाड़ के प्रयासों की बात सामने आने पर यह उम्मीद बंधी थी कि मुस्लिम नेतृत्व अपराध बोध से ग्रस्त होकर बचाव की मुद्रा में आएगा, लेकिन वैसा कुछ देखने को नहीं मिला।
उलटे जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने यहां तक कह दिया कि जिन्हें हमारा मजहब बर्दाश्त नहीं, वे देश छोड़कर कहीं और चले जाएं। मंदिर विध्वंस और शिवलिंग के अपमान से उपजे आक्रोश के बीच ऐसा भड़काऊ बयान एक तरह से एलान है कि जमीयत उलमा-ए-हिंद जैसे संगठनों की नजर में इस्लाम का मूर्ति भंजक इतिहास लज्जा का विषय नहीं। विभाजन की विभीषिका और कश्मीर में हिंदुओं के सफाए के बाद मौलाना मदनी जैसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता का बयान एक तरह से बहुसंख्यक हिंदू समाज को चेतावनी है कि वह अपमान के प्रतीकों और अपने इष्ट, आराध्यों के मानमर्दन के साथ जीना सीख ले। मौलाना मदनी से पहले सुन्नी बरेलवी संप्रदाय के प्रमुख नेता मौलाना तौकीर रजा और दरगाह आला हजरत के प्रचारक मौलाना शहाबुद्दीन प्रतिकूल न्यायिक आदेश आने की स्थिति में विरोध की धमकी दे चुके हैं।
जहां मौलाना मदनी ने धमकी भरी भाषा का प्रयोग किया, वहीं एआइएमआइएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने अपने चिर परिचित विष वमन के साथ मूल विषय से भटकाने के लिए एक नया शिगूफा छेड़ा। ओवैसी ने कहा कि भारत न उनका है, न मोदी और अमित शाह का, बल्कि द्रविड़ और आदिवासियों का है। इस बयान के जरिये ओवैसी न सिर्फ अपने आप को, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय को भी विदेशी मूल का बता रहे हैं। इस शरारतपूर्ण बयान के जरिये यह जतलाने का प्रयास हो रहा है कि भारत के बहुसंख्यक हिंदू भी यहां के मूल निवासी नहीं हैं।
किसी भी सभ्य समाज में एक वर्ग के धार्मिक प्रतीकों का दूसरे मतावलंबियों द्वारा अपमान तब भी स्वीकार्य नहीं, जब दोनों समूह पलायन करके आए हों, परंतु भारत में मूलनिवासी संबंधी कथानक तो निरा झूठ का पुलिंदा है। जिस आर्य आक्रमण सिद्धांत यानी आर्यन इन्वेजन थ्योरी पर द्रविड़ और आर्यों एवं वनवासियों तथा गैर वनवासियों के बीच कृत्रिम भेद खड़ा करने का प्रयास किया गया, उस सिद्धांत को गंभीर अकादमिक क्षेत्र पूरी तरह से खारिज कर चुका है। यही नहीं पापुलेशन जेनेटिक्स क्षेत्र में ऐसे तमाम शोध हो चुके हैं, जिनमें पाया गया है कि भारतीय उपमहाद्वीप की आनुवंशिक संरचना सभ्यता के शुरुआत में ही स्थायी हो चुकी है। ऐस्टोनियाई आनुवंशिकीविद् टूमस किविसिल्ड, भारतीय जेनेटिक वैज्ञानिक संघमित्र सेनगुप्ता, पार्था मजूमदार और अन्य शोधकर्ताओं ने पाया है कि अफगानिस्तान से लेकर पूर्वी भारत तक, उपमहाद्वीप की आनुवंशिक संरचना लगभग 12 हजार वर्ष पूर्व ही स्थिर हो चुकी है।
विषय की गहराई में जाते हुए सुशांत राय चौधरी ने पाया कि जो डीएनए तत्व-हैपलोग्रुप यू उत्तर भारतीयों की आनुवंशिक संरचना का हिस्सा है, वही पूर्वी भारत की लोधा एवं संथाल जनजातियों की संरचना में भी विद्यमान है। इसी प्रकार एम रेड्डी ने दक्षिण भारत की जनसंख्या में पाया कि जातीय एवं जनजातीय डीएनए में कोई खास फर्क नहीं है। फ्रेंच मानव विज्ञानी मिशेल बोईविन ने भी अपने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला कि जेनेटिक्स की दृष्टि से भारत की जातीय और जनजातीय जनसंख्या में कोई खास भिन्नता नहीं। ये सभी जेनेटिक शोध एवं राखीगढ़ी से प्राफ्त नमूनों पर हाल में हुए अनुसंधान अकाट्य रूप से सिद्ध करते हैं कि लगभग सभी भारतीय इस देश के मूल निवासी हैं। यहां तक कि अधिकांश मुस्लिम जनसंख्या, जिसे मदनी और ओवैसी जैसे लोग भड़काने का प्रयास करते हैं, का डीएनए भी समान है। इसी कारण कारण डा. भीमराव आंबेडकर ने संविधान में मूलनिवासी या आदिवासी की जगह शेड्यूल्ड ट्राइब्स शब्द का उपयोग किया।
चाहे ज्ञानवापी हो या मथुरा या फिर कश्मीर हो या बंगाल, असल समस्या यह नहीं कि भारत का मूल निवासी कौन है? आखिर शक, हूण, यवन, कुषाण और कंबोज भी तो बाहर से आए थे, परंतु वे इस देश की संस्कृति में पूरी तरह घुल मिल गए। यहूदी और पारसी समूहों ने गर्व से अपनी पूजा पद्धति बनाए रखी, परंतु भारतीय आस्थाओं का भी पूरा सम्मान किया। असल समस्या वह मजहबी उन्माद है, जिसमें अपने अस्तित्व की तलाश हिंदू संवेदनाओं का अपमान करने की जिद में समाहित है। एक तरफ तो मुस्लिम नेतृत्व हिंदू संगठनों पर गड़े मुर्दे उखाडऩे की बात करता है, परंतु दूसरी ओर वह औरंगजेब की क्रूरता की निशानियों को किसी हाल में छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, जब मौलाना सरफराज अहमद जैसे लोग बयान देते हैं कि ज्ञानवापी में यदि शिवलिंग होता तो उसे हम कभी का तोड़ देते तो यह आक्रांताओं की उस बर्बर, कट्टर मनोवृत्ति के आज भी जीवित होने की पुष्टि करता है, जो हिंदू-मुस्लिम संबंधों के खराब होने का मूल कारण है।
मुस्लिम ही नहीं, समाज हित में सोचने वाले कई हिंदू भी अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इतिहास की त्रासदियों को भूलकर सर्व समाज को भविष्य की तरफ देखना चाहिए, परंतु वह मानसिकता जिसमें मूर्ति भंजन आज भी दोहरा देने लायक सामान्य क्रिया हो या वह सोच जो औरंगजेब की मजार पर सजदे करवाए, यह दिखाता है कि गोरी, गजनी, खिलजी, तुगलक, बाबर और औरंगजेब के समय से चलती आ रही इस्लामी कट्टरता आज भी एक समूह में उसी प्रकार मौजूद है। टूटे हुए मंदिरों पर कब्जा बनाए रखने का हठ और औरंगजेब जैसे क्रूर पात्र का महिमामंडन दर्शाता है कि हिंदू आस्था पर आघात इतिहास की पुस्तक का बीता हुआ पन्ना नहीं, बल्कि वर्तमान तक चला आ रहा एक लंबा अध्याय है। मौलाना मदनी हों या ओवैसी, जब तक मुस्लिम नेतृत्व भारत भूमि को कब्जेदारों की दृष्टि से देखेगा और समुदाय के अपने गौरव की तलाश विदेशी आक्रांताओं में करेगा तब तक सांप्रदायिक वैमनस्य बना रहेगा। मुस्लिम नेतृत्व को चाहिए कि वह अंग्रेजों की तर्ज पर बहुसंख्यक हिंदुओं को बांटने की पैंतरेबाजी छोड़कर उनकी संवेदनाओं का सम्मान करते हुए अपने समाज का भारतीय राष्ट्रधारा में एकीकरण कराएं। इसी में देश की और मुस्लिम समाज की भलाई है।
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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