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मकसद क्या है
मनीषा पांडेय।
पूरी दुनिया में तो एंटी डिप्रेसेंट्स (डिप्रेशन में डॉक्टर के द्वारा दिया जाने वाला मेडिकल प्रिस्किप्शन या दवाइयां) का बाजार चिंताजनक ग्राफ को दो दशक पहले ही पार कर चुका है. अब धीरे-धीरे भारत में भी यह ग्राफ ऊपर की ओर कदम बढ़ाता दिख रहा है. मौजूदा समय में हमारे देश में 11 फीसदी लोग एंटी डिप्रेसेंट्स का सेवन कर रहे हैं. ये हाल उस देश का है, जहां की 70 फीसदी आबादी अभी भी डिप्रेशन, एंजायटी और मेंटल हेल्थ को बीमारी मानने के लिए भी तैयार नहीं है. जिस देश के एक बड़े समूह में अभी भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किसी तरह की चेतना नहीं है और मेंटल हेल्थ का दूसरा नाम अब भी पागलपन ही है.
यहां सिर्फ 30 फीसदी शहरी, मध्य और उच्चवर्गीय आबादी ऐसी है, जो मानसिक स्वास्थ्य की जरूरत को शारीरिक स्वास्थ्य की तरह ही महत्वपूर्ण मानते हैं. जिन्हें इस बात का बोध है कि जैसे शरीर के बीमारी पड़ने पर हम उसका इलाज करते हैं, डॉक्टर के पास जाते हैं और दवाइयां लेते हैं, वैसे ही मानसिक स्वास्थ्य को भी इलाज की जरूरत होती है. कई बार क्लिनिकल स्टेज में पहुंच जाने पर दवाइयों की मदद लेने की भी जरूरत होती है.
यह जागरूकता और मानसिक स्वास्थ्य की जरूरत को लेकर बढ़ रही चेतना एक सकारात्मक संकेत है. लेकिन इस सकरात्मकता के बीच जो चीज डराने वाली है, वो है एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों का बढ़ता हुआ बाजार. यह बाजार पिछले दो सालों में कोविड महामारी के दौरान और भी ज्यादा बढ़ा है क्योंकि लोगों में अवसाद, अकेलापन, आइसोलेशन और डिप्रेशन बढ़ा है.
अप्रैल, 2019 में भारत में एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों का बाजार 189.3 करोड़ का था. जून में यह संख्या घटकर 172.1 करोड़ हो गई, लेकिन अगले ही साल जून तक आते-आते एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों के बाजार में तेल उछाल आया और यह बढ़कर 196.9 करोड़ पर जा पहुंची. अक्तूबर तक आते-आते यह बाजार 210.7 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका था और अप्रैल, 2021 में तो इस रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई, जब यह बाजार 217.9 करोड़ का हो गया.
पिछले डेढ़ सालों में भारत में एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों की बिक्री और उनके सेवन में 20 फीसदी का इजाफा हुआ है. भारत के डेमोग्राफिक डीटेल्स (एक बड़ी आबादी का गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करना, अशिक्षा, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चेतना का न होना आदि) को देखते हुए 18 महीने की अवधि में 20 फीसदी का इजाफा चिंताजनक आंकड़ा है.
इसकी बड़ी जिम्मेदारी कोविड महामारी से जुड़ी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के साथ-साथ इस बात की भी है कि मेडिकल प्रोफेशन काउंसिलिंग और थैरपी से ज्यादा एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों के भरोसे मानसिक स्वास्थ्य को ठीक करने में ज्यादा यकीन रखता है.
अमेरिका जैसे देश में, जहां की 30 फीसदी आबादी आज एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों पर निर्भर है, ऐसी कई रिसर्च और स्टडीज हुई हैं, जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि एंटी डिप्रेसेंट के बढ़ते प्रिस्क्रिप्शन और सेवन के पीछे फार्मा कंपनियों का पूरा रैकेट काम कर रहा है. जैसे नोम चॉम्स्की ने कहा था कि युद्ध से किसे फायदा होता है. जो युद्ध का सामान बेचने का धंधा कर रहा हो. वैसे ही लोग ज्यादा से ज्यादा दवाइयों पर निर्भर हों, इसमें दवा कंपनियों के अलावा और किसी का फायदा नहीं है.
आज की तारीख में पूरी दुनिया में एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों का बाजार 27 बिलियन यूएस डॉलर का है यानी करीब 20 खरब रु. और इसमें सबसे बड़ा योगदान अमेरिका का है. इन दवाइयों का 83 फीसदी प्रोडक्शन अमेरिकी फार्मा कंपनियों के द्वारा किया जा रहा है. लोगों को अवसाद की दवाई खिलाकर अमेरिकी फार्मा कंपनियां खरबों डॉलर कमा रही हैं.
यहां एक और तथ्य को अलग से अंडरलाइन कर देना जरूरी है कि बहुत सारी एंटी डिप्रेसेंट दवाइयां एडिक्टिव होती हैं, जिस तथ्य से अमेरिकी फार्मा कंपनियां बहुत लंबे समय तक इनकार करती रही हैं. लेकिन अब ये एक प्रूवेन फैैक्ट है कि लंबे समय तक इन दवाइयों का सेवन करने पर हमारा सेंट्रल नर्वस सिस्टम उसका आदि हो जाता है. सेरेटोनिन और डोपामिन जैसे हैपी हॉर्मोन, जो सामान्यत: किसी भी सकारात्मक और खुशी देने वाली परिस्थिति में हमारे शरीर में सामान्यत: सिक्रेट होते हैं, एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों पर निर्भर व्यक्ति के शरीर में इन हॉर्मोन्स का बनना बंद हो जाता है. बिना दवाई की मदद के यह मुमकिन नहीं होता. इसलिए सामान्यत: सहज और सकारात्मक महसूस करने के लिए भी उन्हें दवाई खानी पड़ती है. न खाने की स्थिति में डिप्रेशन और बढ़ता जाता है.
एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों का निर्माण मेडिकल साइंस की जरूरी खोज थी, लेकिन जैसाकि डॉ. गाबोर माते कहते हैं कि एंटी डिप्रेसेंट दवाइयां खा रहे लोगों में 70 फीसदी ऐसे होते हैं, जिनके अवसाद को काउंसिलिंग और थैरपी के जरिए ही ठीक किया जा सकता है. एक डॉक्टर की कोशिश यह होनी चाहिए कि दवाई तब तक प्रिस्क्राइब न की जाए, जब तक कि वह बिलकुल ही अनिवार्य न हो. जो केस क्रॉनिक या क्लिनिकल नहीं हैं, उन्हें बिना दवाइयों के सिर्फ थैरपी के जरिए ही ठीक करने की कोशिश होनी चाहिए.
लेकिन जैसे रोते हुए बच्चे के साथ इंगेज करने, खेलने और उससे बातें करने के मुकाबले ज्यादा आसान होता है उसे मोबाइल पकड़ा देना या टीवी के सामने बैठा देना, उसी तरह डॉक्टरों के लिए भी दवाइयां थमा देना ज्यादा आसान विकल्प है. साथ ही दवाइयों की बिक्री को बढ़ाने के लिए फार्मा कंपनियों का एक पूरा नेटवर्क भी काम कर रहा होता है.
कुछ साल पहले ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की एक स्टडी कह रही थी कि हम इतिहास के अब तक के सबसे ज्यादा कनेक्टेड और साथ ही सबसे ज्यादा अकेलेपन का शिकार लोग हैं. डिप्रेशन और लोनलीनेस की स्थिति ये है कि 100 फीसदी आबादी को भी एंटी डिप्रेसेंट दवाइयां खिलाई जा सकती हैं और इससे उन्हें फायदा भी होगा. लेकिन क्या ये सही रास्ता है.
कोविड महामारी से पहले ब्रिटिश पार्लियामेंट ने अपने यहां लोनलीनेस मिनिस्टर की नियुक्ति की थी क्योंकि देश में बढ़ रहे अवसाद और अकेलेपन और सुसाइड का स्तर चिंताजनक स्थिति में पहुंच रहा था. कोई भी संवेदनशील सरकार इस बात से अनजान और निस्पृह कैसे रह सकती है कि उसके देश की बहुसंख्यक आबादी अवसाद की शिकार हो रही है.
डिप्रेशन और अकेलापन काल्पनिक समस्या नहीं है. यह उतना ही सच है, जितना दिन का उजाला. लेकिन उतनी ही सच ये बात भी है कि इस बढ़ते हुए अवसाद का इलाज एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों की बढ़ती हुई बिक्री नहीं है. लोगों को साथ और प्यार चाहिए, सुरक्षा चाहिए, जीवन की गारंटी चाहिए और जीवन जीने लायक बेहतर, सुरक्षित स्थितियां चाहिए.
ये सब सरकारों की जिम्मेदारी है. वो चाहें तो अलग से लोनलीनेस मिनिस्ट्री भी खोल सकते हैं. बस सनद रहे कि उस मिनिस्ट्री का काम तकलीफ को जड़ से मिटाना हो, अवसाद को दूर करना हो, न कि अवसाद के लिए एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों की बिक्री और फार्मा कंपनियों का मुनाफा बढ़ाना.
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