सम्पादकीय

जनतंत्र के हत्यारों के लिए सजा का क्या प्रावधान है मीलॉर्ड?

Gulabi
17 Aug 2021 5:37 AM GMT
जनतंत्र के हत्यारों के लिए सजा का क्या प्रावधान है मीलॉर्ड?
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भारत के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) एन.वी. रमना (N V Ramana) ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक महत्वपूर्ण बात कही है

अजय झा .

भारत के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) एन.वी. रमना (N V Ramana) ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक महत्वपूर्ण बात कही है. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जस्टिस रमना ने संसद में बिना डिबेट के किसी कानून को मंजूरी देने की प्रवृत्ति पर दुख जताते हुए कहा कि डिबेट नहीं होने के कारण भारत के नए कानूनों में कुछ गलतियां आ रही हैं. किसी नए प्रस्तावित कानून का बिल सरकार द्वारा बनाया जाता है. संसद से बिल पारित होने के बाद राष्ट्रपति द्वारा उस बिल का अनुमोदन और हस्ताक्षर होने के बाद ही वह देश का कानून बनता है. संसद में किसी बिल पर बहस का प्रावधान है, जिसमें विपक्ष उस कानून की कमियों पर प्रकाश डालता है और उसमे संशोधन की मांग करता है. अगर विपक्ष की चिंता वाजिब होती है तो बिल में संशोधन कर के पास किया जाता है. पर धीरे-धीरे पिछले कई वर्षों से इस प्रथा का अंत होता जा रहा है, जो अत्यंत दुखद है.


जस्टिस रमना ने इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट का उदाहरण देते हुए कहा कि इस बिल पर संसद में तमिलनाडु के सीपीएम सांसद राममूर्ति ने विस्तार में बताया था कि इसके पास होने से कारखानों में काम करने वाले लोगों को किन परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. जस्टिस रमना के अनुसार संसद में बहस जिसमें हरेक पक्ष को सामने रखा जाता है के बाद सुप्रीम कोर्ट को, अगर उस कानून को चुनौती दी जाती है तो, समझने में आसानी होती है. क्योंकि बहस से पता चल पाता है कि कानून बनाने वालों की इसके पीछे सोच क्या थी?
बिना बहस के बन जाते हैं कानून
जब बात प्रजातंत्र की आती है तो सभी भारतीयों को यह कहने में गर्व मससूस होता है कि हम विश्व के सबसे बड़े दो प्रजातंत्रों में से एक हैं. पर सोचने वाली बात है कि क्या हम प्रजातंत्र के प्रहरी भी हैं? दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब संसद में बहस कम और हंगामा ज्यादा होता है. एक टेम्पलेट सा बन गया है कि संसद के सत्रारंभ के ठीक पहले मीडिया में कुछ ऐसी खबर आती है जिसपर हंगामा हो जाता है. और उसके बाद जब तक सत्र चलता है सिर्फ हंगामा और उस दिन की बैठक स्थगित होती जाती है.
यह तकरार चलता ही रहता है. विपक्ष की मांग होती है कि पहले उसी विषय पर चर्चा हो और सरकारी पक्ष पहले से बने शेड्यूल को फॉलो करने पर जोर देती है. परिणाम होता है कि पूरा सत्र यूं ही हंगामे के बीच निकल जाता है और आखिरी दिन हंगामे के बीच कई बिल बिना बहस के आनन-फानन में पास कर दिये जाते है. बहुत ही कम बिलों पर राष्ट्रपति हस्ताक्षर करने से मना करते हैं, लिहाजा बिना बहस के देश का कानून बन जाता है.


मीडिया को समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी
अंग्रेजी में सांसदों को लॉ मेकर यानि कानून निर्माता कहा जाता है. जनहित में कानून बनाना और उसमें लगातार सुधार करना जरूरी होता है. बदलते परिवेश के पुराने कानून असंगत लगने लगते हैं. संसद को ठप्प करने की टेम्पलेट काफी समय से चला आ रहा है. माना कि मीडिया को भी ख़बरों में रहने का अधिकार है, पर क्या मीडिया द्वारा किसी स्कैम का खुलासा संसद के सत्र के ठीक पहले, यह जानते हुए कि इसका परिणाम क्या होगा, सही है? मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. पर शायद मीडिया की भी एक जिम्मेदारी है ताकि संसद हंगामे की बलि ना चढ़ जाए. मीडिया को ही इस पर फैसला लेना होगा कि क्या ख़बरों में आने के लिए यह जरूरी है, क्या किसी स्कैम का खुलासा करने का कोई और सही समय नहीं हो सकता है?

संसद में विरोध का स्तर और तरीका दोनों बदल गया है
हम जिस टेम्पलेट की बात कर रहे हैं वह यहा नहीं है. आज जो सत्ता के हैं वह भी कभी विपक्ष में होते थे, और आज जो विपक्ष में हैं वह भी कभी सत्ता में होते थे और हो सकते हैं. यही तो प्रजातंत्र की विशेषता है. जब बीजेपी सत्ता में नहीं होती थी तब भी संसद में गतिरोध देखा जाता था, पर विरोध करने का तरीका अब बदलता जा रहा है. अपनी जगह पर खड़े हो कर या जिसे वेल ऑफ दी हाउस कहते हैं वहां खड़ा होकर अब विरोध नहीं किया जाता है. अब संसद सभापति के ठीक सामने जहां सेक्रेटरी जनरल और अन्य कर्मचारियों का टेबल होता है उसपर चढ़ कर हंगामा करते हैं, अगर कोई मंत्री बोल रहा होता है तो उसके हाथ से कागज़ छीन लिया जाता है, उन्हें बोलने नहीं दिया जाता. एक समय में नाखुश विपक्ष वाकआउट करता था, पर संसद की कार्यवाही चलती रहती थी और जब किसी बिल या किसी खास मुद्दे पर चर्चा होती थी तो वह वापस आ जाते थे. पर अब वाकआउट करने की प्रथा ख़त्म हो गयी है. अब विपक्ष यह फैसला करना चाहता है कि संसद की कर्यवाही कैसे चले और किन मुद्दों पर बहस हो. अगर उनकी बात नहीं मानी गयी तो फिर संसद नहीं चलने दिया जाता है.

जब संसद में बहस ही नहीं होगी तो बहस का स्तर भी गिरेगा ही. सांसदों को पता होता है कि जब बहस होनी ही नहीं है तो किसी विषय पर बोलने के लिए रात भर जग कर होमवर्क करना व्यर्थ है. इस बीच अगर बहस हो भी गयी तो बिना तथ्यों के सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप लगता रहता है. एक ज़माने में संसद में ओजस्वी वक्ताओं की भरमार होती थी. चाहे वह सरकार के पक्ष में हो या विपक्ष में, सांसद और मीडिया उन्हें सुनने की प्रतीक्षा करते थे. उनके भाषणों से नए दृष्टिकोण का पता चलता था और दूसरे सांसदों को सीखने का अवसर मिलता था, कि किस तरह किसी मुद्दे के पक्ष या विपक्ष में कुछ बोला जाता है. यह प्रतिभा सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, जॉर्ज फ़र्नान्डिस, नारायण दत्त तिवारी, इन्द्रजीत गुप्ता, सोमनाथ चटर्जी, सुषमा स्वराज तक ही सीमित नहीं होती थी, सभी दलों में एक ना एक ऐसा वक्ता होता ही था जिसे सुन कर कोई भी सोचने पर मजबूर हो जाता था कि जो वह बोल रहे हैं शायद वही उस मुद्दे का सही पक्ष है.

अगर संसद जनतंत्र का मंदिर होता है तो सांसद उस के पूजारी होते हैं. पर अब संसद-रूपी मंदिर के पुजारी विधिवत पूजा करने में विश्वास नहीं रखते, क्योंकि पूजा करने की विधि और मंत्र उन्हें सिखाया ही नहीं जाता. अगर इस प्रथा में जल्द ही सुधार नहीं हुआ तो वह समय दूर नहीं है जब कि टिकट देते समय हरेक दल यह भी देखना शुरू कर देगा कि टिकट का दावेदार शारीरिक रूप से कितना स्वस्थ्य है और वह कितनी जोर से चिल्लाने में सक्षम है.

विपक्ष को विरोध करने का तरीका बदलना होगा
अक्सर यह सुझाव भी सामने आता है कि जब सांसद अपना काम ही नहीं करते तो उनके वेतन और भत्ते में कटौती होनी चाहिए. उन्हें प्रति महीने लाखों रूपये सिर्फ चीखने चिल्लाने और संसद में हंगामा करने के लिए ही दिया जाना जायज है? समय आ गया है कि सभी दल मिल बैठ कर तय करें कि किसी भी विरोध या प्रदर्शन की क्या रूपरेखा होनी चाहिए और क्या यह एक बार फिर से पूर्व की तरह सांकेतिक नहीं हो सकता? क्या एक या दो दिन संसद ठप्प कर के उनकी बात जनता तक नहीं पहुंच सकती, ताकि बाकी के समय में संसद संविधान के नियमों के तहत अपना काम-काज सुचारू रूप से कर सके.

जस्टिस रमना ने सिर्फ अपनी या न्यायपालिका की टीस सामने नहीं रखी है, यह टीस उन सभी के अन्दर होनी चाहिए जो प्रजातंत्र में विश्वास रखते हैं. विपक्ष को यह समझना पड़ेगा कि सिर्फ वह ही प्रजातंत्र के हितैषी नहीं हैं. जनतंत्र का चोगा ओढ़ कर जनतंत्र का अपहरण और हत्या करना देश में जनतंत्र की नींव कमजोर करने की इजाजत कुछ मुट्ठी भर लोगों को ना है और ना ही होनी चाहिए.
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