सम्पादकीय

पूर्वांचल में कम मतदान होने का मतलब क्या है, कहीं ब्राह्मण वर्ग भाजपा से नाराज तो नहीं?

Gulabi
9 March 2022 8:25 AM GMT
पूर्वांचल में कम मतदान होने का मतलब क्या है, कहीं ब्राह्मण वर्ग भाजपा से नाराज तो नहीं?
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पूर्वांचल में कम मतदान होने का मतलब क्या है
संजय कुमार का कॉलम:
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए आखिरी चरण का मतदान भी पूरा हो चुका है। उम्मीदवारों का भाग्य वोटिंग मशीनों में कैद हो चुका है। मतदाताओं ने निर्णय सुना दिया है और अब देश फैसला जानना चाहता है। लेकिन मतगणना से पूर्व भी- विशेषकर उत्तरप्रदेश के संदर्भ में- अनेक प्रश्न उभरकर सामने आए हैं। उत्तरप्रदेश में सात चरणों में मतदान हुआ था।
इन सात चरणों में टर्नआउट (वोटिंग के लिए आने वाले मतदाताओं की संख्या) के आंकड़ों को कैसे पढ़ें? पांचों ही राज्यों में 2017 में हुए पिछले चुनावों की तुलना में कम संख्या में वोटरों का वोट डालने आना क्या बतलाता है? यह सवाल भी पूछा जाएगा कि इन चुनावों में अहम मुद्दा क्या था और उत्तरप्रदेश में सफल होने की कुंजी क्या है? अतीत के चुनाव परिणाम बताते हैं कि टर्नआउट और नतीजों के बीच सीधा सम्बंध नहीं होता।
इसके बावजूद टर्नआउट के आंकड़ों का विश्लेषण करना टेढ़ी खीर है। पांचों विधानसभा चुनावों में एक बात समान थी- इन सभी में पिछले चुनावों की तुलना में कम वोट पड़े। पंजाब में मतदान-प्रतिशत 71.9 था, जो विगत चुनाव की तुलना में पांच प्रतिशत कम है। गोवा में अमूमन लोग बड़ी संख्या में वोट डालने आते हैं, लेकिन इस बार भी यह आंकड़ा पिछली बार की तुलना में तीन प्रतिशत कम रहा।
गोवा में 2017 में 82.5 प्रतिशत वोट पड़े थे। उत्तराखंड में ज्यादा अंतर नहीं आया, पिछले चुनाव में वहां का मतदान-प्रतिशत 65.5 था तो इस बार 65.3 रहा। मणिपुर में भी पिछले चुनाव की तुलना में ज्यादा अंतर नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में शुरुआती चरणों में वोटिंग का प्रतिशत अच्छा रहा, लेकिन बाद के तीन चरणों में यह तेजी से घट गया। अलबत्ता पांचवें और छठे चरण में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा रही।
सामान्य समझ तो यही कहती है कि समय के साथ चुनावों में मतदाताओं की सहभागिता बढ़नी चाहिए, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां ज्यादा से ज्यादा वोटरों को एकत्र करने पर जोर दे रही हैं। लेकिन टर्नआउट के आंकड़े बताते हैं कि इस बार चुनावों में मतदाताओं का उत्साह कम दिखलाई दिया। यह चुनाव आयोग के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, जिसने वोटरों में चुनाव को लेकर जागरूकता जगाने के लिए अनेक कार्यक्रम संचालित किए हैं।
इन कार्यक्रमों का इकलौता मकसद यही था कि मतदाता ज्यादा से ज्यादा संख्या में निर्वाचन-प्रक्रिया में सहभागिता करें। राजनीतिक दलों के लिए भी यह आत्मचिंतन का क्षण है। उन्हें सोचना होगा कि वोटरों को जुटाने की तमाम कोशिशों के बावजूद कमी कहां पर रह गई। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन सभी राज्यों में बीते एक दशक में पिछले चुनावों की तुलना में मतदान-प्रतिशत ज्यादा दर्ज किया गया था।
यूपी में पहले और दूसरे चरण की तुलना में पांचवें और छठे चरण के मतदान में बहुत कम वोटर वोट डालने आए। पहले और दूसरे चरण में जहां मतदान-प्रतिशत 62 और 64 था, वहीं यह पांचवें और छठे चरण में घटकर 58 और 56 प्रतिशत हो गया। राजभर, अनुप्रिया पटेल, संजय निषाद, स्वामीप्रसाद मौर्य जैसे लोकप्रिय क्षेत्रीय नेताओं की उपस्थिति के बावजूद छठे चरण में इतने कम मतदाताओं का वोट डालने आना सवाल उठाता है कि क्या ये नेता अपने कोर-वोटर्स के अलावा दूसरे वोटरों को एकत्र करने में नाकाम रहे।
अलग-अलग चरणों में अलग-अलग मतदान-प्रतिशत यह सवाल भी पैदा करता है कि क्या एक माह लम्बी वोटिंग के कारण मतदाताओं में थकान आ गई थी और पूर्वांचल के वोटरों में चुनाव को लेकर वैसा उत्साह नहीं रह गया था जैसा शेष यूपी के वोटरों में था? टर्नआउट के आंकड़े हमें दिखाते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तुलना में पूर्वी उत्तर प्रदेश के वोटरों में उत्साह कम था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सामाजिक स्थिति और जनसांख्यिकी को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां के वोटरों में परिवर्तन की चाह ज्यादा थी।
पहले और दूसरे चरण में जाट और मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अच्छी थी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि किसानों में जाट समुदाय की संख्या बहुत है और किसान भाजपा से नाराज चल रहे हैं। दिल्ली बॉर्डर पर एक साल तक चले किसान आंदोलन में उन्हें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उसके लिए उन्होंने भाजपा को माफ नहीं किया है। तो क्या आरम्भिक चरणों के ज्यादा मतदान-प्रतिशत का कारण यह था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बड़ी संख्या में वोट देने उमड़े थे?
परम्परागत रूप से मुसलमानों ने कभी भाजपा का समर्थन नहीं किया है और वो नहीं चाहेंगे कि योगी सरकार फिर से बने। क्या दूसरे चरण के अधिक मतदान-प्रतिशत का कारण इसमें मुस्लिमों की सहभागिता थी, जिनका योगदान इस चरण में पड़े कुल वोटों में से 38 प्रतिशत था? और क्या ओबीसी मतदाताओं का भी भाजपा से मोहभंग हुआ है, जिनकी पूर्वी यूपी में बड़ी संख्या है? कहीं पूर्वांचल में कम संख्या में मतदाताओं का आना यह तो नहीं बताता कि ब्राह्मण भाजपा से नाराज हैं?
इन तमाम बिंदुओं पर अटकलें ही लगाई जा सकती हैं और प्रश्न पूछे जा सकते हैं। जवाब 10 मार्च को ही मिलेंगे। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वोटरों के मन में यह भावना घर करती जा रही है कि 'वोट देने से हमें क्या मिलेगा, हमारी स्थिति तो जैसे हैं वैसी ही रहेगी?' मतदाताओं में चुनावी-प्रक्रिया के प्रति फिर से आस्था जगाने के लिए राजनीतिक दलों को और मेहनत करने की जरूरत है।
बाद के चरणों में घट गए वोटर
यूपी में पहले और दूसरे चरण की तुलना में पांचवें और छठे चरण के मतदान में बहुत कम वोटर वोट डालने आए। पहले और दूसरे चरण में जहां मतदान-प्रतिशत 62 और 64 था, वहीं यह पांचवें और छठे चरण में घटकर 58 और 56 प्रतिशत हो गया। लोकप्रिय क्षेत्रीय नेताओं की उपस्थिति के बावजूद छठे चरण में इतने कम मतदाताओं का वोट डालने आना अनेक सवाल उठाता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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