सम्पादकीय

क्रिकेट में कोच का क्या काम!

Gulabi
28 Jan 2022 8:47 AM GMT
क्रिकेट में कोच का क्या काम!
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चैपल 2005 से 2007 के बीच क़रीब 2 साल तक भारतीय टीम के कोच रहे थे
क्या क्रिकेट में कोच की कोई भूमिका है? है भी तो किस स्तर तक? अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कोच की भूमिका पर कई बार सवाल उठते रहे हैं. बहस होती रही हैं. कहा गया कि अनिल कुंबले के ख़िलाफ़ बग़ावत के पीछे एक बड़ा कारण रहा कि वे खिलाड़ियों को उनकी तकनीक पर बहुत ज़्यादा सलाह देते थे या यूं कहिए हस्तक्षेप करते थे. भारत और दक्षिण अफ़्रीका सीरीज़ के दौरान भी दबी-दबी सी ख़बर आयी थी कि मौजूदा कोच राहुल द्रविड़ भी कॉपी-बुक तकनीक पर ज़ोर दे रहे हैं. शायद इसलिए भी क्योंकि द्रविड़ ख़ुद परफेक्शनिस्ट बल्लेबाज़ रहे हैं. अब ऑस्ट्रेलिया के पूर्व दिग्गज़ खिलाड़ी और भारतीय टीम के पूर्व विवादास्पद कोच ग्रेग चैपल ने कोच की भूमिका को दख़लंदाज़ी करार दिया है. चैपल तो बच्चों को भी कोचिंग देने के पक्ष में नहीं हैं.
तो क्या क्रिकेट में कोच का काम नहीं? क्या सचमुच काम बिगाड़ रहे हैं कोच? क्या दख़लंदाज़ी करते हैं कोच?
चैपल 2005 से 2007 के बीच क़रीब 2 साल तक भारतीय टीम के कोच रहे थे. उनका कार्यकाल काफ़ी विवादित रहा था. मज़े की बात है कि चैपल ख़ुद जब कोच थे तो भारतीय टीम में ख़ूब दख़लंदाज़ी की थी. ख़ैर अब चैपल ने पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को सबसे तेज़ दिमाग वाला क्रिकेटर बताया है. उनके निर्णय लेने की क्षमता उन्हें बाक़ी क्रिकेटर से अलग करता है.
चैपल का मानना है कि धोनी ने स्वाभाविक खेल खेला. इसलिए कामयाब रहे. उनके कोच ने उनकी तकनीक बदलने की कोशिश नहीं की. चैपल कहते हैं, "क्रिकेट के विकसित देशों में स्वाभाविक माहौल ख़त्म हो रहा है. स्वाभाविक माहौल के कारण ही इन देशों में खेल इतना विकसित हुआ. युवा क्रिकेटर अच्छे खिलाड़ियों को देखकर उनसे सीखते थे और फिर उनकी तरह खेलने की कोशिश करते थे. उन्हें थोड़ी-बहुत ही सलाह मिलती थी. उनके स्वाभाविक खेल में बड़ों का कोई दखल नहीं होता था. अव्यवस्थित सेटिंग्स में खिलाड़ी अपना स्वाभाविक शैली विकसित करते थे.
मेरे ख़्याल से ग्रेग चैपल की बातों में दम है. धोनी के अलावा वीरेंद्र सहवाग भी स्वाभाविक खेल नहीं खेलते तो शायद इतने कामयाब नहीं होते.
पूर्व ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर और कोच ग्रेग चैपल ने कहा, "भारतीय उपमहाद्वीप में अब भी कई शहर और कस्बे हैं जहां कोचिंग की व्यवस्था नहीं है. गली और ख़ाली मैदान में बिना किसी औपचारिक कोचिंग के दखल के युवा खेलते हैं. मौजूदा दौर के कई स्टार खिलाड़ियों ने इसी माहौल में क्रिकेट सीखा है."
धोनी अगर क्रिकेट की किताब से हुनर सीखते तो शायद हम हेलीकॉप्टर जैसे शॉट्स नहीं देख पाते. ठीक इसी तरह जसप्रीत बुमराह के कोच ने उनका एक्शन ठीक करने की कोशिश की होती तो बुमराह, बुमराह नहीं होते. चैपल कहते हैं...
"एमएस धोनी, जिनके साथ मैंने भारत में काम किया, वो बेहतरीन उदाहरण हैं. इस तरह के माहौल में क्रिकेट सीखे और अपने अंदाज़ से खेले."
पूर्व भारतीय बल्लेबाज़ माल्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर भी कमोवेश इसी तरह की राय रखते हैं. कुछ साल पहले उन्होने पृथ्वी शॉ को सलाह दी थी कि कोच चाहे कुछ भी बोलें उन्हें अपना ग्रिप या स्टांस नहीं बदलना चाहिए. अगर कोई बदलाव के लिए कहता है तो कोच को उनके पास भेज देना. कोचिंग ठीक है लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा कोचिंग और बदलाव सही नहीं.
"इस तरह के स्पेशल खिलाड़ी में कुछ भी बदलाव नहीं करना चाहिए. ऐसे खिलाड़ी भगवान के भेजे उपहार होते हैं. कंप्लीट पैकेज़."
ऑस्ट्रेलिया के जॉन बुकानन सबसे सफल क्रिकेट कोच में से हैं. उनके कार्यकाल में ऑस्ट्रेलिया 1999 से 2007 के बीच 3 बार वर्ल्ड चैंपियन बना. लेकिन कोच बुकानन को आज भी कोई बहुत ज़्यादा श्रेय नहीं देता. कहा जाता है कि टीम उस दौर में बेहतरीन फ़ॉर्म में थी. टीम में एक से एक दिग्गज़ खिलाड़ी थे. 2011 में भारतीय टीम दूसरी बार वर्ल्ड चैंपियन बनी थी. कोच गैरी कर्सटन थे. कर्सटन या रवि शास्त्री कामयाब इसलिए भी रहे क्योंकि उन्होने खिलाड़ियों को ज़्यादा सलाह देने की कोशिश नहीं की. ख़ासकर रवि शास्त्री कोच कम मैनेजर ज़्यादा थे. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाकर आप किसी खिलाड़ी के तकनीक में बड़ा बदलाव नहीं कर सकते. उन्हें उनके स्वाभाविक खेल में आ रही ग़लतियों के बारे में बतला सकते हैं. टीम इंडिया को कोच नहीं एक मैनेजर की जरूरत है. ग्रेग चैपल तो बचपन से ही कोचिंग को सही नहीं मान रहे. वे स्वाभाविकता और विशिष्टता यानी Uniqueness की बात कर रहे हैं. उनकी बातों में दम तो है.
संजय किशोर NDTV इंडिया के खेल डेस्क पर डिप्टी एडिटर हैं...
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