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सम्पादकीय
क्या है प्रकृति और जैविकी की अन्योन्याश्रित सैद्धांतिकी, पृथ्वी दिवस के अवसर पर इसे जरूर जानना चाहिए
Gulabi Jagat
21 April 2022 2:12 PM GMT

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पृथ्वी दिवस के अवसर पर इसे जरूर जानना चाहिए
आचार्य राघवेंद्र प्रसाद तिवारी। मानव समाज के साथ-साथ संपूर्ण चेतन और अचेतन जगत जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापन से पैदा समस्याओं के बीच अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। भविष्य में इन समस्याओं की गहनता बढऩे की आशंकाएं हैं। जलवायु संबंधी चरम घटनाएं जैसे तापमान एवं समुद्री जल स्तर में वृद्धि, मरुस्थलों का बढ़ता दायरा, हिमनदों का पिघलना, बेमौसम वर्षा, आंधी-तूफान, चक्रवात, बाढ़ और सूखा के साथ ही जल, वायु और मिट्टी का गंभीर स्तर तक प्रदूषण आदि वसुधा के स्वास्थ्य को कैंसर की तरह निगल रहे हैं। इनकी मूल वजह प्रकृति विरोधी कृषि को प्रोत्साहन और नगरीकरण व उद्योगीकरण जनित लाभों को ही विकास का मापदंड मानना है।
आज मानव समाज अपने मूल स्वभाव 'लेस इज मोरÓ को त्याग कर 'मोर इज लेसÓ की मनोभावना से ग्रसित हो गया है। मानव समाज की चिंतन प्रक्रिया से 'वसुधैव कुटुंबकमÓ, 'सर्वे भवंतु सुखिन:Ó और विकास के प्रकृति केंद्रित अन्य भारतीय आदर्श लुप्त होते जा रहे हैं। वर्तमान समाज की सुख-सुविधाओं एवं आवश्यकताओं का दायरा असीमित होता जा रहा है। इस विकृत मानसिकता की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का 'शोषण के स्तर तक दोहनÓ हमारे जीवन का उद्देश्य बनता जा रहा है।
पर्यावरण की सुरक्षा की उपेक्षा और दैनिक जीवन में इसके साथ संबंध 'स्थापितÓ करने के इतर 'तोडऩेÓ की प्रवृत्ति पनप रही है, जहां पर्यावरणीय पारिस्थितिकी को ताक पर रखकर मनुष्य अत्यधिक आराम की जीवनशैली को अपनाने के लिए प्रकृति विरोधी अनेक संसाधनों को विकसित कर रहा है। आइपीसीसी यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज की वर्ष 2022 की रिपोर्ट में उल्लिखित है कि पुरा-औद्योगिक काल की तुलना में यदि वैश्विक तापन 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा तो इसके दुष्प्रभाव अपरिवर्तनीय होंगे।
सतही एवं भूमिगत जल, नदियों के उद्गम स्थलों एवं मार्गों, हिमनदों, समुद्रतटों और पर्वतों की पारिस्थितिकी पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। इन पारिस्थितिकी क्षेत्रों की वनस्पति एवं जैव विविधता से लेकर मानव जीवन भी इसके दंश का शिकार होंगे। इस रिपोर्ट में यह भी उल्लिखित है कि 3.5 अरब जनसंख्या, जो दुनिया की कुल जनसंख्या का 45 प्रतिशत है, किसी न किसी पर्यावरणीय संकट से घिरी हुई है। इसके साथ ही वर्ष 2050 तक भारत की साढ़े तीन करोड़ से अधिक जनसंख्या को तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का सामना करना पड़ेगा एवं समुद्री जल स्तर में वृद्धि के कारण मुंबई को 162 अरब डालर का नुकसान हो सकता है। साथ ही देश की 40 प्रतिशत आबादी को गुणवत्तापूर्ण जल की उपलब्धता की समस्या से जूझना पड़ सकता है।
भारत सहित विश्व के अन्य राष्ट्रों को इन समस्याओं से निदान हेतु त्वरित उपाय करने होंगे। इसकी शुरुआत भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन मूल्यों के शरण में पुन: जाने से होगी। भारतीय संस्कृति पृथ्वी को समस्त जैविक और अजैविक घटकों का 'हाउसÓ नहीं, अपितु 'होमÓ के रूप में स्थापित करती है। 'होमÓ मानने की यह परिकल्पना केवल बौद्धिक और वैज्ञानिक दायरे तक सीमित नहीं है, अपितु 'होमÓ के सभी सदस्यों की तरह पृथ्वी मां के समस्त घटकों में सहजीवन एवं सहअस्तित्व के संबंधों को स्थापित करने का पाथेय है। यही पाथेय हमारे शाश्वत जीवन एवं उसके निर्वहन हेतु सतत विकास यात्रा का मूल मंत्र है। इन पाथेयों की उपेक्षा हमें प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए विवश करती है और पर्यावरण में अनपेक्षित बदलाव कर मानव सभ्यता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
प्रकृति के साथ मानव समाज की घनिष्ठता कितनी संवेग, संज्ञान और आध्यात्मिकता से जुड़ी हुई है, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि तथाकथित आधुनिक जीवन व्यतीत करते हुए भी हम शांति की खोज में पृथ्वी मां की ऐसी गोद को तलाशते हैं, जो प्रकृति के मूल तत्वों से संपन्न हो, और जहां मानव-जनित प्रदूषण न्यूनतम हो एवं प्रकृति अपने अक्षत रूप में हो। हालांकि यह भी एक समस्या है कि इसे भी मनुष्य ने उद्योग का रूप दे दिया है। ऐसे ही हमारी लोक परंपराओं, संस्कारों, रीति-रिवाजों एवं विभिन्न क्षेत्रों व समुदायों की दैनिक चर्या में प्रकृति संरक्षण हेतु प्रचुर मात्रा में निहित अतुलनीय उपाय हैं। हमारे लोक-पर्वों में भी इनका जीवंत रूप देखा जा सकता है। भारतीय सभ्यता में पृथ्वी के सभी घटक मात्र संसाधन ही नहीं, अपितु प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के बीच सामंजस्य की मजबूत कड़ी हैं।
इस कड़ी को सुदृढ़ करने के लिए भारत सरकार द्वारा अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। कार्बन उत्सर्जन को कम करना हो या वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को खोजना, विकास के वैकल्पिक प्रयोगों को आगे बढ़ाना हो या सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण के अन्य मामलों को प्राथमिकता में शामिल करना, इन सभी संदर्भों और प्रकरणों में भारत अपनी सार्थक एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
स्वच्छ भारत मिशन और नमामि गंगे योजना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अंतरराष्ट्रीय मंच से पंचमित्र योजना की घोषणा की। इसमें वर्ष 2030 तक गैर जीवाश्म ईंधन की क्षमता को 500 गीगावाट करना, कुल ऊर्जा की आवश्यकताओं का 50 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पूरा करना, कार्बन उत्सर्जन को एक अरब टन कम करने के साथ ही अर्थव्यवस्था में कार्बन की सघनता को 45 प्रतिशत तक कम करना शामिल है।
इन तमाम प्रयासों के उपरांत अंतत: वर्ष 2070 तक भारत शून्य उत्सर्जन वाले देशों में सम्मिलित हो सकेगा। इस योजना की संपूर्ण विश्व में सराहना की गई है। आज हम सभी को मिलकर यह संकल्प लेना होगा कि हम इन उद्देश्यों और भारतीय संस्कृति में निहित प्रकृति एवं जैविकी की अन्योन्याश्रिता की सैद्धांतिकी को जीवन का ध्येय मानकर पृथ्वी के सभी घटकों को सर्वथा स्वस्थ रखें, ताकि उसकी गोद में मानव सभ्यता युगांत तक फलती-फूलती रहे। पृथ्वी दिवस मनाना तभी सार्थक होगा।
(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)
( कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय)
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