सम्पादकीय

लालू, नीतीश, मोदी में फर्क क्या?

Gulabi
31 Oct 2020 4:08 PM GMT
लालू, नीतीश, मोदी में फर्क क्या?
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बहुत गजब बात है लेकिन भारत राष्ट्र-राज्य का यथार्थ समझना है तो सोचें!

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बहुत गजब बात है लेकिन भारत राष्ट्र-राज्य का यथार्थ समझना है तो सोचें! हम हिंदुओं के भगवानजी ने कैसे-कैसे को क्या-क्या अवसर दिया और बदले में भारत माता को क्या प्राप्त हुआ? तीनों पंद्रह-पंद्रह साल मुख्यमंत्री! तीनों वोट राजनीति केधुरंधर। जात-पात पर लोगों को बहकाने के जादूगर। तीनों ओबीसी और तीनों अपनी-अपनी शैली के खांटी भाषणबाज। तीनों व्यक्तिवादी व अहंकारी। तीनों इस गुमान में मानो वे सर्वज्ञ। न मंत्रियों का मतलब और न बुद्धि-ज्ञान-सत्य-विचार-बहस का मतलब। तीनों एकाधिकारी प्रवृत्ति के व अपनो को रेवड़ियां बांटते हुए, क्रोनीवादी, सत्ता को निरंकुशता से भोगते हुए। न विपक्ष को बरदाश्त करना और न उसका मान-सम्मान। वोट के लिए वह हरसंभव झूठ बोलेंगे, जिसमें लोग स्वर्ग उतरा देखें। कोई बुलेट ट्रेन, बुलेट विकास कराता हुआ तो कोई हेमामालिनी के गाल की तरह सड़कें बनाता हुआ तो कोई सुशासन का युगपुरूष!

कितनी समानताएं है तीनों में! तब तीनों के राज की उपलब्धियांभला क्यों न समान हों? हां, तभी महामारी के मौजूदा काल में बिहार और गुजरात के सरकारी अस्पतालों में क्या फर्क दिखा?उलटे गुजरात में महामारी में लोगों का अनकहा भयावह अनुभव है, और कामंधधों की बरबादी-बेरोजगारी के जो किस्से हैं वे बिहार से अधिक त्रासद हैं। तभी लालू, नीतीश और नरेंद्र मोदी के बिहार व गुजरात में कहां वह फर्क है, जो होना चाहिए। सबसे बड़ी बात कि पिछले छह सालों में नरेंद्र मोदी के राज में जो हुआ है वह क्या भारत को बिहार में बदलने वाला नहीं है? एक दफा लालू यादव के हवाले मजाक चला था कि यदि वे जापान के प्रधानमंत्री बने तो पांच साल में जापान को बिहार बना डालेंगे। सोचें यदि लालू प्रसाद यादव भारत के प्रधानमंत्री बनते तो क्या होता? वे कम लोकप्रिय नहीं होते। पूरा देश उनके नारों में सामाजिक न्याय, पिछड़ों के आगे बढ़ने से आनंदित होता। पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के साझे में भारत दुनिया के लिए धर्मनिरपेक्षता की मिसाल बना होता तो पाकिस्तान, सऊदी अरब आदि दुनिया के असंख्य देशों में लालू यादव पूजे जाते। वे भी डोनाल्ड ट्रंप के गले लगतेऔर उनके खास दोस्त कहलाते। जयशंकर जैसा कोई अफसर उनके लिए अंग्रेजी बोलता हुआ, कूटनीति करता हुआ होता और वे शी जिनफिंग को व इमरान खान को पटना के गंगा घाट पर झूले झुलाते हुए मिलते।

हां, लालू यादव विदेश नीति की नौटंकियों में, विदेशियों के बीच में लोकप्रियता में भारत के हिंदुओं को निश्चित ही ज्यादा भरोसा दिलाए हुए होते। वे लोगों का ज्यादा मनोरंजन कर रहे होते। हमारे लालूजी भारतमाता को विश्व बंधुत्व का ऐसा गौरव दिलाए हुए होते जो महीने-दो महीने में एक-दो बाद इस्लामाबाद जा कर इमरान खान या नवाज शरीफ के यहां भी पकौड़े खा रहे होते तो नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश में उनकी लिट्टी-चोखा कूटनीति के सब मुरीद हुए पड़े होते। सो लालू यादव की सर्वज्ञता में पंद्रह साल में जैसे बिहार बना वैसे भारत बनता। इसलिए विचार करें कि यदि नीतीश कुमार पंद्रह साल के बाद भारत के प्रधानमंत्री बनने का मौका पाएं तो भारत का क्या बनेगा वहीं जो उनकी कमान में बिहार का बना है।

इस सबका क्या अर्थ है? भारत का मॉडल कोई भी हो, बिहार, गुजरात, तमिलनाड़ु, ओड़िशा सभी का योग वह भारत है, जिसमें दिल्ली की सत्ता में वोट की राजनीति का कोई भी धुरंधर बैठे नतीजा वहीं होगा जो लालू यादव, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी का योगदान है। इन तीनों में नरेंद्र मोदी ज्यादा सयाने थे तो गुजरात मॉडल की हवा बना, हिंदुओं को बहलाकरप्रधानमंत्री बन गए लेकिन ज्यादा सयाने होने से ही इन्होंने भारत माता को सुधारने के वे प्रयोग किए जो शायद लालू यादव, नीतीश कुमार के दिमाग में नहीं बनते। हां, मुझे नहीं लगता कि नोटबंदी, जीएसटी और बिना आगा-पीछा विचार के लॉकडाउन जैसे काम लालू या नीतीशकुमार कर पाते। नरेंद्र मोदी अपने को क्योंकि अधिक हार्डवर्क वाला मानते हैं, लोकप्रियता के लिए चौबीसो घंटे खपे रहते हैं तो भारत को बिहार बनाने में उनका हार्डवर्क निश्चितही ज्यादा था, है और रहेगा।

नोट रखें, मेरी यह बात जो वक्त की कसौटी में निश्चित ही सत्य होगी कि नरेंद्र मोदी यदि पंद्रह साल भारत के प्रधानमंत्री रहे तो यह फर्क करना मुश्किल होगा कि भारत से ज्यादा बिहार गया-गुजरा है या भारत ज्यादा बदहाल, भूखा, बेरोजगार है। बिहार के लोग तो फिर भी सत्तू-पानी पी कर जी लेंगे लेकिन भारत के 138 करोड़ लोग, उसकी आर्थिकी 2024 व 2030 में ऐसी बिलबिलाती हुई होगी कि अंग्रेजों के वक्त की महामारी और भूख के किस्सों से तुलना होगी तो सौ साल पुराने दिन अच्छे लगेंगे।

क्या यह मैं बढ़-चढ कर, अतिश्योक्तिपूर्ण और किसी विरोध-खुन्नस में लिख रहा हूं? कतई नहीं। पर ईश्वर के लिए सोचें कि बेचारे नीतीश कुमार पर बिहार में क्यों खलनायक जैसा विमर्श, नैरेटिव है? नीतीश और उनकी पार्टी चुनाव जीते या हारे, उनके चाहने वालों से लेकर भाजपा सबने उन्हें बासी, थका, फेल और बोझ मान यह सोचा है कि उनके बस में कुछ नहीं है। सभी दलील लिए हुए हैं कि लोगों का जीना मुश्किल बना है।

लेकिनजो बिहार में है वह पूरे भारत की हकीकत बनते हुए क्या नहीं है? जैसे बिहार में उम्मीद, कामधंधे, रोजगार, उद्योग स्थापना, कमाई-खर्च, डिमांड-सप्लाई की जरूरी ऊर्जा, भाप नहीं है तो वह पूरे भारत में भी आज नहीं है। नरेंद्र मोदी ने बिहार में कहा कि कोरोना के आठ महीनों में उन्होंने लोगों को फ्री राशन बांटा। जैसे यह 21वीं सदी के लेवल का काम हो! ऐसा लालू-नीतीश भी करते। पर उससे भूखमरी टलेगी लेकिन डिमांड-सप्लाई की भाप नहीं बनेगी। न लालू फैक्टरी लगवा पाए न नीतीश लगवा पाए और जो था उसे बरबाद किया तो तीस साल का वह मॉडल यदि पांच साल से भारत में नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के बाद से सर्वत्र फैला दिया है तो भारत को फिर वहीं, बिहार ही बनना है। लालू ने प्रदेश की उद्यम, बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान-शिक्षितों की अगुआ ताकतों को जैसे हाशिए में डाल बिहार बनाया वहीं काम तो नरेंद्र मोदी ने अखिल भारतीय स्तर पर कुल आबादी के और ज्यादा बड़े हिस्से को हाशिए में डाल जैसे किया है वह क्या कम घातक होगा?सचमुच पंद्रह साल के मोदी राज में भारत माता का क्या बनेगा इस पर जितना सोचा जाए कम होगा।

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