सम्पादकीय

अंबानी-अडानी और ईस्ट इंडिया कंपनी में क्या अंतर?

Gulabi
19 Dec 2020 4:05 AM GMT
अंबानी-अडानी और ईस्ट इंडिया कंपनी में क्या अंतर?
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अहम फर्क यह कि ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिक गोरे अंग्रेज थे तो अंबानी-अडानी हिंदुस्तानी अश्वेत चेहरों वाले हैं।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अहम फर्क यह कि ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिक गोरे अंग्रेज थे तो अंबानी-अडानी हिंदुस्तानी अश्वेत चेहरों वाले हैं। अन्यथा दोनों धंधे-मुनाफे के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाले। दोनों ने भारत के बादशाहों-नेताओं को साधा। बादशाह-नेताओं को चांदी की जूतियां पहनाई, कृपा पाई और बेइंतहा कमाई का रिकार्ड! ईस्ट इंडिया कंपनी की सफलता तब यह कहावत बनाए हुए थी कि "दुनिया खुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का"। उसके प्रतिरूप में आज कहावत बनती है "दुनिया हिंदुओं की, मुल्क मोदी का और हुक्म अंबानी-अडानी का"। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में सड़क, अस्पताल, स्कूल पुल, रेल, परिवहन सुविधाएं, कृषि सुधार किए लेकिन किसानों पर चाबुक चलवा उनसे नील की खेती करवाई और कपास, रेशम, अफीम, चीनी व मसालों के व्यापार से बेइंतहा पैसा कमाया तो पूरे देश की आबादी को बिना सेना के ही गुलाम बना 'हुक्म कंपनी बहादुर' का बना डाला।


वैसे ही 21वीं सदी में अंबानी-अडानी ने भारत के 138 करोड़ लोगों को सस्ता-अच्छा जीवन जीयो की खुशफहमी बनाते हुए अपने खरबपति बनने का जो तानाबाना बनाया है वह दुनिया की अकल्पनीय, अभूतपूर्व ऐसी दास्तां है, जो दिमाग भन्ना देने वाली है तो तारीफ वाली भी! हां, मैं ईस्ट इंडिया कंपनी और अंबानी-अडानी दोनों को काबिले तारीफ मानता हूं। दोनों ने जो किया वह अपने लालच, धनलिप्सा की भूख, संकल्प से था। मैंने धीरूभाई अंबानी को दिल्ली के प्रधानमंत्रियों व दिल्ली सरकारों को पटाते, दुहते, मूर्ख बनाते बहुत करीब से देखा है। चालीस साल से अंबानी के लाइसेंस, परमिट, नजराना, शुकराना देने-दिलवाने के नेटवर्क का जानकार हूं। धीरूभाई, मुकेश-अनिल अंबानी, बालू-टोनी, मनोज मोदी-परिमल नाथवानी आदि राजीव गांधी- वीपी सिंह के समय से याकि मेरे जनसत्ता समय से मुझे जानते हैं, मानते हैं। कोई तीस साल पहले का वह वक्त याद है जब टोनी ने दिल्ली के मौर्या होटल टॉवर में मेरी धीरूभाई से पहली मुलाकात कराई थी तो मैंने पूछा कि आपने इतने कम समय में जो कर डाला है तो वह कहां जा कर थमेगा? मैं तब भी बेबाक था और दिल्ली के पत्रकारों में विमल शूटिंग के कूपन बांटने या अफसरों को दिवाली पर ज्वेलरी सेट गिफ्ट करने की अंबानी लिस्ट में कभी नहीं रहा। वीपी सिंह का राज आया और सरकार के, विनोद पांडे, भूरेलाल के खौफ में जीते हुए धीरूभाई ने लकवा खा कर बाद में जैसा जीवन जीया तो समझ आया कि सेठों की यह नस्ल वैसी ही कंपकंपाई और गुलामी का दिल लिए हुए है, जैसे आम हिंदू जीवन होता है। जितना बड़ा सेठ होगा वह दरबार का उतना ही गुलाम होगा।

भारत की तासीर को ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे डायरेक्टरों ने जहांगीर के दरबार से बूझा था। इसलिए उन्होंने सोच समझ कर रणनीति बनाई कि हिंदुस्तानियों के बीच में धंधा, मुनाफा, लूट का तरीका होगा 'दुनिया खुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का'। वही शैली-रणनीति धीरूभाई ने और अंबानी-अडानी ने लोकतंत्र के खांचे की अलग-अलग संस्थाओं को साध कर बनाई है। साठ के दशक में दिल्ली आ कर इंदिरा सरकार के एक अदने उप वाणिज्य मंत्री मोहम्मद शफी कुरैशी को पटा कर धीरूभाई अंबानी ने आयात का जो पहला लाइसेंस लिया था तो उसकी सफलता-कमाई के बोध में धीरूभाई ने फिर प्रधानमंत्री, उनके मंत्रियों, अफसरों का महत्व समझ दरबार को चांदी की जूतियों से जैसे रिझाना शुरू किया वह उनकी सक्सेस स्टोरी का कोर मंत्र है। तभी अंबानी की ईस्ट इंडिया कंपनी से भी तेज रफ्तार में चक्रवर्ती रफ्तार से लगातार श्रीवृद्धि है। रणनीति का कोर मंत्र प्रणब मुखर्जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, चिदंबरम से लेकर नरेंद्र मोदी मतलब हर सत्तावान को प्रसाद चढ़ा कर, नजराना, शुकराना, हरजाना दे कर देश की भीड़ पर मोनोपोली के साथ घंधे का राज बनाना है।

ईस्ट इंडिया कंपनी का कैप्टन विलियम हॉकिंस 1608 में भारत के सूरत बंदरगाह पर जहाज लेकर पहुंचा था। उसके बाद कंपनी ने सन् 1615 (जहांगीर से धंधे का लाइसेंस लेने) से लेकर 1764 में पलासी की लड़ाई तक लूट के नेटवर्क, अलग-अलग क्षेत्रों में धंधे की मोनोपोली, दादागिरी बनाने की मेहनत कोई डेढ सौ साल की, जबकि धीरूभाई अंबानी अरब देश यमन की राजधानी अदन के पेट्रोल पंप में अटेंडेंट की नौकरी छोड़ मुंबई 1958 के आसपास पहुंचे। अंग्रेजों की तरह मसाले व जिंस के व्यापार की छोटी शुरुआत से काम शुरू किया। समझ आया तो अंग्रेजों की तरह दिल्ली आ कर बादशाह दरबार में मुजराना-नजराना कर एक उप मंत्री को पटाया और आयात लाइसेंस से वह सिलसिला शुरू किया जो सन् 1615 में सर थॉमस रो ने जहांगीर से अनुमति लेने के बाद सूरत-बंबई से व्यापार करके बनाया था। ईस्ट इंडिया कंपनी को 1764 तक याकि 150 साल पापड़ बेलने पड़े लेकिन अंबानियों ने पचपन साल में ही आजाद भारत में वह धन-संपदा इकट्ठी कर ली कि न केवल ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे भूत नरक में जले-भुने हुए होंगे बल्कि पूंजीवाद भी शरमाता हुआ है।

इसे संयोग कहें या भारत की नियति कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने पलासी की लड़ाई जीतने के बाद कृषि सुधार का टारगेट बना बंगाल में जमींदारी व्यवस्था बदली। कृषि पैदावार की व्यवस्था को कमाई, लूट के माफिक बनाया। उन दिनों बंगाल से मुगल शासन के राजस्व को पचास प्रतिशत हिस्सा मिलता था। भारत के सबसे धनी अर्ध-स्वायत्त राज्य बंगाल में 1756 में, नवाब सिराजुद्दौला शासक बना। बंगाल की खेती, मालगुजारी, रेशम, कपड़े आदि पर ईस्ट इंडिया कंपनी को धंधा करना था। पर सिराजुद्दौला बादशाह तुनकमिजाज था तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसके सेनापति मीर जाफर को राजा बनाने का वादा कर अपने साथ मिलाया। और हिंदुस्तानी सेठों, बनारस, पटना, मुर्शिदाबाद के हिंदू बैंकरों के बैकअप से कंपनी की दो हजार लोगों की सेना ने पचास हजार की भारतीय सेना को हरा दिया। मीर जाफर ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकर की तरह गद्दी पर बैठा। उससे ईस्ट इंडिया कंपनी मनचाहा कराने लगी। सुधार के हवाले किसानों का पुराना ढर्रा बदला और मालगुजारी वसूली का वह नया वक्त शुरू हुआ, जिसे इतिहास में लूटपाट का युग आरंभ हुआ लिखा जाता है।

तब कहावत प्रचलित थी कि "दुनिया खुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का"। लूट से तंग आ कर मीर जाफर ने अंग्रेजों से पीछा छुड़ाना चाहा तो दरबारी नगर सेठों ने अंग्रेजों की दलाली में काम किया। दरअसल मीर जाफर क्योंकि जगत सेठ के धनवैभव से प्रभावित था तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसके जरिए पहले बादशाह से काम निकलवाए, फिर तख्त पलटवाया। अंततः 1764 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल का राज सीधे संभाल लिया।

क्या वह ईस्ट इंडिया कंपनी की देश को, जनता को लूटने की असाधारण व्यापारिक कामयाबी नहीं थी? मुनाफे-धंधे, ब्रिटेन के हित-नजरिए में सोचें तो डेढ़ सौ साल की ईस्ट इंडिया कंपनी की सफलता (हुक्म कंपनी बहादुर का) अभिनंदनीय है, काबिले तारीफ है। तो अंबानी-अडानी के पचास साला कमाल को क्यों न अभूतपूर्व माना जाए? उस नाते मैं अंबानी-अडानी का प्रशंसक हूं। राजा कोई हो, राजीव गांधी हों या मनमोहन सिंह या नरेंद्र मोदी इन सबको यदि अंबानी-अडानी लगातार बड़े प्रेम से चांदी की जूतियां पहना कर अरबपति से खरबपति, खरबपति से शंखपति बनने की बुलेट रफ्तार की गति पकड़े हुए हैं तो तारीफ करनी ही होगी। धंधा यदि जीवन की साधना, तपस्या है तो वह कैसे भी हो, शोषण-लूट-मूर्ख बनाने-ठगने-चाबुक चलाने आदि से कैसे भी ईस्ट इंडिया कंपनी और जगत सेठ ने पूरी आबादी को भेड़-बकरी बनाया तो वह कामयाबी की भी एवरेस्ट फतह है। ऐसे ही अंबानी-अडानी यदि आज सब कुछ लेते हुए हैं, जनता-देश भले लूट रहा हो लेकिन इतिहास में तो वे नामा-दामा इकठ्ठा करने की दास्तां बना रहे हैं।

शायद सन् 2012-13 की बात है। मैं उन दिनों ईटीवी पर 'सेंट्रल हॉल' प्रोग्राम करता था। चैनल रामोजी राव से अंबानी को ट्रांसफर हो रही थी। जगदीश चंद्रा के साथ अंबानी समूह के परिमल नाथवानी के परिवार की शादी के रिसेप्शन में जाना हुआ। नरेंद्र मोदी भी उसमें थे। वीवीआईपी के उस विशिष्ट बाड़े में मेरी मुलाकात मुकेश अंबानी के खास मनोज मोदी से हुई। उन्हें मैं पहले से जानता था। भोजन करते हुए बातचीत में ज्योंहि रिलायंस के खिलाफ केजरीवाल के उस वक्त हो रहे हल्ले की दुखती नस का प्रसंग (मैंने केजरीवाल का इंटरव्यू किया हुआ था) आया नहीं कि मनोज मोदी ने गुर की, सफलता के सूत्र को बताते हुए एक वाक्य बोला- हमें लड़ना नहीं है! हम धंधा करने वाले हैं।

धंधे में व्यवहार के इस कोर भाव,सत्व-तत्व वाले वाक्य पर मैंने बहुत विचार किया है। मोटे तौर पर लगा कि अपने जगत सेठ और अंबानी-अडानी के लिए व्यापार, उद्यम सिर्फ भूख है और भूख अनंत। दिमाग सिर्फ पैसे के लिए दौड़ता है। तभी इनमें स्टीव जॉब्स-बिल गेट्स, फोर्ड, जुकरबर्ग वाला इनोवेशन, कल्पनाशीलता, जोखिमवाली वह किलिंग इंस्टिक्ट हो ही नहीं सकती है, जिससे सच्चा पूंजीवाद है। ये मर्केंटाइल युग वाले असंस्कारित लोभी सेठ हैं, जिनके लिए विदेशी तकनीक, पूंजी, उत्पाद का एजेंट बन कर, प्रधानमंत्री, सत्ता की कृपा पर एकाधिकार से कुंद-मंद-गुलाम आबादी को दुहना ही उद्यमशीलता है।

तीन सौ साल पहले भारत की बीस करोड़ भीड को ईस्ट इंडिया कंपनी ने दुहा तो 138 करोड़ लोगों की भीड़ फिलहाल अंबानी-अडानी के क्रोनी भारत की आधुनिकता में दुहे जा रहे हैं। पर ये दोषी नहीं हैं। जिम्मेवार तो लोग और लोगों की राष्ट्र-राज्य वाली वह संरचना है, जिसमें माईबाप सरकार के बादशाह, प्रधानमंत्री, अफसर सभी ब्रेन डेड अवस्था में जिंदा जीवन जीते हुए हैं।


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