सम्पादकीय

अगर आपको एक एक्स्ट्रा छुट्‌टी मिले, तो क्या करेंगे? मौज-मस्ती या कुछ नया

Gulabi
19 Jan 2022 8:35 AM GMT
अगर आपको एक एक्स्ट्रा छुट्‌टी मिले, तो क्या करेंगे? मौज-मस्ती या कुछ नया
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आखिर एक झुंझलाता हुआ प्राणी कंबल फेंककर बाथरूम की तरफ दौड़ता है
रश्मि बंसल का कॉलम:
सोमवार की सुबह, और बड़ी मुश्किल से आंख खुलती है। आखिर एक झुंझलाता हुआ प्राणी कंबल फेंककर बाथरूम की तरफ दौड़ता है। दस-बारह मिनट बाद, हाथ में एक पीस टोस्ट पकड़े हुए, कंधे पर बैकपैक लटका कर, ऑफिस निकल पड़ता है। बस, शुरू हो गया वही, हर हफ्ते वाला रुटीन, जिसमें वीकेंड का बेसब्री से इंतजार रहता है। कोविड-19 के बाद स्थिति कुछ हद तक बदल गई है। अब आप बिना ब्रश किए, पायजामे के ऊपर शर्ट पहनकर, अपने बॉस के साथ मीटिंग अटेंड कर सकते हैं। जहां तक हो सके, कैमरा ऑफ रखकर।
अब दो साल तक इस तरह से काम करने के बाद, क्या पब्लिक फिर से हफ्ते में पांच दिन, बस और ऑटो में मरते-पिसते हुए, वापस ऑफिस आने को तैयार है? इस विषय को लेकर एचआर वाले काफी दुविधा में हैं। शुरू में सब काफी खुश थे, एक सीईओ ने कहा कि साल के हम चार करोड़ रुपया बचा रहे हैं। क्योंकि कर्मचारियों के लिए जो बस हम चलाते थे, उसका खर्च बंद हो गया। बिजली का बिल, चाय-कॉफी का चक्कर भी खत्म। यहां तक कि हम सोच रहे हैं, ऑफिस भी पूरी तरह से बंद ही कर दें। इसका किराया भी बच जाएगा।
ये ट्रेंड आईटी इंडस्ट्री में ज्यादा नजर आ रहा है, या फिर कोई भी ऐसा काम हो जो मुख्य रूप से कम्प्यूटर या फोन द्वारा किया जा सके। लेकिन क्या हर कोई इससे खुश है? कुछ लोगों का कहना है कि आठ घंटे ऑफिस में बैठकर जो सुकून मिलता था, वो घर में कहां। कामकाजी महिलाओं को खास अखरता है, कभी घर के काम से दूर अपने काम में मन लग ही नहीं पाता। और तो और, बड़े शहरों में घर भी इस तरह बने हुए हैं कि घुटन सी होती है। भाई, पहले तो थके-हारे आकर सोना ही तो था।
अब तीन कमरों में तीन जूम कॉल चल रहे हैं। एक तरफ प्रेशर कुकर की सीटी भी बज रही है। दूसरी तरह दूसरा काम। अब लगता है कि बस, एक स्टडी रूम होता, तो कितना सुख मिलता। हालांकि वो कौन यूज़ करेगा, उस पर भी महायुद्ध। मुझे लगता है कि काम करने के तरीकों में जो डिसरप्शन हुआ है, उससे सबको काफी फायदा हुआ है। कोविड-19 आने के पहले आप ऑफिस में कितने घंटे बिताते हैं, अक्सर उस पर लोगों की नजर रहती थी। अब काम खत्म हुआ या नहीं, इस पर फोकस होने लगा है।
इसमें अधिकतर पाया गया है कि नए तरीके से काम उतना ही हो रहा है, काम में कोई खासा नुकसान नहीं। मगर हां, जिन्होंने कॉलेज के बाद पहली नौकरी में कदम रखा, उनके लिए मुझे बुरा जरूर लगता है। कॅरिअर की शुरुआत में अपने सहकर्मियों और सीनियर्स के इर्द-गिर्द रहकर जो सीख मिलती है, वो उन्हें प्राप्त नहीं हुई। और ऐसा माहौल बना रहा तो क्या हम लोग एक-दूसरे से आमने-सामने बात कर भी पाएंगे? कहना मुश्किल है। कई लोगों ने अपने वाट्सएप स्टेटस पर लिखा हुआ है- 'कॉल ओनली इन इमरजेंसी।'
जो सब्जी हम ठेलेवाले से दो बात करके लेते थे, आज होम डिलीवरी एप में सिर्फ कीबोर्ड पर अंगुलियां दौड़ाकर हमारे पास पहुंच जाती हैं। दूसरी ओर अकेलापन बढ़ रहा है, डिप्रेशन फैल रहा है। अपने मन की बात कहने के लिए थैरेपिस्ट को पैसे देने पड़ते हैं। खैर, पहले का ऑफिस कल्चर इंसान के मन और तन को झकझोर देता था। लेकिन 'वर्क फ्रॉम होम' भी कुछ समय बाद नीरस लगता है। चाहिए एक हाइब्रिड कल्चर जिसमें महीने में एक हफ्ता, रोटेशन से लोग ऑफिस आएं। स्क्रीन के पीछे से निकलकर अपना जीता-जागता रूप दिखाएं।
कुछ देशों में एक एक्सपेरिमेंट चल रहा है- फोर डे वर्कवीक। यानी कि हफ्ते में सिर्फ चार दिन काम। रोज़ाना आठ घंटे के बजाय नौ घंटे काम, वेतन वही पांच दिन वाला। ये सिस्टम लोगों को काफी पसंद आ रहा है और कंपनियों को भी। इसके भारत में जल्द लागू होने की भी संभावना है। अगर आपको एक एक्स्ट्रा छुट्‌टी मिले, तो क्या करेंगे?
मौज-मस्ती, घर के काम या फिर कुछ ऐसा जिसके लिए आज तक टाइम नहीं मिला? अगर दस प्रतिशत लोग हफ्ते का एक दिन समाजसेवा सा देशसेवा में लगा दें, तो सोचिए क्या से क्या हो सकता है। देश का उद्धार आत्मा का वो सुकून देगा, जो सिर्फ पैसा कमाकर कभी ना मिला। इरादा नेक है, मत्था टेक लें। जय हिंद।
पहले का ऑफिस कल्चर इंसान के मन और तन को झकझोर देता था। लेकिन 'वर्क फ्रॉम होम' भी कुछ समय बाद नीरस लगता है। चाहिए एक हाइब्रिड कल्चर जिसमें महीने में एक हफ्ता, रोटेशन से लोग ऑफिस आएं। स्क्रीन के पीछे से निकलकर अपना जीता-जागता रूप दिखाएं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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