सम्पादकीय

आप और क्या हैं

Subhi
3 Aug 2022 5:14 AM GMT
आप और क्या हैं
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संबंधों और रिश्ते-नातों की दुनिया बड़ी विचित्र है। यहां अपनापन कम और छद्म ज्यादा है। रिश्तों की मधुरता के संबंध में तो यह प्रचलित भी है कि ‘स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती/ सुर नर मुनि सबकी यह रीती।

मनीष कुमार चौधरी; संबंधों और रिश्ते-नातों की दुनिया बड़ी विचित्र है। यहां अपनापन कम और छद्म ज्यादा है। रिश्तों की मधुरता के संबंध में तो यह प्रचलित भी है कि 'स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती/ सुर नर मुनि सबकी यह रीती।' आप अभी जो भी हैं, पर संबंधों की दुनिया इस बात से संचालित होती है कि आप इस दिखने के अलावा 'और' क्या हैं? आप 'और' क्या हैं, इससे जो भाव बनता है उसी से संबंधों का संसार खड़ा होता है।

हम अक्सर जाने-अनजाने खुद यह दिखाने और बताने में लगे रहते हैं कि हम 'और' क्या हैं। इसलिए प्राय: यह देखने में आ रहा है कि अधिकांश लोग मानव-मूल्यों के प्रति धर्मनिष्ठता जैसे गुणों को छोड़ कर अतिरिक्त ताकत हथियाने की होड़ में लगे हुए हैं, जिसके जरिए वे दिखाना चाहते हैं कि हम तो यह भी हैं। यही वजह है कि आजकल जितनी तेजी से संबंध बनते हैं, अचानक ही खत्म भी हो जाते हैं। कल तक जो आपका प्रशंसक, एहसानमंद, हितैषी और आज्ञाकारी था, वह आज इस तरह कैसे बदल गया, यह एक रहस्य-सा लगने लगता है।

अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य क्यों किसी के नजदीक जाना चाहता है और उससे संबंध जोड़ता है। ज्यादातर मामलों में ऐसा स्वार्थ सिद्धि के लिए होता है। आप किसी में 'और' पा लेते हैं और यही सोच कर उससे अपनापन जोड़ लेते हैं कि यह तो बड़े काम का है। लेकिन कुछ दिन बीतते-बीतते पता चलता है कि उसका 'और' तो एक भ्रम मात्र है। फिर क्या, आपको उससे अलग होने में दो मिनट भी नहीं लगते।

आप उससे इस तरह अलग हो जाते हैं मानो उससे कभी मिले ही नहीं। न ही उसे पहचानते हैं। संबंधों की दुनिया में प्रवेश करने से पहले ही जैसे हम यह सच्चाई स्वीकार कर चुके होते हैं कि किसी के हम उतने ही नजदीक पहुंच सकते हैं, जितना हम उसकी नजरों में उपयोगी हो सकते हैं और जितना उसे प्रभावित कर सकते हैं। यानी सारे संबंधों की जो बुनियाद तैयार हो रही है, वह यही कि हम किसी के लिए कितने आकर्षक, कितने उपयोगी और कितने प्रभावशाली हैं। मानव संबंधों के प्रति यह रवैया रिश्तों की गर्माहट कम कर रहा है।

पहले संबंध और रिश्ते सहज तथा स्वाभाविक ढंग से बनते थे। हमारा ध्यान उपयोग से अधिक प्रेम और सद्भाव पर होता था। आज इसका उलट हो रहा है। किसी व्यक्ति में उसके 'और' तत्व को ध्यान में रख कर योजनाबद्ध तरीके से तमाम चतुराई और दांव-पेचों के साथ नितांत अस्वाभाविक ढंग से संबंध और रिश्ते बनाए-निभाए जाते हैं।

ऐसा क्यों हो रहा है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मनुष्य का मनुष्य से संबंध निरंतर एक अनुशासन और मर्यादा की मांग करता है, पर आज का व्यक्ति इन सीमाओं में बंधना नहीं चाहता। वह चाहता है कि बगैर अनुशासन के इन संबंधों से लाभ प्राप्त कर लिया जाए। जब सारे निजी काम मर्यादा का पालन किए बिना हो रहे हैं, तो किसी लक्ष्मण रेखा में बंधने का जोखिम क्यों मोल लें? किसी का अहसान लिए बगैर अपना काम निकल जाए तो इससे बेहतर क्या। अहसान लिया तो संभव है उसे चुकाना भी पड़े।

कोई चाहे कितना भला है या बुरा, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इससे पड़ता है कि वह 'और' क्या है तथा उस और से हम अपने लिए कितना हित साध पाएंगे। विडंबना यह कि समाज में यह कुत्सित प्रवृत्ति इतनी घर कर गई है कि रक्त संबंधों में भी इसका असर देखा जाने लगा है। पति पत्नी से, पिता पुत्र से, माता पुत्री से, पुत्र पिता से, बहन भाई से… किसी अल्प या दीर्घकालिक लाभ की अपेक्षा रखने लगे हैं। मानवीय मूल्यों के लोप ने इस प्रवृत्ति में कोढ़ में खाज का काम किया है। चूंकि मानवीय मूल्य किसी भी समाज के भीतर व्यावहारिक जीवन का आधार हैं, इसलिए ये हमारे कार्यकलापों को भी नियंत्रित करते हैं।

आप महसूस करते होंगे कि हर व्यक्ति का अहं तथा 'और' एक-दूसरे के लिए कितना रहस्यमय हो चला है। आप किसी के मन की थाह भी नहीं पा सकते कि संबंधों की इस भूलभुलैया के पीछे आखिर चल क्या रहा है! अपने स्वनिर्मित 'और' ने हमें रिश्तों में तर्क और कुतर्कों का ऐसा चक्र चलाने की अनुमति दे रखी है कि इसके आगे सारी नैतिकताएं गौण हैं। यह चक्र चलाते समय हम अपने व्यक्तित्व के प्रति बड़े सतर्क रहते हैं कि कहीं कोई हमारे मन को न टटोल ले। पर हम इस सच से भी मुख नहीं मोड़ सकते कि यह 'और' यदि और भारी होता चला जाएगा तो संबंधों को बहुत दूर तक ढो पाना संभव नहीं होगा। संभव है, यह क्रिया आपके लिए ही धोखा साबित हो जाए। संबंधों की इस जटिल दुनिया में किसी और का 'और' आपके 'और' पर भारी पड़ सकता है।


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