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कोई व्यक्ति अगर धार्मिक चिन्ह (होली क्रॉस) या किसी अन्य धर्म का प्रतीक चिन्ह पहनता है
कोई व्यक्ति अगर धार्मिक चिन्ह (होली क्रॉस) या किसी अन्य धर्म का प्रतीक चिन्ह पहनता है क्या उसका अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र रद्द किया जा सकता है? पिछले दिनों एक ऐसे ही मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता है. इसे नौकरशाही संकीर्णता कहते हुए मद्रास होईकोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान ऐसा नहीं कहता है. मद्रास हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद भारत में धार्मिक पहचान और धर्मांतरण को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है. आइए जानते हैं धर्मांतरण, अनुसूचित जाति की धार्मिक पहचान पर भारतीय कानून क्या कहता है?
कानून क्या कहता है?
आधिकारिक तौर पर भारत की आबादी कई समूहों में वर्गीकृत की गई है जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग शामिल हैं. भारत के संविधान का अनुच्छेद 366 अनुसूचित जाति को परिभाषित करता है जिसमें जातियों, जनजातियां, या उनके हिस्से/ जाति के भीतर के समूह और अधिसूचित जनजातियों को शामिल किया जाता है. संविधान का अनुच्छेद भारत के राष्ट्रपति को ये अधिकार देता है कि वो सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए राज्य या केंद्र शासित प्रदेश को इन समूहों को अनुसूचित जाति के रूप में निर्दिष्ट कर सके. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश को 1950 में पारित किया गया था, जिसमें एक प्रावधान भी जोड़ा गया था. ऐसी अधिसूचना में संशोधन करने और किसी समूह को बाहर निकालने या शामिल करने से पहले कानून का संसद में पारित होना जरूरी है. 1956 के संशोधन में इस आदेश को स्पष्ट किया कि हिंदु या सिख धर्म को मानने वालों के अलावा अन्य धर्म के लोग अनुसूचित जाति के होने का दावा नहीं कर सकते हैं.
हालांकि हिंदू की कानूनी परिभाषा हिंदू कानून के आधार पर तैयार की गई है, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू दत्तक और गुजारा भत्ता अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम और हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षण अधिनियम 1956 भी शामिल हैं. किसी भी रूप में या विकास के जरिए एक हिंदू में सिख समुदाय के अलावा बुद्ध और जैन समुदाय को शामिल किया गया है.
1985 में सर्वोच्च न्यायालय की तीन जज की बैंच जिसके प्रमुख भारत के मुख्य न्यायाधीश पीएन भागवत थे. जिन्होंने फैसला दिया कि जो भी हिंदू के अलावा किसी और धर्म को मानता है वो अनुसूचित जाति से जुड़े संवैधानिक लाभ नहीं ले सकता है. 2020 में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने संसद के एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि हिंदु, सिख, और बुद्ध ही अनुसूचूति जाते के सदस्य हो सकते हैं, दूसरा धर्म मानने वाले के लिए इसमें कोई प्रावधान नहीं है.
अनुसूचित जाति के लिए धार्मिक पहचान को प्रासंगिक बनाना
धर्मांतरण के मामले में अनुसूचित जाति के संबंध में तीन बातों पर विचार किया जाना चाहिए. पहला अगर अनुसूचित जाति का सदस्य हिंदू, सिख और बुद्ध के अलावा किसी दूसरे धर्म को अपनाता है, तो वो अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं रह जाता हैं. हालांकि उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्य के तौर पर पहचान दी जा सकती है. दूसरा अगर कोई वापस हिंदू, सिख या बुद्ध धर्म अपनाता है, तो उसकी जाति के सदस्यों की स्वीकृति के आधार पर वो वापस अपनी मूल अनुसूचित जाति का माना जा सकता है. तीसरा अनुसूचित जाति धर्मांतरित के वंशजों के मामले में, सदस्यता स्थापित करने और सुविधाओं के दावा करने के लिए उन्हें अनुसूचित जाति के सदस्यों के द्वारा स्वीकार करना जरूरी है.
मुस्लिम और क्रिश्चियन समुदाय में दलित पर 2008 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट में विशेषतौर पर दलित मुस्लिम और क्रिश्चियन के साथ हुए सामाजिक-आर्थिक भेदभाव के साक्ष्य दिए गए हैं. ये रिपोर्ट ऐसे समुदायों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल किए जाने की पुरजोर वकालत करती है. दलित क्रिश्चियन को आरक्षण के लाभ से जुड़ा मामला फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है. इस मामले में आयोग ने मांग की है कि सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में सीट के मामले में आरक्षण को धार्मिक रूप से तटस्थ होना चाहिए ताकि अनुसूचित जाति के क्रिश्चियन को भी लाभ मिल सके. भारत के मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे ने इस मामले पर 2020 में एक नोटिस जारी किया था.
धार्मिक पहचान बदलना, मानना और उसे अभिव्यक्त करना
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 धर्म को मानने, आचरण करने और उसका प्रचार करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है. और साथ ही कानून के सामने सभी धर्मों की समानता पर भी जोर देता है. वहीं अनुच्छेद 26 सभी धार्मिक संप्रदायों तथा पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता तथा स्वास्थ्य के अधीन अपने धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबंधन करने, अपने स्तर पर धर्मार्थ या धार्मिक प्रयोजन से संस्थाएं स्थापित करने और कानून के अनुसार संपत्ति रखने, प्राप्त करने और उसका प्रबंधन करने के अधिकार की गारंटी देता है. अनुच्छेद 25 और 26 धार्मिक संस्कार तक बढ़ा हुआ है ये महज सिद्धांत के सार तक ही सीमित नहीं है. ये बात 1954 में सर्वोच्च न्यायालय ने शिरुर मठ मामले में दोहराई थी. इसमें अदालत ने माना था कि धर्म विश्वास का विषय है इसके लिए आस्तिक होना जरूरी नहीं है. धर्म को धारण करना आमतौर पर अपनी धार्मिक पहचान को सार्वजनिक करना होता है. यहां पर पूजा अर्चना को धार्मिक संस्कार की भाव अभिव्यक्ति के तौर पर समझा जा सकता है. और उसका प्रचार करना किसी का भी अपने धार्मिक विश्वास के सिद्धांतो को जाहिर करके धार्मिक विश्वास को संप्रेषित करने के अधिकार को दिखाता है.
मानव अधिकारों के वैश्विक घोषणा का अनुच्छेद 18 साफ करता है कि धर्म की स्वतंत्रता में किसी के धर्म बदलने की स्वतंत्रता भी शामिल है. इस तरह से अनुच्छेद 25 और 26 के तहत किसी को धर्म जाहिर करने का अधिकार होना भी उसके धार्मिक पहचान के बदलने की स्वतंत्रता में बदल जाता है. हालांकि 1977 में रेव स्टेनिस्लास बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालनय ने कहा था इसे दबाव या प्रलोभन का प्रयोग करके किसी को परिवर्तित करने के अधिकार के तौर पर नहीं देखा जा सकता है.
इस विचार को कई राज्यों ने अपनाया जिसमें गुजरात, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेस और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं, और इस पर धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम लागू किया गया है. यह कानून जबरन धर्मांतरण पर रोक लगाता है. जिसे दबाव देकर, प्रलोभन या कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करके धर्मांतरण के तौर पर परिभाषित किया गया है. अब एक व्यक्ति को अपना धर्म बदलने के लिए एक निश्चित अवधि में अपने जिला मजिस्ट्रेट को सूचित करना होगा. कई राज्यों में ऐसा नहीं करने पर इसे अपराध की श्रेणी में रखा जाएगा. इसके अलावा जब कोई अपना धर्म परिवर्तित करता है तो उसके सामाजिक-कानूनी परिणामों पर असर पड़ता है, उसके उत्तराधिकार, वैवाहिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ता है. इसलिए अगर कोई अपना धर्म परिवर्तन करने का मन बनाता है तो इसे सुनिश्चित करने के लिए उसे कानूनी कार्यवाहियों से गुजरना चाहिए. इस तरह उसकी पहचान सरकारी दस्तावेजों में दर्ज होती है.
1971 में सर्वोच्च न्यायालय ने पेरुमल नादर बनाम पोन्नुस्वामी मामले में कहा था कि महज हिंदु बनने की सैंद्धांतिक निष्ठा या महज घोषणा काफी नहीं है, हालांकि धर्मांतरण के सबूत के साथ वास्तविक इरादा धर्मांतरण को प्रभावी बनाता है
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विराग गुप्ता, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान तथा साइबर कानून के जानकार हैं. राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित लेखन के साथ टीवी डिबेट्स का भी नियमित हिस्सा रहते हैं. कानून, साहित्य, इतिहास और बच्चों से संबंधित इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पिछले 4 वर्ष से लगातार विधि लेखन हेतु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा संविधान दिवस पर सम्मानित हो चुके हैं. ट्विटर- @viraggupta.
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