सम्पादकीय

अयोध्या के ब्राह्मण सम्मेलन में राम मंदिर बनवाने की बात कर BSP ने क्या खुद के लिए खोद ली है खाई

Gulabi
26 July 2021 5:07 PM GMT
अयोध्या के ब्राह्मण सम्मेलन में राम मंदिर बनवाने की बात कर BSP ने क्या खुद के लिए खोद ली है खाई
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अयोध्या के ब्राह्मण सम्मेलन

संयम श्रीवास्तव। लोकतंत्र में वोट की राजनीति समुदायों के बीच बैर-भाव कराती है तो वोट की राजनीति 2 समुदायों में मेल-मिलाप भी कराती है. कभी ब्राह्मण विरोध के नाम पर बनी पार्टी आज ब्राह्वणवाद के फलने फूलने के लिए नारे लगा रही है. बात हो रही है बहुजन समाज पार्टी की. बीएसपी सुप्रीमो मायावती के इस टर्न के चलते 2022 में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाला है. इस बार बीएसपी इतिहास को दोहराते हुए अपना 2007 वाला प्रयोग फिर से 2022 में करने को पूरी तरह से तैयार है. यानि दलित+ब्राह्मण वोट बैंक की सियासत. मायावती को लगता है कि यूपी का ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी से नाराज है, इसलिए 2007 की ही तरह उन्हें फिर से बहुजन समाज पार्टी के करीब लाया जा सकता है. दलित-ब्राह्मण वोट बैंक को मिलाकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई जा सकती है. अयोध्या में अपने ब्राह्मण सम्मेलन में बहुजन समाज पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने तो बकायदा आंकड़े भी दे दिए कि कैसे 13 फ़ीसदी ब्राह्मण और 23 फ़ीसदी दलित मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएंगे.

ब्राह्मणों को जोड़ने की बात तो राजनीतिक समीक्षकों को समझ में आ रही है पर राम मंदिर की बात करके बीएसपी कौन सी राजनीति करने वाली है ये बात किसी को नहीं समझ में आ रहा है. क्योंकि भव्य राम मंदिर बनाने की बात करके बीएसपी अपने संभावित वोटर्स मुसलमानों को नाराज करने का कुचक्र क्यों रचेगी? इसके उसको क्या हासिल होगा? ये माना कि यूपी में मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को मिलते रहे हैं. पर जहां बीएसपी जीत रही होती है वहां मुसलमान बीएसपी को खुले दिल से वोट देते रहे हैं. आखिर भव्य राम मंदिर बनाने की बात कहकर बहुजन समाज पार्टी अपने मुस्लिम वोटर्स को क्यों नाराज कर रही है. आखिर बीएसपी नेता सतीश मिश्र इस रणनीति में क्या देख रहे हैं?

सतीश मिश्रा या समझ नहीं रहे हैं या बहुत बड़ी भूल कर रहे है
हालांकि सतीश चंद्र मिश्रा राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं. उनकी सलाह पर चलकर ही बहुजन समाज पार्टी को 2007 में यूपी में सरकार बनाने में सफल हुई थी, पर इस बार जो गणित वो बता रहे हैं उसमें तमाम खामियां नजर आ रही हैं. जैसे उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या बमुश्किल 10 से 12 फ़ीसदी है. लेकिन वो 13 फीसदी बता रहे हैं. ये जानते हुए भी कि यूपी में एक परसेंट वोट बहुत बड़ा खेल कर देता है. उनके इस नए समीकरण पर कुछ और तीखे सवाल भी उठ रहे हैं.


-सबसे पहला सवाल यह है कि क्या मायावती पर पूरा ब्राह्मण समाज इतना विश्वास करेगा कि वह 2007 की तरह बीएसपी के साथ आए. दरअसल किसी भी समाज को अपने साथ जोड़ने के लिए आपको उसके लिए काफी समय से काम करने की जरूरत होती है, लेकिन मायावती सोचती हैं कि सिर्फ चार-पांच महीने के समय में ही वह ब्राह्मणों का विश्वास इतना जीत लेंगी कि ब्राह्मण बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति छोड़ कर उसके साथ आ जाएंगे. ऐसा जमीनी स्तर पर होता हुआ तो नहीं दिखाई दे रहा है.
2007 में ब्राह्मणों का बीएसपी के साथ आने का सबसे बड़ा कारण था कि उस वक्त उत्तर प्रदेश में मायावती के पक्ष में लहर थी. दूसरा 2005 से या उससे पहले से ही मायावती सरकार ने ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करने के लिए काम करने शुरू कर दिए थे. चुनाव से लगभग 3 से 4 साल पहले ही उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को रिझाने का काम शुरू हो गया था. लेकिन अब उस फासले को सिर्फ 4 से 6 महीनों के अंदर भर लिया जाएगा, वह भी तब जब हवा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बह रही हो बेहद मुश्किल लगता है.

– मुसलमानों को दरकिनार करके यूपी जैसे राज्य में सरकार बनाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. ये काम बीजेपी ही कर सकती है क्योंकि पार्टी का आधार ही हिंदुत्व. अब बीएसपी हिंदुत्व का चोला पहनकर कुछ हिंदू वोट तो पा सकती है पर निश्चित है कि उसे मुसलमानों के वोट की कुर्बानी देनी पड़ेगी. अगर पार्टी के सम्मेलनों में जयश्रीराम के नारे लगेंगे तो निश्चित है कि मुसलमान समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी में भविष्य देखेगा. वैसे भी मुसलिम वोटों के एक और दावेदार एमआईएम के औवेसी भी तैयार बैठे हैं. 2007 में बीएसपी के विजय के पीछे बहुत बड़ा हाथ मुस्लिम वोटों का भी था. भारी संख्या में मुस्लिम कैंडिडेट को टिकट दिए गए थे और भारी संख्या में वो जीतकर विधानसभा भी पहुंचे थे.

-सतीश मिश्रा ने अयोध्या में ब्राह्मण सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि 13 फीसदी ब्राह्णण और 23 फीसदी दलितों का वोट अगर मिल जाए तो सरकार बीएसपी की बनेगी. राजनीति का इतना सरलीकरण सतीश मिश्रा जैसे बड़े वकील और नेता के मुंह से अच्छा नहीं लगा. सभी जानते हैं कि कोई भी पार्टी अपने कोर वोटर्स के हंड्रेड परसेंट वोट नहीं पाती है. यहां तक बीएसपी को भी दलितों का हंड्रेड परसेंट नहीं मिलता है. इस 23 परसेंट में पासी, वाल्मीकि सहित कई जातियां हैं जो बीएसपी को वोट नहीं देती हैं. ब्राह्णण वोट तो वैसे भी एकमुश्त किसी को नहीं मिलने वाले हैं.

क्या बीएसपी के पास पूरे दलित वर्ग का समर्थन है?
अयोध्या के ब्राह्मण सम्मेलन में जिस तरह से बहुजन समाज पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने कहा कि 13 और 23 फ़ीसदी की राजनीति बीएसपी को सत्ता तक लेकर आएगी. उन्हें यह बताना चाहिए कि 23 फ़ीसदी क्या पूरी दलित आबादी उनके साथ है? दरअसल हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ और उनकी पार्टी की विचारधारा के साथ दलितों में सिर्फ एक वर्ग 'जाटव' ही उनके साथ हमेशा खड़ा रहा है. जबकि सोनकर, लोधी, पासी, जैसी दलित उपजातियां कब की बीएसपी से अपने आप को अलग कर चुकी हैं और यह भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ी हो चुकी हैं. इसमें से लोधी समुदाय से आने वाले कल्याण सिंह को तो भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी बनाया था. अभी हाल ही में मोदी के मंत्रिमंडल विस्तार में भी दलित समुदाय को ध्यान में रखते हुए लखनऊ से कौशल किशोर को मंत्री बनाया गया और जालौन से सांसद भानु प्रताप सिंह वर्मा को भी मंत्री बनाया गया.

बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग पर 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले से ही काम कर रही है, इसलिए उसने उत्तर प्रदेश में गैर यादव ओबीसी वोट बैंक को अपनी ओर लिया और बहुजन समाज पार्टी से गैर जाटव दलित वर्ग को अपनी ओर किया. यही वजह थी कि 2017 विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ.

बीएसपी की नई रणनीति से भीम ऑर्मी को मिल सकता है फायदा
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए बहुजन समाज पार्टी जिस तरह से जय श्री राम और ब्राम्हण वोट बैंक का राग अलाप रही है, उससे उसके साथ का दलित और मुस्लिम वोट बैंक भी बिछड़ सकता है. उत्तर प्रदेश की हालिया राजनीतिक स्थिति को देखें तो इस बीच सवर्णों और दलितों के बीच कई बार संघर्ष देखने को मिले. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो उसी के नाम पर चंद्रशेखर ने भीम आर्मी भी खड़ी कर दी जो पुरजोर तरीके से दलितों के हक और सवर्णों के विरोध में खड़ी होती दिखाई देती है.

इसके साथ ही भीम आर्मी मुस्लिम और दलित एकता की बात करती है, लेकिन मायावती इसके ठीक विपरीत जय श्रीराम के नारे लगा रही हैं और ब्राह्मणों को अपने साथ करने की पूरी कोशिश कर रही हैं. ऐसे में कहीं मायावती के साथ धोखा ना हो जाए कि ब्राह्मणों का साथ लेने के चक्कर में उनका दलित वोट बैंक भी उनसे से कटकर भीम आर्मी की ओर शिफ्ट हो जाए. क्योंकि जिस तरह से चंद्रशेखर दलित युवाओं में अपनी पैठ बढ़ा रहे हैं वह किसी भी हिसाब से कमतर नहीं आंका जा सकता. अगर मायावती का यह ब्राह्मण दांव फेल हुआ तो उत्तर प्रदेश में बीएसपी की स्थिति 'ना माया मिली ना राम' वाली हो जाएगी.

ब्राह्मण वोट बैंक के पीछे ही क्यों पड़ी हैं सभी राजनीतिक पार्टियां
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी लगभग 10 से 12 फ़ीसदी है. हालांकि यह वोट बैंक कभी भी किसी एक पार्टी का बंधुआ वोट बैंक नहीं रहा है. यानि समय के साथ अपनी सुविधा के अनुसार यह वोट बैंक पार्टी बदलता रहा है. कभी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का पूरा वोट बैंक कांग्रेस पार्टी में शामिल होता था. उसके बाद 2007 में यह वोट बैंक बहुजन समाज पार्टी में शिफ्ट हुआ और उसके बाद से यह वोट बैंक आज तक भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ा है. लेकिन बीते कुछ समय से ब्राह्मण उत्तर प्रदेश में अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. इस समुदाय को लगता है कि योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप कर उत्तर प्रदेश में उनके समुदाय की उपेक्षा हो रही है.

ब्राह्मणों को लगता है कि योगी के मुख्यमंत्री बनने से सूबे में राजपूतों का वर्चस्व ज्यादा हो गया है. ऊपर से बीते कुछ समय में कई ब्राम्हण माफियाओं के खिलाफ की गई कार्यवाहियों ने भी इस आग में घी डालने का काम किया है, चाहे वह विकास दुबे का एनकाउंटर हो या विजय मिश्रा के ठिकानों पर ताबड़तोड़ कार्रवाई. दूसरी ओर ब्राह्मण समुदाय योगी सरकार पर आरोप लगाता रहा है कि यह सब कुछ इस समुदाय को टारगेट बनाकर किया जा रहा है, यही वजह है कि विपक्षी पार्टियों को लगता है कि यह 10 से 12 फ़ीसदी वोट बैंक अब इस स्थिति में है कि इसे अपनी और लाया जा सकता है. इसकी वजह से आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस पार्टी और बहुजन समाज पार्टी इस वोट बैंक को अपने पाले में लाने की कोई भी कोशिश छोड़ना नहीं चाहती हैं. हालांकि बीजेपी से ब्राह्मण इतनी आसानी से कट जाएंगे ऐसा होता हुआ जमीनी स्तर पर नहीं दिख रहा है. उसकी वजह है कि ब्राह्मण समुदाय हमेशा उसी राजनीतिक पार्टी की ओर होते हैं जिसकी प्रदेश में सरकार बनने की संभावना होती है और अगर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति देखें तो फिलहाल जहां बीजेपी की स्थिति मजबूत दिखाई दे रही है.

2012 के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं ब्राह्मण
उत्तर प्रदेश के 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 403 में से 206 सीटें जीती थीं. 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के साथ दलित वोट बैंक तो था ही इसके साथ ही ब्राम्हण और गैर यादव ओबीसी वोट बैंक में ही था. हालांकि 2012 आते-आते बहुजन समाज पार्टी से गैर यादव ओबीसी वोट बैंक और ब्राह्मण वोट बैंक दोनों ही खिसकने लगे. इस खिसकते हुए जनाधार को भारतीय जनता पार्टी कहीं ना कहीं अपनी और लाने में सफल रही और यही वजह है कि जब 2017 में विधानसभा के चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश से 44 ब्राह्मण विधायक बीजेपी के जीत के सामने आए और 12 ब्राह्मण विधायक अन्य पार्टियों से जीतकर विधानसभा पहुंचे. यानि 2017 के विधानसभा चुनाव में कुल ब्राह्मण विधायकों की संख्या 56 थी. इससे आप यूपी में ब्राह्मणों के वर्चस्व की पूरी कहानी का अंदाजा लगा सकते हैं. इस वक्त यूपी में भले ही ब्राह्मण योगी सरकार से नाराज चल रहे हो, लेकिन वह भारतीय जनता पार्टी से भी नाराज हैं ऐसा कहना सही नहीं होगा. ब्राह्मणों को बीजेपी से जोड़े रखने के लिए मोदी मंत्रिमंडल विस्तार में रुहेलखंड क्षेत्र से आने वाले सांसद अजय मिश्र टेनी को भी मोदी मंत्रिमंडल में जगह दी गई. अजय मिश्र टेनी रुहेलखंड क्षेत्र के ब्राह्मणों में अच्छी पैठ रखते हैं.

ब्राह्मण का विरोध और उसके साथ की राजनीति का इतिहास बीएसपी का पुराना रहा है
बहुजन समाज पार्टी की नींव ही सवर्णों खासतौर से ब्राह्मणों के वर्चस्व के विरोध में रखी गई थी. 1989 का दौर था जब बहुजन समाज पार्टी काशीराम के हाथों में थी. उस वक्त नारा चलता था 'तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार' इस नारे के जरिए बहुजन समाज पार्टी दलितों और पिछड़े वोट बैंक को यह बताने की कोशिश करती थी कि उन्हें अब किसी से डरने की जरूरत नहीं है और अपने हक के लिए लड़ने की जरूरत है. लेकिन 2007 आते-आते यह नारा पूरी तरह से बदल गया और बहुजन समाज पार्टी ने समझा कि कैसे ब्राह्मणों को लेकर सूबे में सत्ता बनाई जा सकती है. इसलिए 2007 में बीएसपी का नारा था 'हाथी नहीं गणेश है, ब्राह्मण विष्णु महेश है.' 2012 आते-आते ब्राह्मण फिर से बहुजन समाज पार्टी से अलग होने लगे और इसका नतीजा यह रहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया. लेकिन अब 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी फिर से ब्राह्मणों के वोट बैंक को साधने की पूरी कोशिश करने लगी है.


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