सम्पादकीय

हमारे देश में शिक्षण संस्‍थानों के लिए हिजाब से संबंधित क्‍या हैं संवैधानिक प्रविधान

Rani Sahu
11 Feb 2022 2:48 PM GMT
हमारे देश में शिक्षण संस्‍थानों के लिए हिजाब से संबंधित क्‍या हैं संवैधानिक प्रविधान
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कर्नाटक में हिजाब से संबंधित विवाद के सामने आने के बाद अधिकांश लोगों के मन में अनेक सवाल उठ रहे हैं

अभिनव कुमार। कर्नाटक में हिजाब से संबंधित विवाद के सामने आने के बाद अधिकांश लोगों के मन में अनेक सवाल उठ रहे हैं। इन तमाम सवालों के माध्यम से हम कर्नाटक में हो रहे प्रदर्शन का संवैधानिक और नीतिगत पक्ष समझने का प्रयास करते हैं। हाल ही में कर्नाटक सरकार ने कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 की धारा 133 (2) को लागू किया है, जिसमें कहा गया है कि छात्रों को कालेज कमिटी या विश्वविद्यालय प्रशासनिक बोर्ड के द्वारा चुनी गई ड्रेस पहननी होगी। सरकार का मत है कि ऐसी ड्रेस को वर्जित किया जाना चाहिए जिससे कानून व्यवस्था भंग होती हो और समानता और सत्यनिष्ठा को भी चोट पहुंचती हो। वैसे अब यह मसला अब कोर्ट के विचाराधीन है।

रेशम और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2022) के नाम पर यह केस कर्नाटक हाई कोर्ट में सूचीबद्ध है। दोनों पक्ष अपनी दलील दे रहे हैं। याचिकाकर्ता के वकील का कहना है कि हिजाब पहनने का अधिकार इस्लाम में एक धार्मिक प्रथा है, और राज्य को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। जबकि राज्य के महाधिवक्ता सरकार की तरफ से अपना पक्ष रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्यों को उचित प्रतिबंध लगाने के अधिकार का हवाला देते हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में धर्म को मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई है। लेकिन इसके आंरभ में ही लिखा हुआ है कि लोक-व्यवस्था तथा संविधान के भाग तीन के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए ही आपको ये अधिकार मिल सकते हैं। अब सवाल यह है कि क्या यह विवादित आदेश अनुच्छेद 25 के अंतर्गत माना जाएगा? क्या यह सरकारी आदेश लोक व्यवस्था के अंतर्गत भी माना जाएगा? अगर हां, तो संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत किस हद तक औचित्यपूर्ण माना जाएगा और सरकार के लोक व्यवस्था कायम रखने के अधिकार को न्याय संगत बनाएगा।
इस बारे में फातिमा तसनीम बनाम केरल राज्य (2018) केस महत्वपूर्ण है। दरअसल जस्टिस मुस्ताक ने एक निजी स्कूल में पढऩे वाली दो नाबालिग छात्राओं द्वारा निर्धारित ड्रेस कोड को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए कहा था कि याचिकाकर्ता संस्था के व्यापक अधिकार के खिलाफ अपने व्यक्तिगत अधिकारों को लागू करने की मांग नहीं कर सकते, जिसमें हेडस्कार्फ और साथ ही पूरी बाजू की शर्ट पहनने की इजाजत मांगी गई थी जो स्कूल के ड्रेस कोड के विरुद्ध था। कोर्ट ने सामूहिक हित को प्राथमिकता दी, न कि व्यक्तिगत हित को। सर्वोच्च न्यायालय ने भी आशा रंजन और अन्य बनाम बिहार सरकार (2017) के फैसले में संतुलन की बात को स्वीकार किया और कहा कि प्रतिस्पर्धी अधिकार की बात जब आती है तो सदैव व्यक्तिगत हित व्यापक जनहित के अनुरूप होना चाहिए।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हिजाब पहनना इस्लाम के अनिवार्य धार्मिक प्रथा का हिस्सा है या नहीं? इसके उत्तर पर ही कर्नाटक सरकार के कानून को न्यायोचित या असंवैधानिक करार दिया जा सकता है। आमना बिंत बशीर बनाम सीबीएसई (2016) में भी केरल हाई कोर्ट द्वारा हिजाब पहनने की प्रथा और उसे अनिवार्य इस्लामिक प्रथा मानने के मुद्दे पर विमर्श किया गया था। हालांकि कोर्ट ने सीबीएसई के पक्ष को ही माना था।
वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता का कहना है कि जैसे सिख को पगड़ी पहनने की अनुमति होती है, वैसे ही कालेज के यूनिफार्म में हिजाब पहनने की अनुमति उन बच्चों को दी जा जाए जो इसे पहनने के इच्छुक हों। अब देखना होगा कि कर्नाटक हाई कोर्ट इस विषय पर क्या फैसला देती है। क्या वह यह मान लेगी कि हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य प्रथा है? अगर नहीं, तो संवैधानिक अधिकारों के भाव को देखते हुए कालेज कमिटी या विश्वविद्यालय प्रशासनिक बोर्ड को क्या दिशानिर्देश जारी करती है ताकि शिक्षा व्यवस्था सुचारु रहने के साथ ही धार्मिक सद्भाव भी कायम रहे। (ये लेखक के निजी विचार हैं)
Rani Sahu

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