- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- पश्चिम बंगाल: विधान...
x
पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादे के मुताबिक राज्य में विधान परिषद के गठन का प्रस्ताव विधानसभा में भले पारित कर लिया हो, उनकी आगे की राह आसान नहीं है। इस मामले में सबसे बड़ी बाधा राज्यपाल जगदीप धनखड़ और केंद्र की बीजेपी सरकार है। इससे पहले भी कई बार तृणमूल कांग्रेस सरकार ने राज्य का नाम बदलने का प्रस्ताव सदन में पारित कर केंद्र को भेज चुकी है। लेकिन केंद्र सरकार ने किसी न किसी बहाने इस मामले को टालती रही है। मौजूदा प्रस्ताव का भी वही हश्र होने की आशंका जताई जा रही है।
क्यों हो रहा है प्रस्ताव का विरोध
बंगाल बीजेपी शुरू से ही मुख्यमंत्री के इस प्रस्ताव का विरोध करती रही है। पार्टी की दलील है कि विधान परिषद का गठन सार्वजनिक धन की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है। उसका आरोप है कि तृणमूल कांग्रेस इसके जरिए अपने कई नेताओं को खपाना चाहती है। इसके अलावा खुद ममता बनर्जी भी चुनाव हार चुकी हैं। ऐसे में परिषद के गठन की स्थिति में उनको चुनाव नहीं लड़ना होगा।
हालांकि पार्टी के इस दावे में इतना दम नहीं है। इसकी वजह यह है कि ममता के पास सदन की सदस्यता के लिए अब चार महीने से भी कम समय बचा है और केंद्र और राज्य के बीच छत्तीस के आंकड़े को ध्यान में रखते हुए इतनी जल्दी परिषद के गठन के प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने की कोई संभावना नहीं है।
संसदीय कार्य मंत्री पार्थ चटर्जी की ओर से सदन में पेश इस प्रस्ताव पर मतदान में सदन में मौजूद 265 सदस्यों में से 196 ने इसका समर्थन किया और 69 ने विरोध। प्रस्ताव का विरोध करते हुए बीजेपी सदस्यों का कहना था कि तृणमूल कांग्रेस पिछले दरवाजे की राजनीति करना चाहती है ताकि विधानसभा चुनावों में हारने के बावजूद नेता भी सदन में पहुंच सकें। उसकी दलील है कि इस फैसले से राज्य के राजस्व पर दबाव बढ़ेगा। बंगाल पहले से ही भारी आर्थिक तंगी से जूझ रहा है। बीजेपी के सुर में सुर मिलाते हुए आईएसएफ के एकमात्र विधायक नौशाद सिद्दीकी ने भी प्रस्ताव का विरोध किया है।
क्या है राज्य की स्थिति
राज्य में विधानसभा की 294 सीटें हैं। विधान परिषद में सदस्यों की तादाद विधानसभा के सदस्यों से एक तिहाई से अधिक नहीं हो सकती है। ऐसे में इसलिए बंगाल में विधान परिषद में 98 सदस्य हो सकते हैं। विधानसभा ने प्रस्ताव जरूर पारित कर दिया है। लेकिन अब इसे राज्यसभा और लोकसभा में पारित कराना और राष्ट्रपति की मंजूरी लेना ममता के लिए कठिन चुनौती है।
वैसे, पश्चिम बंगाल देश के उन शुरुआती राज्यों में शामिल है जहां विधान परिषद का गठन किया गया था। लेकिन वर्ष 1969 में तत्कालीन राज्य सरकार ने एक प्रस्ताव पारित कर इसे खत्म कर दिया था।
दरअसल, 1967 में राज्य विधानसभा चुनाव कराए गए थे। उसमें कांग्रेस को पहली बार हार का सामना करना पड़ा था और 14 पार्टियों का गठबंधन यूनाइटेड फ्रंट यानी संयुक्त मोर्चा सत्ता में आया था। लेकिन महज आठ महीने बाद ही राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी सरकार को बर्खास्त कर दिया।
उसके बाद निर्दलीय विधायक प्रफुल्ल चंद्र घोष कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने। लेकिन उसके बाद दोनों सदनों में कई दिलचस्प घटनाएं देखने को मिलीं। विधानसभा में जहां अध्यक्ष ने राज्यपाल के कदम को असंवैधानिक करार दिया,वहीं कांग्रेस के बहुमत वाली विधान परिषद ने घोष सरकार के प्रति आस्था जताते हुए प्रस्ताव पारित कर दिया। हालांकि वह सरकार महज 90 दिन में ही गिर गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
वर्ष 1969 में हुए विधानसभा चुनाव में एक बार फिर संयुक्त मोर्चा सरकार ही सत्ता में आई। मोर्चा ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में विधान परिषद को खत्म करने की बात कही थी। संयुक्त मोर्चा सरकार ने विधान परिषद को खत्म करने का बिल विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत से पास करा लिया। राज्य विधानसभा में बिल पास होने के चार महीने बाद संसद के दोनों सदनों ने भी इसे हरी झंडी दिखा दी और उसके साथ ही राज्य में विधान परिषद का अस्तित्व खत्म हो गया।
पश्चिम बंगाल की राह कितनी मुश्किल है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। असम विधानसभा ने वर्ष 2010 में और राजस्थान विधानसभा ने 2012 में राज्य में विधान परिषद बनाए जाने का बिल पास किया था। लेकिन इन दोनों राज्यों के विधेयक अभी भी राज्यसभा में लंबित हैं।
फिलहाल देश के छह राज्यों--बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में ऊपरी सदन या विधान परिषद है। इनमें से तीन राज्यों---उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विधान परिषद के सदस्य हैं।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद बीजेपी और उसकी अगुवाई वाली केंद्र सरकार जिस तरह बंगाल से जुड़े तमाम मुद्दों को नाक का सवाल बनाती रही है, उसमें इस प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने के आसार फिलहाल नजर नहीं आ रहे हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Next Story