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West Bengal Assembly Elections 2021
आदर्श तिवारी। बंगाल विधानसभा चुनावों के बीच कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जो लोकतांत्रिक मूल्यों को चोट पहुंचाने के साथ ही तृणमूल की हताशा को भी प्रदर्शित करती हैं। हिंसा लोकतंत्र में जायज नहीं है, इस लाइन को हम दोहराते आए हैं। दुर्भाग्य से बंगाल में कोई चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से नहीं होता है। यह क्रूर सत्य होने के साथ हमारे लोकतंत्र की विफलता का एक भद्दा उदाहरण भी है। राजनीतिक हिंसा के साथ-साथ आज कई ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जिनका विश्लेषण करने पर हम ऐसे परिणाम तक पहुंचने का प्रयास करेंगे, जो तथ्य और सत्य के करीब हो।
बंगाल में चुनाव के समय हिंसा मतदाताओं को वोट डालने से रोकती है। हमें इसके एक बारीक पक्ष को समझना पड़ेगा। यह हिंसा वोटिंग रोकने के लिए तो होती ही है, पर इसका असल मकसद एक खास वर्ग के मतदाताओं को मतदान करने से रोकना होता है। लोकतंत्र में पंचायत का चुनाव हो, विधानसभा का या लोकसभा का हो, इसे हम लोकतांत्रिक पर्व के रूप में मनाते हैं। इस पर्व को सबसे ज्यादा वीभत्स बनाने का काम तृणमूल ने किया है। हमें बंगाल के 2018 के पंचायत चुनाव से इसको समझना होगा। आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में पंचायत की 58,692 में से 20,076 सीटों पर बिना चुनाव हुए ही विजेता घोषित कर दिया गया था।
राज्य चुनाव आयोग ने अपने आंकड़ों में यह स्वीकार किया था कि 34 फीसद से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारों को निíवरोध चुना जा चुका है। तृणमूल के आतंक से प्रत्याशी नामांकन करने का भी साहस नहीं जुटा पाए थे। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कुछ ऐसे ही दृश्य देखने को मिले थे। तो क्या बंगाल में शांतिपूर्ण चुनाव कराने में चुनाव आयोग विफल रहा है? तमाम घटनाओं के आधार पर ऐसा माना जा सकता है कि ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।
वैसे चुनाव आयोग बंगाल में शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए विशेष प्रयास करता रहा है। गत लोकसभा चुनाव में केंद्रीय सुरक्षा बलों की संख्या को बढ़ाने का निर्णय हो या समय से पहले चुनाव प्रचार खत्म करने का, इसके बावजूद आयोग को पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई। राज्य के अधिकारियों के असहयोगात्मक रवैये के साथ प्रशासन का राजनीतिकरण इसकी बड़ी वजह मानी जा सकती है। ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को भंग करने का निरंतर प्रयास किया। उन्होंने एक बार भी राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति पर कुछ नहीं कहा, राज्य में हो रही हिंसात्मक घटनाओं पर अपनी पार्टी की भूमिका को लेकर भी ममता मौन रही हैं।
इस चुनाव में तो ममता बनर्जी ने सभी मर्यादाओं को भंग कर दिया है। उन्होंने अल्पसंख्यक समाज के लोगों को एकजुट होकर तृणमूल के पक्ष में वोट डालने की अपील की है। केंद्रीय सुरक्षा बलों को वह एक राजनीतिक दल के साथ शुरू से जोड़ती आई हैं। यहां तक कि अब वह सुरक्षा बलों को 'घेरने' की बात करती हैं, नतीजन आयोग ने उन पर 24 घंटे की पाबंदी लगा दी। हताश मुख्यमंत्री चुनाव आयोग पर हमला जारी रखते हुए नाटकीय अंदाज में धरने पर बैठ गईं।
तृणमूल ने आयोग के इस फैसले को लोकतंत्र के लिए काला दिन बता दिया, लेकिन क्या यह अच्छा नहीं होता कि ममता इस तरह के बयानों से बचतीं? क्या यह सही नहीं होता कि वह सुरक्षा बलों को राजनीति से अलग रखतीं। वर्तमान चुनावों में तो यह भी महसूस किया जा रहा है कि ममता बनर्जी केंद्रीय सुरक्षा बलों को अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में देख रही हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक एवं संघीय ढांचे वाले देश में एक मुख्यमंत्री का इस तरह लोकतंत्र एवं स्वायत्त संस्थाओं के लिए चुनौती बनना निश्चित रूप से चिंताजनक है।
[स्वतंत्र टिप्पणीकार]
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