सम्पादकीय

जैविक खेती के प्रसार में कमजोर प्रयास

Subhi
13 Aug 2022 4:36 AM GMT
जैविक खेती के प्रसार में कमजोर प्रयास
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वर्तमान परिवेश में घरेलू और विश्व उपभोक्ता की जैविक कृषि उत्पाद में रुचि बढ़ रही है। देश का युवा किसान भी जैविक खेती के लिए उत्साहित है। मगर उन्हें उचित सलाह, प्रशिक्षण और देश-विदेश के जैविक बाजार से जुड़ने का कोई विश्वसनीय मंच नहीं मिल पा रहा है।

विनोद के शाह; वर्तमान परिवेश में घरेलू और विश्व उपभोक्ता की जैविक कृषि उत्पाद में रुचि बढ़ रही है। देश का युवा किसान भी जैविक खेती के लिए उत्साहित है। मगर उन्हें उचित सलाह, प्रशिक्षण और देश-विदेश के जैविक बाजार से जुड़ने का कोई विश्वसनीय मंच नहीं मिल पा रहा है।

यही कारण है कि भारत उत्पादन और विश्व बाजार में अपने जैविक कृषि उत्पाद के विक्रय प्रदर्शन में कमतर साबित हो रहा है। सरकार लगातार देश के किसानों को 'जीरो बजट' खेती अपनाने की सलाह दे रही है। मगर केंद्रीय कृषि बजट में कंजूसी और उपलब्ध संसाधनों में कटौती भी की जा रही है। राज्य सरकारों की भी जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए स्पष्ट नीति नहीं है।

मध्यप्रदेश के जबलपुर स्थित राष्ट्रीय जैविक और प्राकृतिक खेती केंद्र, जो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के किसानों को जैविक प्रशिक्षण देता और जैविक उर्वरकों तथा उत्पादों की गुणवत्ता जांच करता था, उसे स्थानांतरित कर महाराष्ट्र के नागपुर राष्ट्रीय केंद्र में स्थापित किया गया। हरियाणा के पंचकूला में स्थापित केंद्र को गाजियाबाद में, बिहार के पटना में संचालित केंद्र को भुवनेश्वर और गुजरात के गांधीनगर केंद्र, जो गुजरात सहित गोवा, लक्षद्वीप, दमन-दीव, दादरा नगर हवेली तक के किसानों और कृषि कर्मचारियों को जैविक प्रशिक्षण दे रहा था, उसे हटा कर अब दूरस्थ उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर में स्थानांतरित कर दिया गया है। इससे अब इन राज्यों के किसानों के समक्ष जैविक प्रशिक्षण, जैविक बाजारों की उपलब्धता के साथ जैविक उर्वरकों की विश्वसनीयता जांचने पर प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है।

गुजरात सरकार ने पांच बरसों में डांग आदिवासी जिले की तिरपन हजार हैक्टेयर खेतिहर भूमि को पूर्णतया जैविक खेती में तब्दील करने का संकल्प लिया था, जिसमें राष्ट्रीय जैविक और प्राकृतिक खेती केंद्र महत्त्वपूर्ण सहयोगी की भूमिका में था। आदिवासी समाज को जैविक खेती का प्रशिक्षण देने के साथ जिले की सभी रासायनिक उर्वरक दुकानों पर तालाबंदी की योजना भी उक्त केंद्र का हिस्सा थी। मगर अब उस केंद्र को राज्य के बाहर भेजे जाने से चालू योजना के क्रियान्वन में विलंब होगा।

बिहार स्थित राष्ट्रीय जैविक एवं प्राकृतिक खेती केंद्र राज्य के बारह जिलों को जैविक कारीडोर के रूप में विकसित करने, किसानों के जैविक उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने का काम कर रहा था। मगर राज्य सरकार की बेरुखी के कारण इसे ओडीशा के भुवनेश्वर में स्थानांतरित कर दिया गया है। उक्त केंद्रों के स्थनांतरण से राज्यों की जैविक कृषि के लिए संकट पैदा हो गया है।

देश का बत्तीस लाख हैक्टेयर कृषि भूभाग, जो कि राजस्थान, गुजरात और हरियाणा का हिस्सा है, उसमें औसत वर्षा मात्र चार सौ मिमी के लगभग है। इन क्षेत्रों में टिकाऊ खेती का एकमात्र विकल्प जैविक और प्राकृतिक खेती है, जो रासायनिक खेती के मुकाबले गुणवत्ता के साथ अच्छा उत्पादन दे सकती है।

इसमें जीरा, ग्वार, ईसबगोल, अजवाइन के उत्पादन की संभावनाएं तलाशी गई हैं। इन उत्पादों की देशी और विदेशी बाजार में मांग भी है। इस क्षेत्र का किसान भी जैविक उत्पादन के लिए पहल कर रहा है। मगर केंद्र सहित राज्य सरकारों के प्रयास इस दिशा में बहुत शिथिल हैं।

छत्तीसगढ़ में जैविक खेती के नाम पर गोमूत्र और गाय का गोबर खरीदने का काम राज्य सरकार कर रही है। इसके बजाय किसानों को जैविक उर्वरक उत्पादन का प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। जैविक उर्वरक का उत्पादन और बिक्रय किसानों की आय बढ़ाने वाला संसाधन हो सकता है। इसके क्रियान्वयन में गति लाने के लिए राज्य और केंद्र सरकार के त्वरित प्रयासों की आवश्यकता है।

देश में जैविक खेती की बहुत अनुकूल स्थिति है, मगर संसाधन और सहयोग के अभाव में किसान अंतत: रासायनिक खेती का रुख कर रहे हैं। किसान पशुओं का खेती में उपयोग करने के बजाय उन्हें लावारिश सडकों पर छोड़ रहे हैं। पालतू पशुओं पर होने वाले खर्च को वे आमदनी में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। फसल अवशेष जैविक उर्वरक तैयार करने का सबसे सस्ता, मुफ्त साधन है, मगर इसके इस्तेमाल में भी किसानों के पास प्रशिक्षण का अभाव है।

इसलिए वह इन अपशिष्टों को आग लगा कर नष्ट करना ज्यादा पसंद करता है। इसके लिए सरकारों को अनुदान आधारित ऋण उपलब्ध कराने होंगे। फसल अपशिष्टों को जैविक खाद में बदल कर किसान उर्वरक पर खर्च होने वाली मुद्रा की न केवल बचत कर सकता है, बल्कि राष्ट्र की सब्सिडी पर खर्च होने वाली मुद्रा को भी बचा सकता है।

देश की कुल जैविक खेती में अकेले मध्यप्रदेश का हिस्सा पैंतीस फीसद से अधिक है। 2020 के उपलब्ध आंकड़े के अनुसार मप्र के लगभग एक लाख साठ हजार हैक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही है। इसमें औषधीय उत्पादन के रकबे को जोड़ दिया जाए तो यह लगभग तीन लाख हैक्टेयर हो जाता है। प्रदेश में लगभग सात लाख किसान जैविक खेती का प्रशिक्षण लेकर उत्पादन की कोशिश कर रहे हैं। मगर देश में जैव उत्पाद का सुव्यवसित बाजार न होने से राज्य के इन युवाओं का जैविक खेती के प्रति जोश कमजोर पड़ने लगा है।

भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचेम) की एक रिर्पोट के अनुसार मप्र में जैविक खेती की बहुत अधिक संभावनाएं हैं। प्रदेश की पैंतालीस फीसद कृषि भूमि जैविक खेती के लिए पूरी तरह उपयुक्त है, जिसके माध्यम से तेईस हजार करोड़ की जैविक संपदा र्निमित की जा सकती है।

वहीं छह लाख नए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं। 2020 में अकेले मप्र से पांच लाख छह सौ छत्तीस मीट्रिक टन जैविक सामग्री दूसरे देशों को निर्यात कर राज्य ने 2683 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा अर्जित की थी। अब जबकि अरब देशों से जैविक उर्वरकों की मांग निरंतर बढ़ रही है, राज्य सरकार जैविक खेती के लिए जमीनी प्रयास में कमजोर साबित हो रही है।

जैविक उत्पादों की मांग मिट्टी के जीवांश से स्वाद और गुणवत्ता के आधार पर तय होती है। स्थानीय स्तर पर देश के प्रत्येक जिले की मिट्टी में जीवांश भिन्नता है, जो उत्पादन क्षमता और गुणवत्ता को प्रभावित करती है। केंद्र सरकार ने एक जिला एक उत्पाद योजना चलाई है, मगर राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन की अरुचि के कारण यह योजना किसानों तक नहीं पहुंच पा रही है।

आज विश्व बाजार सहित देश के घरेलू बाजार का शिक्षित तबका जैविक उत्पाद का उपभोग करना चाहता है, लेकिन वास्तविक उत्पादक किसान और जैविक उत्पाद में रुचि रखने वाले ग्राहक के बीच कोई संपर्क सूत्र नहीं है। वहीं, किसानों के पास अपने उत्पाद की प्रामाणिकता का कोई सबूत भी नहीं है।

सर्वाधिक जैविक खेती का रकबा होने के बावजूद जैविक उत्पादन में देश विश्व में नौवें स्थान पर है। निर्यात हिस्सेदारी मात्र 0.55 फीसद है। जैविक खेती के विकास के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के व्यवहार में समरूपता लानी होगी, तभी देश में जैविक खेती की आमदनीपूर्ण क्रांति की शुरुआत हो पाएगी।


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