- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- हम भी बदल गए क्रिकेट...

प्रियदर्शन, वैसे फ़ुरसत भरे दिन हमारे जीवन में उसके पहले या बाद कभी नहीं आए थे. हमने दसवीं की परीक्षाएं दी थीं और नतीजों का इंतज़ार कर रहे थे. उन दिनों हम क्रिकेट देखा नहीं, सुना करते थे. भारत के गांव-क़स्बे, शहर टेस्ट क्रिकेट की सुस्त-सोती चाल के बीच घरों में, बाज़ारों में, नुक्कड़ों में, सैलूनों में, पान-दुकानों में कान पर ट्रांजिस्टर चिपकाए खड़े लोगों के अकथनीय रोमांच से भरे होते थे. अब लगता है, वह किस बात का रोमांच था? सत्तर-अस्सी के उन दशकों में ज़्यादातर टेस्ट मैच ड्रॉ में ख़त्म होते थे. पांच दिन कमेंटरी सुनने वाले भी नहीं जानते थे कि स्लिप, फारवर्ड शॉर्ट लेग और गली का क्या मतलब होता है और स्वीप, पुल और स्क्वेयर कट में क्या अंतर होता है. शायद वह एक अलग तरह का अशरीरी-आध्यात्मिक प्रेम था जिसे क्रिकेट ने आम तौर पर प्रेम से महरूम हिंदुस्तानी समाज के भीतर पैदा किया था.
