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अनादिकाल से भारत की यह पहचान कभी नहीं बदली कि यह सर्वग्राह्य विविधतामय लोगों की आपसी सहिष्णुता को मानने वाले लोगों को मिला कर बना हुआ देश है।
आदित्य चोपड़ा| अनादिकाल से भारत की यह पहचान कभी नहीं बदली कि यह सर्वग्राह्य विविधतामय लोगों की आपसी सहिष्णुता को मानने वाले लोगों को मिला कर बना हुआ देश है। चूंकि कोई भी देश उसमें रहने वाले लोगों से ही बनता है अतः इसकी सीमाएं उस संस्कृति की संवाहक होती हैं जो इसके लोगों की होती है। इन लोगों की अपनी समस्याएं और सामाजिक जटिताएं होती हैं और साथ ही आर्थिक समस्याएं होती हैं। विश्व भर में विभिन्न देशों के लोग अपने-अपने विकास को सुनिश्चित करने के लिए अलग- अलग प्रकार की शासन व्यवस्था चुनते हैं। इन सभी व्यवस्थाओं में लोकतन्त्र को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली इसलिए माना गया क्योंकि इसमें साधारण से साधारण नागरिक की शासन प्रणाली में सीधे हिस्सेदारी नियत की जाती है।
हम भारत के लोगों ने आजाद होने पर गांधी बाबा नेतृत्व में इस प्रणाली को चुन कर तय किया कि भारत में सरकार का मतलब समाज के सबसे गरीब आदमी का उत्थान और विकास इस प्रकार होगा कि समूची लोकतान्त्रिक प्रणाली हर कदम पर उसे सहारा देती नजर आये । इसी वजह से गांधी बाबा ने आजादी से पहले ही स्वतन्त्रता सेनानियों को आगाह किया था कि लोकतन्त्र का मतलब वह सरकार होती है जो अपने लोगों की शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य व अन्य दैनिक जरूरतों को मुहैया कराने में सत्ता के अधिकारों का प्रयोग करती है। जो सरकार एेसा नहीं कर पाये वह सरकार नहीं बल्कि अराजक तत्वों का जमघट होती है। परन्तु यह भी सत्य है कि किसी भी देश में उसे लोगों की हर समस्या समाधान कोई भी सरकार नहीं कर सकती है। विश्व के जितने भी देश हैं उन सभी में कोई न कोई समस्या जरूर रहती है। भारत में भी आजादी के बाद से अभी तक जितनी भी सरकारें गठित हुई हैं सभी ने गांधी बाबा के सिद्धान्त के अनुसार लोगों की समस्याएं निपटाने के प्रयास किये हैं मगर समस्याएं अभी तक बनी हुई हैं।
लोकतन्त्र में इन समस्याओं को उजागर करने की एक संविधान सम्मत स्थापित प्रणाली होती है और प्रत्येक नागरिक के पास सरकार के किसी भी कदम या फैसले का विरोध करने का अधिकार भी होता है। इसी अधिकार का विस्तार मत भिन्नता या असहमति के सिद्धान्त के रूप में होता है। इसी पर चलते हुए भारत के लोगों के बल पर पिछले 74 वर्षों में जो प्रगति व विकास हुआ है उसका श्रेय सिर्फ इसके लोगों को ही दिया जा सकता है क्योंकि उन्होंने बुद्धि बल का प्रयोग करते हुए जिन सरकारों को चुना उनका ध्यान नागरिकों के विकास पर ही रहा जिससे समूचे देश का विकास हुआ। इस विकास में लोकतान्त्रिक संस्थानों की विशिष्ट भूमिका रही जिनमें संसद सर्वप्रमुख रही। संसद के माध्यम से ही पिछले 74 सालों में भारत बदला और विकास पथ पर अग्रसर हुआ वरना जब यह देश आजाद हुआ था तो 98 प्रतिशत लोग खेती पर ही निर्भर करते थे और जनता का पेट भरने वाला किसान स्वयं भूखा ही सो जाता था। परन्तु समय बदला और समस्याओं का स्वरूप बदला। औद्योगीकरण ने देश का काया कल्प किया जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों का प्रमुख योगदान रहा। लेकिन बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर आ जाने के बाद हमारे आर्थिक मानक बदलने लगे और हम निजीकरण की तरफ बढ़ चले। इसने उस पूंजीवादी प्रणाली को स्थापित किया जिसमें विकास की धुरी पूंजी की चारों तरफ घूमती है। इसके अच्छे और बुरे दोनों ही परिणाम हमारे सामने आये।
मनमोहन सिंह सरकार के 2004 से 2014 के समय में 27 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर आये मगर इसके समानान्तर बाद में यह भी हुआ कि देश की सकल सम्पत्ति के बहुत बड़े भाग पर केवल तीन प्रतिशत लोगों का ही कब्जा हो गया। अब आने वाली सरकारों को इस समस्या से जूझना होगा। इसी प्रकार महंगाई को लेकर आजकल जो तूफान मचा हुआ है उसके भी कई पहलू हैं। महंगाई की समस्या सीधे मुद्रा अर्थात रुपये की क्रय शक्ति से जुड़ी होती है। इसके साथ ही घरेलू उत्पादन से भी इसका सीधा सम्बन्ध होता है। नेहरू काल से लेकर अब तक यदि पेय क्रय शक्ति का मूल्यांकन किया तो चौंकाने वाले आंकड़े ही सामने आयेंगे और नई पीढ़ी को आश्चर्य से दांतों तले अंगुली दबानी होगी कि कभी उनके देश में ही गेहूं से लेकर चावल व तेल तथा देशी घी चन्द रुपये के भाव से बिका करते थे। अन्दाजा लगा लीजिये कि 1961 में सोना मात्र 86 रुपए तोले था जबकि आज 50 हजार रुपए तोले के आसपास है। इसका मूल कारण यह था कि 1947 में भारत जब आजाद हुआ तो एक रुपये की कीमत एक ब्रिटिश पौंड के बराबर थी। मगर लोकतन्त्र में कुछ समस्याएं तब भी खड़ी हो जाती हैं जब राजनीतिक दल वोट बैंक की खातिर नीतियों का निर्माण करने पर आमादा हो जाते हैं। इससे लोककल्याण का लोकतन्त्र का ध्येय नष्ट हो जाता है और समाज में संघर्ष की स्थिति बनने लगती है।
लोकतन्त्र में इस स्थिति के न बनने के लिए व्यापक उपचार मौजूद रहते हैं। जिनका प्रयोग करके सरकारें अपना ध्येय लोककल्याण पर ही केन्द्रित रखती हैं। इसके लिए संसद का उपयोग बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसमें लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि बैठ कर लोगों की समस्याओं की समीक्षा करते हैं। यह समीक्षा सत्ता व विपक्ष के जरिये इस प्रकार होती है कि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाये। इसी वजह से लोकतन्त्र में संसद का मुख्य कार्य बहस करके स्वग्राही नतीजे तक पहुंचना होता है। इस प्रणाली के तहत सरकारें बदलती रहती हैं मगर लोगों की बदलती समस्याओं का हल निकालने का तरीका नहीं बदलता क्योंकि उसमें सीधे लोगों की शिरकत होती है। अतः बहुत जरूरी है। सत्ता व विपक्ष इस मुद्दे पर बैठ कर आपस में बातचीत करते रहें। संसद केवल एक माध्यम है। हम भारत के लोग इसी व्यवस्था के अभ्यस्त हैं।
Triveni
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