सम्पादकीय

हम ही हैं 'सरकार'

Gulabi Jagat
11 Aug 2022 4:33 AM GMT
हम ही हैं सरकार
x
बिहार
By: divyahimachal
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर पाला बदल लिया है। भाजपा से गठबंधन तोड़ कर वह फिर लालू के राजद से चिपक गए हैं। आठवीं बार मुख्यमंत्री भी बन गए हैं। भारतीय लोकतंत्र में वह सबसे मौकापरस्त, सत्ता-पिपासु, विचारहीन नेता करार दिए जा सकते हैं। वह एक बार फिर 'सामाजिक न्याय' का शोर मचाने लगे हैं। उनके जनता दल-यू को आज तक चुनावी बहुमत नहीं मिला, लेकिन 2000 के बाद वह आठवीं बार मुख्यमंत्री जरूर बने हैं। जनादेश का बहुमत राजद या भाजपा के पक्ष में हो, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश ही होंगे! यदि केंद्रीय मंत्री बनाने की बात हो, तो दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भी पहली पसंद नीतीश ही थे। वह 2005 से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन राज्य विकास और सम्पन्नता का खंडहर है। नीतीश पहले भी अल्पमत के मुख्यमंत्री थे और लालू-तेजस्वी के साथ गठबंधन में भी वह अल्पमत के मुख्यमंत्री ही रहेंगे, लेकिन कुछ भी हो, बिहार की 'सरकार' नीतीश ही रहेंगे! अब राजद, कांग्रेस, वामपंथी दलों के साथ फिर गठबंधन हुआ है, तो नीतीश को 'समावेशी मुख्यमंत्री' माना जा रहा है। भाजपा के साथ जद-यू का पुराना गठबंधन रहा, तो कमोबेश नीतीश कुमार को 'सांप्रदायिक या भगवावादी मुख्यमंत्री' कभी नहीं आंका गया। कमाल है भई ! बेशक वह ईमानदार होंगे, परिवारवाद से मुक्त होंगे और सुशासन बाबू भी उन्हें माना गया होगा, लेकिन अब छवियों के ये लबादे फट चुके हैं। अब ऐसे मुखौटे उतार दिए गए हैं। लोगों को नीतीश स्वीकार्य नहीं, बल्कि उनके प्रति गहरा मोहभंग महसूस किया जा सकता है।
यह 2020 के विधानसभा चुनावों के जनादेश से ही स्पष्ट है। कृपा रही प्रधानमंत्री मोदी की, जिनके प्रति जनता में अब भी स्वीकार्यता है, उनके साथ गठबंधन ने नीतीश की नैया भी कुछ पार लगा दी और 45 विधायक जीत कर आ सके। अब नीतीश भाजपा से अलग होते हुए जनादेश और सरकार के भीतरी समीकरणों पर कुछ भी कह लें, उन्होंने जनादेश को धोखा दिया है। यह उनकी पुरानी राजनीतिक आदत है। अब खासकर युवाओं में नीतीश के खिलाफ आक्रोश और गुस्सा है, क्योंकि किसी भी स्तर पर उनकी सरकार युवाओं को फायदा नहीं पहुंचा पाई है। रोजग़ार और नौकरी बुनियादी तौर पर राज्य के विषय हैं। यदि बिहारी लोगों को अपने राज्य के बाहर रिक्शा चलाने, मजदूरी करने, खेतिहर मजदूर बनने के मौके न मिलते, तो न जाने उनकी आर्थिक दुर्दशा क्या होती! नीति आयोग की हालिया रपट है कि बिहार के 51 फीसदी से ज्यादा लोग गरीब या गरीबी-रेखा के तले हैं। खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य और कुपोषण के संदर्भ में बिहार की स्थिति दयनीय और निम्न स्तर की है। हमने कोरोना-काल में बिहार के अस्पतालों में डॉक्टर, दवाइयां, उपकरण, ऑक्सीजन आदि तो गायब देखे, लेकिन सूअर, कुत्ते जरूर विचरण करते हुए दिखे। अब नीतीश सरकार कोरोना संक्रमण के कुछ भी आंकड़े परोसती रहे, लेकिन नंगा यथार्थ तो देश ने देखा है। बिहार में बाढ़ हर साल आती है। नदियों की स्थिति को दोष दिया जा सकता है।
बाढ़ में लोगों के घर, दुकानें 'मिट्टी' होती रही हैं। खेत-खलिहान और फसलें बर्बाद हो जाती हैं। इनसानों और मवेशियों की मौतें भी होती रही हैं, लेकिन नीतीश सरकार बाढ़ की त्रासदी को कम करने के बंदोबस्त नहीं कर पाई है। ऐसी ढेरों विसंगतियां हैं, जो बिहार के साथ चिपकी हैं। इनके बावजूद नीतीश को 'सुशासन बाबू' का तमगा दिया जाता रहा है, तो शेष भारत और केंद्र सरकार भी क्या कर सकती है? नीतीश बिहार की गरीबी, दुर्दशा, विसंगतियों से तो लड़ नहीं पाए, लेकिन उन्हें 'महान राजनेता' जरूर आंका जाता रहा है, क्योंकि बिहार के राजनीतिक समीकरण ही ऐसे हैं। भाजपा के साथ गठबंधन तोडऩे के जो कारण और तर्क नीतीश तथा उनके प्रवक्ता बता रहे हैं, वे खोखले हैं। 2017 में जब नीतीश राजद से अलग हुए थे, तो उन्होंने भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर लालू परिवार को कटघरे में खड़ा किया था। क्या आज वे सवाल और मामले खत्म हो गए? क्या लालू और उनके बच्चों की सवालिया संपदाएं 'श्वेत और वैध' हो गईं? बेशक बिहार में भाजपा अकेली रह गई है, लेकिन वह अपनी ठोस ज़मीन तैयार कर चुकी है। कमोबेश भाजपा को तुरंत घोषणा करनी चाहिए कि अब भविष्य में नीतीश के साथ गठबंधन नहीं किया जाएगा। नीतीश को लालू परिवार की राजनीति का मोहताज बना दिया जाए, ताकि उन्हें किसी भी मोड़ पर महसूस हो सके कि वह 'सदैव सरकार' नहीं हैं। यदि नीतीश 2024 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनने के स्वप्न देख रहे हैं, तो उसका विश्लेषण अलग से किया जाएगा। फिलहाल नीतीश की राजनीति का कुछ जायजा लिया है।
Next Story