सम्पादकीय

फकत भीड़ हैं हम!

Rani Sahu
22 Jun 2022 7:09 PM GMT
फकत भीड़ हैं हम!
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रेलगाडि़यां रोकी जा रही हैं, जलाई जा रही हैं, सड़कें जाम की जा रही हैं

रेलगाडि़यां रोकी जा रही हैं, जलाई जा रही हैं, सड़कें जाम की जा रही हैं, संपत्तियां फूंकी जा रही हैं, बलवा हो रहा है। किसका नुकसान है यह? किसे लाभ है इसमें? नुकसान हम सबका है, लाभ कुछ गिने-चुने नेताओं को मिलेगा। अग्निवीर के नाम पर फैली आग ने देश को जकड़ रखा है। एक भीड़ है जो अग्निवीर योजना का समर्थन कर रही है। तरह-तरह के तर्क दे रही है। एक और भीड़ है जो इस योजना का विरोध कर रही है, मज़ाक उड़ा रही है। देश भीड़ों में बंट गया है। जो अलग हैं, जो सिर्फ सोच रहे हैं, जो किसी हाईकमान का पिट्ठू नहीं हैं, वे अकेले हैं, उनकी संख्या कितनी भी हो, पर वे अकेले हैं। योजना का समर्थन करने वाले भी उनको कोसते हैं और विरोध करने वाले भी। कोई नेता देश के विकास के लिए कोई नई बात कहता है, कोई अच्छी बात कहता है और कुछ करके दिखाता है तो उसका समर्थन बढ़ता है, पीछे लगी भीड़ बढ़ती है। इससे नेता का गुरूर बढ़ता है, वह जान जाता है कि उसकी बातें पसंद की जाने लगी हैं, लोग उससे प्रभावित हो रहे हैं। फिर अगर वह नेता किसी अनजान जगह पर चला जाए, जहां लोग उसे पहचानते न हों तो उसे बड़ा अटपटा लगता है। उसकी नजरें ऐसे लोगों को खोजने लगती हैं जो उसे पहचानते हों। उसे भीड़ की आदत पड़ जाती है। भीड़ उसकी भूख बन जाती है। परिणाम यह होता है कि नेता भीड़ को 'पटाने' में व्यस्त हो जाता है। उसे हर हाल में भीड़ चाहिए, बड़ी भीड़ चाहिए। नेता का अपना नज़रिया होता है, नया नज़रिया होता है, इसीलिए वह नेता है, लेकिन भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है।

नेता अगर भीड़ के मनोविज्ञान को न समझ पायें तो नेतागिरी जा सकती है। नेतागिरी बचाये रखने के लिए नेता को भीड़ का मनोविज्ञान समझकर तय करना पड़ता है कि भीड़ क्या सुनना और देखना चाहती है, अन्यथा जनता उसे कूड़ेदान में डाल देती है। यही वह स्थिति है जब नेता का रिमोट जनता के नहीं, भीड़ के हाथ में चला जाता है। भीड़ को साथ लेकर चलने वाला नेता खुद बहुत कमजोर होता है, लेकिन भीड़ को संभाल सकने वाला यही नेता बहुत शक्तिशाली भी होता है। इस विरोधाभासी तथ्य को समझना आवश्यक है। भीड़ नहीं तो नेता नहीं, यह नेता की कमजोरी है। इसलिए वह सच-झूठ-फरेब सब मिलाकर बातें करता है ताकि भीड़ को अपने साथ लगाए रख सके। भीड़ के समर्थन के लिए उसे भीड़ को उकसाये रखना पड़ता है, डराए रखना पड़ता है ताकि भीड़ उसे अपना मसीहा मानती रहे। ऐसा नेता खुद में कमजोर होने के बावजूद बहुत शक्तिशाली भी होता है क्योंकि वह जनता को उकसा सकता है, बलवा करवा सकता है। भीड़ अपने नेता को अड़चनें दूर करने वाला मसीहा मानने लगती है और उससे असहमत होने वालों को देशद्रोही। ऐसे में लोग जनतंत्र की बहुत सी स्थापित परंपराओं को गैरजरूरी मानने लगते हैं। उनके लिए अदालत, संविधान और कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता। भीड़ का यह मिज़ाज लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देता है। बहुत से बुद्धिजीवी स्वार्थवश भीड़तंत्र का समर्थन करने लगते हैं क्योंकि नेता की नज़दीकी फायदेमंद होती है, जबकि आम लोग अपने नेता को मसीहा मानकर उसकी हर सही-गलत बात का समर्थन करते हैं, उसका संदेश फैलाते हैं और उसके झूठ को भी सच साबित करने लगते हैं, उसकी गलतियों की सफाई में नए-नए तर्क गढ़ लेते हैं या फिर गढ़े गए तर्कों को सही मानने लगते हैं। भीड़ का अपना नशा है। भीड़ आपको महत्वूपर्ण बनाती है, वीआईपी बनाती है। भीड़ न हो तो आप वीओपी, वेरी आर्डिनरी पर्सन, बनकर रह जाते हैं।
भीड़ का यही नशा आपसे वह सही-गलत सब करवा लेता है। सभी नेता इसी मर्ज के मरीज हैं। वे अपने मन का कुछ नहीं कहते, वे वह कहते हैं जो भीड़ सुनना चाहती है, वह करते हैं जो भीड़ उनसे करवाना चाहती है। भीड़ के लक्ष्य अलग हो सकते हैं, लड़ने का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन भीड़ का चरित्र एक-सा होता है। वह अच्छे दिनों के सपने देखना चाहती है, नारे लगाना चाहती है, तालियां बजाना चाहती है और उत्साह में नाचना चाहती है। इसलिए नेता को मजमेबाज होना पड़ता है। फिर मजमा जमाने के लिए झूठ क्या और सच क्या? भीड़तंत्र की मानसिकता से संचालित नेता खुद भी शतरंज का मोहरा बन कर रह जाता है। भीड़तंत्र का यह गणित ही लोकतंत्र को झूठतंत्र में बदल देता है। सत्ता में आने पर नेताओं के लिए अपने वायदों को भूल जाना इसलिए आसान है क्योंकि जनता भी तालियां बजाने के बाद सब कुछ भूल जाती है। भीड़ की शक्ति होती है, चुनाव के बाद भीड़ बिखर जाती है और लोग अकेले रह जाते हैं। भीड़ के भाड़ में तो नेता भी अकेला चना होता है, फिर आम आदमी की तो बिसात ही क्या? भीड़ की शक्ति के बिना किसी अकेले आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। शिक्षा महंगी है, इलाज महंगा है, न्याय महंगा है, जीवन महंगा है, आदमी सस्ता है, मौत सस्ती है। हमारा संविधान कानूनों का जंगल है, राजनीतिक दल और वकील इसका लाभ लेते हैं। हमारा संविधान राजनीतिक दलों को बहुत सी अनुचित सुविधाएं देता है, नौकरशाही को असीमित अधिकार देता है, जवाबदेही से बचने की पतली गलियां उपलब्ध करवाता है और हम इस संविधान को समझे बिना संविधान के गुण गाते हैं। समस्या यह है कि हममें से कोई भी समस्या को समझना ही नहीं चाहता, गहरे जाना ही नहीं चाहता।
भावनाओं के वश होकर किसी का समर्थन या विरोध करना हमारे चरित्र का हिस्सा हो गया है। हम भीड़ की मानसिकता में जी रहे हैं। धर्म के नाम पर तलवार भांजने वाली, हर असहमत व्यक्ति को देशद्रोही करार दे देने वाली, आईटी सैल के हर झूठे-सच्चे तर्क को आगे ठेल देने वाली भीड़ एक तरफ है तो मानसिक गुलामी में जी रही एक और भीड़ है जो हर भ्रष्टाचार की उपेक्षा करती रही है और अब भी किसी एक परिवार या कुछ परिवारों में ही भारत का भविष्य देखती है। दोनों तरफ भीड़ है। दोनों तरफ की भीड़ इतनी बड़ी और इतनी मुखर है कि इनसे असहमत व्यक्ति कहीं का नहीं है। झूठ और सच का ऐसा घालमेल, कल्पना की उड़ान इतनी ऊंची कि कई बार तो आपको अपने ही विवेक पर शक होने लगता है। हमारे संविधान की कुछ खास कमियों का नतीजा यह है कि संसद और विधानसभाओं में सार्थक बहस की गुंजायश खत्म हो गई है। अब पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं ने ऐसा रवैया अपना लिया है कि समाज में भी सार्थक बहस की गुंजायश खत्म हो गई है। लोग मरने-मारने पर उतारू हैं। किसी असहमत व्यक्ति का सार्वजनिक अपमान कर देना, असभ्य शब्द बोल देना, चरित्र पर उंगलियां उठाना, धमकियां देना शुरू कर देना इतना आम हो गया है कि लगता है कुछ बोलो ही नहीं। संवैधानिक संस्थाओं और मीडिया ही नहीं, आम जनता पर भी अघोषित तलवार है। नेताओं ने हमें भीड़ बना दिया है और हम लोकतंत्र में नहीं, भीड़तंत्र में जीवित हैं। क्या हम इस स्थिति को बदल पाएंगे? अभी कहना मुश्किल है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेलः [email protected]
सोर्स- divyahimachal


Rani Sahu

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