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- हम जले-भुने भारतीय

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जलना-भूनना दरअसल हम भारतीयों का सबसे बड़ा करिश्मा है। हम जीवन में आधे से ज्यादा काम इसलिए कर लेते हैं, ताकि सामने वाला बुरी तरह जल-भुन जाए। कई बार तो दूसरे का जलना-भुनना ही हमारी तरक्की का कारण बन जाता है। अब घर में पैदा हुए नशेड़ी या शराबी को ही देखें कि वह हर दिन परिवार को जलने-भुनने के साथ-साथ राज्य सरकारों को सबसे बड़ी आमदनी भी तो दे देता है। अब तो हर चुनाव भी किसी न किसी पक्ष को जलता-भुनता छोडक़र देश की हाथों-हाथ तरक्की कर देता है। जलने-भुनने की क्योंकि कोई गंध नहीं होती, इसलिए मतदाता बेचारा देश की तरक्की के लिए हर चुनाव को इत्र मान लेता है। दरअसल दूसरे को जलता-भुनता देखना भी एक कला है।
भुनाने और भुन जाने में भी यही अंतर है कि भुनाने वाला औरों को भून कर भी यह पता नहीं चलने देता कि वह कितना लाल कर चुका है। हम अक्सर जो नहीं होते, वो दिखाई इसलिए देते हैं ताकि सामने वाला जला-भुना रहे। अब तो हम किसी को तोहफा देकर भी जला-भुना कर सकते हैं। जलना-भुनना यूं तो डिप्लोमैटिक है, लेकिन इसके पीछे भी कई दुर्ग व किले हैं। हवाई महल हैं। जमीन है, जमीर है। डिग्रियां है, उपलब्धियां हैं। कारगुजारियां है, तैयारियां हैं। परीक्षाएं हैं, प्रतीक्षाएं हैं। आप चाहें तो किसी के सामने ठंडी से ठंडी आह भर कर उसे जला-भुना सकते हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या भारतीयों का जलना-भुनना स्वाभाविक प्रक्रिया है या हमने अपना समाज या देश ऐसा बना लिया कि आदतन जले-भुने से दिखाई दें। अब तो किसी की तारीफ, किसी के ओहदे या किसी के पौधे पर जल-भुन सकते हैं। किसी की बिंदिया या किसी की निंदिया पर, किसी के सुकून, किसी की पतलून पर, किसी की गाड़ी या किसी की साड़ी पर जल-भुन सकते हैं। देश तरक्की कर रहा है, लेकिन जले-भुने लोगों को इत्मीनान नहीं। ये जो लोग सरकारें बदल देते हैं, दरअसल जले-भुने मतदाता वही होते हैं। अब तो हम विधानसभाओं या संसदीय सदनों में लगातार देखने लगे हैं कि कभी सत्ता के कारण विपक्ष या कभी विपक्ष के कारण सत्ता पक्ष जल-भुन रहा होता है।
हमारे जैसे आम आदमी को अगर जलने-भुनने से बचना है तो यह कदापि न सोचें कि कांग्रेस का स्थायी तौर पर राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा या विपक्षी दलों की एकता कब तक होगी। आज ही प्रण लें कि टीवी पर न्यूज चैनल की डिबेट नहीं देखेंगे, वरना आपको जलाने व भुनाने की हर अदा में इतना ज्ञान हो जाएगा कि खुद के जलने पर भी अंदेशा नहीं होगा। वैसे सबसे अधिक जलाने-भुनाने के लिए टीआरपी को समझना होगा। हर चैनल टीआरपी के कारण जलने-भुनने का सौदा करने लगा है। अब तो हर बंदा खुद में टीआरपी देखने लगा है, यानी जिसे समाज और देश में चलना है, उसके लिए ऐसा सूचकांक जरूरी होने लगा है। इसलिए नेता लोग एक पार्टी से जीतकर दूसरी पर सवार होते हैं, ताकि सत्ता का काम भी जलाने-भुनाने का हो जाए। भारत में जले-भुने लोगों के कारण ही सरकारें बनती और वर्षों चलती हैं। जले-भुने लोगों में भी एक खास तरह की ऊर्जा है और इसीलिए ये सीधे काम को उलटी निगाह से पूरा होते देखना चाहते हैं। हम वाकई इतना जल-भुन गए हैं कि अब महंगाई और बेरोजगारी की बढ़ती दर या पेट्रोल के बढ़ते दाम हमें क्या जला पाएंगे। हम देश की विरासत में निरंतर जले-भुने होने का फख्र बढ़ा पाए, तो एक दिन सारा विश्व देखेगा कि इस करामात से भी राष्ट्र के विश्व गुरु बनने की क्षमता बढ़ सकती है। तब देखना भारत को देख-देख कर कितने देश जल-भुन जाएंगे।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal

Rani Sahu
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