सम्पादकीय

हमें भी चाहिए एक कवच

Rani Sahu
27 April 2022 7:01 PM
हमें भी चाहिए एक कवच
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लगता है देश में आजकल हर व्यक्ति अपने लिए एक कवच की तलाश कर रहा है

लगता है देश में आजकल हर व्यक्ति अपने लिए एक कवच की तलाश कर रहा है। भई, यह कैसा संग्राम है जिसमें रणबांकुरों को बिना उचित अस्त्र-शस्त्र, बिना किसी कवच-कुंडल के उतार दिया गया? अब बताइए, हमें लड़ाई तो लड़नी है, चाहे अपनी भूख से लडि़ए, चाहे अपनी रोज़ी के लिए लडि़ए या फिर कम्बख्त इस बेचेहरा रोग से लडि़ए, जो पिछले छह महीनों से देश के कोने-कोने को अपने दूत के भयावह परिणामों से प्रकम्पित कर रहा है। अब लोगों को कह दिया है कि भई इस महामारी की कोई दवा तो है नहीं। बड़े-बड़े दिग्गज, विद्वान इसकी दवा की खोज में लगे हैं। 'मिल जाएगी, मिल जाएगी' का शोर उठता है, फिर दिलासा मिलता है, 'भई ज़रूर मिलेगी, लेकिन अभी चार महीनों के बाद। दवा के जानवरों पर प्रयोग हो रहे हैं, आप जैसे आदमियों की बारी बाद में आएगी।' प्रतीक्षारत आदमी सोचता है। भई, यह प्रयोग क्या हम पर शुरू नहीं किया जा सकता था। जानवरों की बारी बाद में आ जाती। इस देश में शेवरलेट गाड़ी से उतरती मेमसाब की गोद के टॉमी के साथ हमारा क्या मुकाबला? टीका लगाने के लिए उसकी नस्ल के प्राणियों को क्यों कष्ट देने लगे?

हम हैं तो सही, यह भार झेलने के लिए, लेकिन जांचकर्ता विज्ञानी खिझला कर बोले, 'जो तरीका है, उसी का अनुसरण होगा। भूखे, प्यासे और बेकार हो गए करोड़ों लोगों अगर तुम जानवरों से बदतर हो, तो यह तुम्हारा भाग्य। यह भाग्य इतनी सदियों से नहीं बदला, अब क्या बदलेगा। इसलिए बेहतर है कि अपने आपको टीके के परीक्षण के लिए पेश करने की जगह अपनी रक्षा स्वयं करो। अपना कवच स्वयं तलाश करो।' 'क्या है वह कवच, बंधु?' हमने पूछा। 'अजी मुंह पर मास्क लगाइए, हाथों पर दस्ताने चढ़ाइए और यह हमारे सिर पर क्यों चढ़े आ रहे हो? ज़रा छह फुट के अंतर से बात कीजिए।' हम भरभरा कर पीछे हट गए। बड़े आदमियों, अफसरों, नेताओं से दुरदुरा दिए जाने की हमें आदत हो गई थी, लेकिन यह दस्ताना और मास्क क्या?' 'बाज़ार में जाओ। पचास, सौ रुपए में मिल जाएगा, खरीद लो।' संदेश मिला।
'हुज़ूर लगी लगाई नौकरी छूट गई। जेब में ज़हर खाने के लिए पैसे नहीं। इसे कैसे खरीदेंगे? कहीं से मुफ्त दिलवा दीजिए।' 'अरे तो कोई गमछा ओढ़ लो। यहां मुफ्त तो रोटी-दाल की उम्मीद भी न रखना। इसे राशन कार्ड और मनरेगा वाले ले उड़े। आपको नहीं मिली तो जांच करवाएंगे, कि इन लोगों के कार्ड जाली हैं, या प्रामाणिक। साब, यूं ही होता है, आदमी अपना प्रामाणिक प्रमाण पत्र टटोलता रह जाता है और जाली आदमी, सिफारिशी, अपना आदमी या बीच का आदमी होने की दुहाई देकर सब ले उड़ता है। हमने अपने आसपास देखा, बहुत से लोग रियायती राशन की बंद दुकानों पर सिर पटक कर खाली यूं ही जा रहे थे। अब अपना फटा गमछा मुंह पर लपेट रहे थे। चौक पर खड़े भारी भरकम काया वाले वर्दीधारी उनसे संतुष्ट नहीं हुए। उनका कवच अधूरा बता रहे हैं, चालान की धमकी दे रहे हैं। सदा ऐसे ही होता है बरखुरदार। राह चलते एक बड़े बूढ़े ने हमारी निराशा देख कर हमें समझाया कि इन कुर्सीधारियों से क्या उम्मीद रखते हो? बेहतर है, अपना कवच खुद ही तलाश लो। शायद तुम्हारे हिस्से के कवच तो इन्होंने अपने बंधु-बांधवों में बांट दिए हैं। हमें उनकी बात समझ में आ गई। राशन की इन बंद दुकानों की तरह जिनके जनता द्वार बंद रहते हैं और चोर गलियों में खुलते इनके पिछवाड़े की खिड़की सदा खुली रहती है। हमारे कवच कुंडल अपने लोगों में बांट देने के लिए। लीजिए अब पूरी राहत सामग्री तो बंट गई और अपने राज्य के भाग्य नियंताओं का बयान है कि जितनी राहत सामग्री आई थी, उसका तीस प्रतिशत भी नहीं बंटा, क्योंकि दिशा निर्देश स्पष्ट नहीं थे। यही कहानी अधबनी सड़कें, निर्माण के बीच में ठिठके हुए पुल और अजन्मे ही मृत हो गई योजनाएं कहती हैं।
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.com


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