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- हमें भी चाहिए एक कवच
लगता है देश में आजकल हर व्यक्ति अपने लिए एक कवच की तलाश कर रहा है। भई, यह कैसा संग्राम है जिसमें रणबांकुरों को बिना उचित अस्त्र-शस्त्र, बिना किसी कवच-कुंडल के उतार दिया गया? अब बताइए, हमें लड़ाई तो लड़नी है, चाहे अपनी भूख से लडि़ए, चाहे अपनी रोज़ी के लिए लडि़ए या फिर कम्बख्त इस बेचेहरा रोग से लडि़ए, जो पिछले छह महीनों से देश के कोने-कोने को अपने दूत के भयावह परिणामों से प्रकम्पित कर रहा है। अब लोगों को कह दिया है कि भई इस महामारी की कोई दवा तो है नहीं। बड़े-बड़े दिग्गज, विद्वान इसकी दवा की खोज में लगे हैं। 'मिल जाएगी, मिल जाएगी' का शोर उठता है, फिर दिलासा मिलता है, 'भई ज़रूर मिलेगी, लेकिन अभी चार महीनों के बाद। दवा के जानवरों पर प्रयोग हो रहे हैं, आप जैसे आदमियों की बारी बाद में आएगी।' प्रतीक्षारत आदमी सोचता है। भई, यह प्रयोग क्या हम पर शुरू नहीं किया जा सकता था। जानवरों की बारी बाद में आ जाती। इस देश में शेवरलेट गाड़ी से उतरती मेमसाब की गोद के टॉमी के साथ हमारा क्या मुकाबला? टीका लगाने के लिए उसकी नस्ल के प्राणियों को क्यों कष्ट देने लगे?