सम्पादकीय

हिंदू-मुस्लिम संबंधों में सुधार की राह, भ्रामक दावों का खंडन कर वस्तुस्थिति के मुद्दे पर हो बात

Rani Sahu
6 Oct 2022 6:29 PM GMT
हिंदू-मुस्लिम संबंधों में सुधार की राह, भ्रामक दावों का खंडन कर वस्तुस्थिति के मुद्दे पर हो बात
x
सोर्स - Jagran News
विकास सारस्वत : विजयदशमी के अवसर पर नागपुर में अपने संबोधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक ओर जहां यह कहा कि अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों के साथ संवाद जारी रहेगा, वहीं यह भी कहा कि अल्पसंख्यकों को कहीं कोई खतरा नहीं है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ समय पहले मुस्लिम समाज के पांच प्रमुख लोगों ने उनसे मुलाकात के समय यह कहा था कि मुसलमान खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इस मुलाकात को लेकर अब तक चर्चा जारी है। संघ मूलतः एक सामाजिक संगठन है और जितनी मात्रा में राजनीति समाज को प्रभावित कर सकती है, वह राजनीति में उतनी ही रुचि रखता है। वह राजनीतिक पैंतरेबाजी से कतई दूर रहता है।
संघ की दिशा बहुत सोच-विचार कर और दीर्घकालिक स्वरूप के तहत बनती है। वह जो भी कार्य अपने लिए निश्चित करता है, उसमें उसका पूरा विश्वास होता है। कुछ समय से भागवत के बयान और संघ की रीति-नीति यही जताती है कि संघ हिंदू-मुस्लिम संबंधों में सुधार के लिए प्रयासरत है। इसी के तहत गत वर्ष सितंबर में भागवत ने मुंबई में मुस्लिम हस्तियों से मुलाकात की थी। इससे पहले सितंबर 2019 में भी उन्होंने जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना सैयद अरशद मदनी से बात की थी। मुलाकातों का यह क्रम और संघ प्रमुख द्वारा हिंदू और मुसलमानों की समान आनुवंशिकी पर बार-बार बल दिखाता है कि संघ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के प्रति पूरी तरह गंभीर है।
यदि अगले दलाई लामा पर चीन का नियंत्रण होगा तो इससे भारत की सुरक्षा अखंडता के लिए जोखिम बढ़ जाएंगे।
तिब्बत पर फिर आक्रामक होता चीन, भारत की सुरक्षा और अखंडता के लिए बढ़ता जोखिम
यह भी पढ़ें
किसी भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संवाद बने रहना न सिर्फ स्वस्थ तंत्र का परिचायक है, बल्कि भ्रम और भ्रांतियों को समाप्त करने का सभ्य तरीका भी है, परंतु सार्थक संवाद के लिए आवश्यक है कि वार्ता वास्तविकता और तथ्यों पर आधारित हो। मुस्लिम समाज के पांच लोगों के साथ अपने संवाद में जहां सरसंघचालक ने गोहत्या और काफिर शब्दावली के उपयोग पर अपनी आपत्ति जताई, वहीं मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने अपने समुदाय के भय के साये में रहने की बात कही। पहले भी मुस्लिम बुद्धिजीवी सरसंघचालक से माब लिंचिंग और अपने समाज के कथित तौर पर भयभीत होने की शिकायत करते रहे हैं। मुस्लिम पक्ष द्वारा झूठा भय प्रसार ही सबसे बड़ी समस्या है।
'मोदीराज में भयाक्रांत मुस्लिम' वह कथानक है, जो तथ्यों के सर्वथा विपरीत है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो को मजहबी आधार पर आंकड़े प्रकाशित करने की अनुमति नहीं है, परंतु समाचारों के सरसरी तौर पर अवलोकन करने से पता चलता है कि अंतर्मतीय अपराधों का रुख लगभग एकतरफा है। अवयस्क युवतियों के अपहरण, दुष्कर्म, हत्या और शादी के बाद पति के मजहब को स्वीकार न करने के चलते उत्पीड़न और हत्या ऐसे अंतर्मतीय अपराध हैं, जिनमें शत प्रतिशत अपराधी समुदाय विशेष से और पीड़ित बहुसंख्यक समुदाय से मिलते हैं। इसके अलावा हिंदू शोभायात्राओं पर हमले, मूर्तिभंजन, हिंदू देवी-देवताओं पर अपमानजनक टिप्पणियां आए दिन की बात हो गई है। हर हिंदू पर्व पर कहीं न कहीं व्यवधान और हिंसा की खबर आती है।
देश के सुदूर कोनों में ही नहीं, बल्कि राजधानी दिल्ली में भी छोटी-छोटी बात पर हिंदुओं की हत्या रोजमर्रा की बात हो गई है। हाल में गुस्ताखी के नाम पर देश भर में उग्र प्रदर्शन और करीब आधा दर्जन हत्याएं देखने को मिलीं। कई जिलों में मुस्लिम आबादी बढ़ने पर विद्यालयों में प्रार्थना बदल देना और शुक्रवार को अवकाश घोषित करने की खबरें भी सामने आईं। इतनी आक्रामकता के बावजूद यदि मुस्लिम बुद्धिजीवी मुसलमानों को ही पीड़ित सिद्ध करने पर तुले हुए हैं तो यह बौद्धिक बेईमानी है। इस स्थिति में हिंदू पक्ष दोहरी मार झेलने को विवश है। एक तो वह पीड़ित होने के बावजूद कठघरे में खड़ा है। दूसरी तरफ सरकार भी हिंदू उत्पीड़न को स्वीकार करने में इसलिए संकोच करती है, क्योंकि ऐसा करने से उसकी हिंदू हितरक्षक छवि पर आंच आती है। ऐसी जटिल परिस्थितियों में यदि एक पक्ष मिथ्या प्रचार को अपनी बातचीत का आधार बनाए और दूसरा पक्ष पूरा सच कहने में अचकचाए तो यह विचारणीय है कि इन प्रयासों का परिणाम क्या होगा?
यदि समाधान का विचार छोड़ केवल बातचीत के लिए ही बातचीत होनी है तो यह चिंताजनक है। उसमें सच-झूठ का महत्व खत्म हो जाता है। सौ वर्षों की राजनीति पर नजर डालें तो मुस्लिम राजनेताओं द्वारा इसी दुराग्रह के सहारे आक्रामक होते हुए भी उत्पीड़ित बने रहने की राजनीति सफलतापूर्वक खेली जाती रही है। देश भर में हिंदुओं पर हो रही हिंसा को नजरअंदाज कर महज संवाद के लिए संवाद जारी रहता है तो हम स्वतंत्रता पूर्व से पहले के हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर पहुंच रहे हैं।
कहने का आशय यह नहीं कि दोबारा विभाजन जैसी आशंका बनती दिखती है, परंतु जिस तरह शांति स्थापना और भाईचारे के पीछे दौड़ती कांग्रेस हठी मुस्लिम लीग की अनुचित मांगों के आगे लगातार झुकती गई, उसने देश और समाज का कैसा अहित किया, वह सबने देखा। संघ का जन्म इसी विकार से लड़ने के लिए हुआ। उसे संवाद जारी रखते हुए गांधीजी के तौर-तरीकों का अनुसरण करने से बचना होगा। अल्पसंख्यक समुदायों और विशेष रूप से मुस्लिम समाज के लोगों से संवाद को तार्किक परिणति तक पहुंचाना है तो भ्रामक दावों का खंडन कर वस्तुस्थिति को बातचीत का मुद्दा बनाना होगा।
यह भ्रामक प्रचार के समुचित प्रतिकार न करने का ही नतीजा है कि आज ब्रिटेन तक में हिंदू मजहबी कट्टरपंथियों की हिंसा झेल रहा है। यह बोध रहना भी आवश्यक है कि मुस्लिम व्यक्तित्व और इस्लामी कट्टरता दो अलग चीज हैं। हर पंथ-मजहब में अच्छे-बुरे लोग हो सकते हैं, परंतु इस्लामी कट्टरता ईश्वरत्व पर एकाधिकार, मजहबी श्रेष्ठता और विस्तारवाद के आग्रह पर दृढ़ है और वही समस्या की जड़ है। सरसंघचालक का व्यक्तित्व बड़ा है और उनका समाज के सभी वर्गों में सम्मान है, परंतु क्या उनके सदाशयी प्रयास इस्लाम की मूल प्रवृत्ति में बदलाव ला सकते हैं? यदि इस प्रश्न के उत्तर में शंका का भाव मिलता है तो संघ को संवाद की दिशा, प्रारूप और औचित्य पर पुनर्विचार करना चाहिए।
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story