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जल संकट को लेकर समय-समय पर अध्ययन होते रहते हैं और हर नया अध्ययन एक नई चिंता लेकर आता है। आइआइटी कानपुर द्वारा प्रकाशित ताजा रिपोर्ट में उत्तर-पश्चिम भारत के चार हजार से अधिक भूजल वाले कुओं के आंकड़े जुटाए गए हैं, जिनमें खासकर पंजाब और हरियाणा में तेजी से घटते भूजल स्तर का खुलासा हुआ है। हालांकि पंजाब और हरियाणा में गिरते भूजल स्तर को लेकर काफी समय से चिंता जताई जा रही है, इसे रोकने के लिए वहां की सरकारों ने कुछ नीतिगत कदम भी उठाए, मगर उसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं आ सका।
भारत दुनिया का पहला ऐसा देश है, जहां सिंचाई, घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए सबसे अधिक भूजल का दोहन होता है। कुल भूजल दोहन का करीब नब्बे फीसद हिस्सा सिंचाई के लिए इस्तेमाल होता है। हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार सिंचाई के लिए भूजल का उपयोग करने वाले राज्यों में सबसे आगे हैं। हालांकि हर साल केंद्र और राज्य सरकारें सिंचाई के संसाधन विकसित करने और वर्षा जल संचय के लिए योजनाएं बनाती हैं, उसके लिए बजटीय प्रावधान भी किए जाते हैं, मगर लगातार नीचे खिसकता भूजल स्तर इस बात की गवाही है कि वे योजनाएं व्यावहारिक रूप नहीं ले पाई हैं।
पंजाब और हरियाणा में पिछले कुछ सालों से धान की दो फसलें लेने की प्रतियोगिता-सी देखी जाती है। इसके चलते पहली फसल बरसात से बहुत पहले लगा दी जाती है, जब देश में तेज गरमी और लू का मौसम होता है। उसमें धान की फसल को पानी की अधिक जरूरत होती है। चूंकि इन दोनों राज्यों में नहरों से सिंचाई का काम पूरा नहीं हो पाता, इसलिए किसान भूजल पर निर्भर हैं। धान की बेमौसम फसल लेने की होड़ में इन राज्यों में भूजल का दोहन भी अधिक होता है।
इसलिए पंजाब सरकार ने कई साल पहले किसानों से अनुरोध किया था कि वे बेमौसम धान की फसल न बोएं। उसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला तो धान की अगेती फसलें लेने वाले किसानों के खिलाफ जुर्माने का प्रावधान भी किया गया। इसी तरह हरियाणा सरकार ने मौसम से पहले फसल न उगाने वाले किसानों के लिए मुआवाजे की नीति घोषित की। मगर इन सबका कोई असर नहीं दिखा। अब चिंता की बात यह है कि इसी तरह भूजल स्तर घटता रहा, तो समाज के सामने बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
कृषि क्षेत्र में सिंचाई के लिए भूजल के दोहन पर रोक लगाने का बड़ा उपाय यही है कि नहरों का जाल बिछाया और नदियों के पानी का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। मगर नदियों में इतना पानी नहीं बचा कि उससे सिंचाई की जरूरत पूरी की जा सके। हकीकत यह है कि नदियों का ज्यादातर पानी औद्योगिक इकाइयां हड़प जाती हैं। फिर बचे हुए पानी से शहरों की पेयजल संबंधी जरूरतें पूरा करना भी सरकारों के लिए भारी पड़ता है। नदी जोड़ योजना सिरे नहीं चढ़ सकी। वर्षाजल संचय और रेन हार्वेस्टिंग को लेकर बने नियम-कायदे भी कामयाब नहीं हो सके हैं।
प्राकृतिक जल स्रोत लगातार सूखते गए हैं, तालाबों, बावड़ियों पर अतिक्रमण और उन्हें भर कर व्यावसायिक उपयोग पर रोक लगाने में प्रशासन विफल साबित होते हैं। ऐसे में किसानों और ग्रामीण, कस्बाई आबादी की भूजल पर निर्भरता बनी हुई है। मगर नीचे खिसते जल स्तर से पानी में मिले घातक रसायन स्वास्थ्य संबंधी नई परेशानियां तो पैदा कर ही रहे हैं, खेतों की उर्वरा शक्ति पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं।