सम्पादकीय

जल ही जीवन : कब समझेंगे पानी का मिजाज, क्यों हमारी बड़ी चिंता का हिस्सा नहीं है?

Neha Dani
22 March 2022 1:50 AM GMT
जल ही जीवन : कब समझेंगे पानी का मिजाज, क्यों हमारी बड़ी चिंता का हिस्सा नहीं है?
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जब आसमान से लेकर पाताल तक पानी के लिए हम तरस जाएंगे।

पृथ्वी में सबसे ज्यादा पानी ही है और पानी एक ऐसा बड़ा द्रव्य है, जो हमारे शरीर को पूरी तरह से नियंत्रण में रखता है। फिर भी पानी क्यों हमारी बड़ी चिंता का हिस्सा नहीं है? एक फ्रैंच कैमिस्ट ने महत्वपूर्ण बात कही थी कि, दुनिया में जितने भी तरल पदार्थ हैं उनमें सबसे ज्यादा पानी है और उसका अध्ययन भी सबसे ज्यादा हुआ है, लेकिन पानी के बारे में हमारी सभी द्रव्यों में सबसे कम समझ है।

हम पानी को लेकर चिंतित तो हैं, पर पानी के मिजाज को न समझ पाए। उसका बड़ा कारण है कि पानी के विज्ञान की हमारी समझ आज तक बेहतर नहीं हो पाई है। इस वर्ष जल दिवस में भूमिगत पानी को लेकर बात होनी है। और यह ऐसा पानी है, जो सीधे हमें दिखाई नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता, उसके प्रति समझ और भी कमजोर हो जाती है। यह भूमिगत जल के संदर्भ में भी सही है।
हमने लगातार कुछ सालों में सबसे ज्यादा शोषण भूमिगत पानी का ही किया है। अब वह चाहे उद्योग हो, किसानी हो या घर का पानी हो, यह चलन बन चुका है कि यदि पानी चाहिए, तो धरती को छेद दो। पिछले सालों में लगातार इसी कारण आज हम भूमिगत जल को लगभग एक ऐसे स्तर पर पहुंचा चुके हैं, जो खतरे के निशान को छू चुका है। अभी इसका सीधा प्रतिकूल असर नहीं दिखाई नहीं दे रहा है, क्योंकि किसी तरह से पानी हम तक पहुंच ही रहा है।
इसलिए हम अभी तक गंभीर नहीं हैं। एक अध्ययन के अनुसार, देश में 38 फीसदी कुओं के जल स्तर में कमी आई है और बाकी 62 प्रतिशत की स्थिति स्पष्ट नहीं है। आंकड़ों के अनुसार, 14,275 कुएं जिनका आकलन किया गया, उनमें पानी दो मीटर और नीचे चला गया। कुओं में घटते पानी का मतलब अब जहर की बारी है। अति शोषित कुओं में अन्य हानिकारक तत्वों की भरमार शुरू हो जाती है।
आज कई तरह की जलजनित बीमारियों के पीछे ये भी बड़ा कारण है। असल में जिस दर से भूमिगत पानी का दोहन होता है, उस दर से पानी की वापसी नहीं होती। लेकिन इसके पीछे बहुत बड़ा कारण हमारी रणनीति में वर्षा के जल को संग्रहित करने के लिए या फिर रिचार्जिंग की बड़ी पहल का अभाव है। हमारे देश में करीब चार अरब क्यूबिक मीटर पानी वर्षा के रूप में प्राप्त होता है, जिसमें से हम मात्र आठ प्रतिशत पानी को ही एकत्र करते हैं और बाकी का पानी सीधे समुद्र में कूड़े के साथ समा जाता है।
इस असंतुलन के पीछे सबसे बड़ा कारण तो यही है कि हम जितना पानी लेते हैं, उतना जोड़ते नहीं। जबकि प्रकृति का सीधा-सा नियम है- अगर भोगना है, तो जोड़ना भी है। अकेले उत्तर प्रदेश में पांच लाख तालाब थे, जो घटकर मात्र 24 हजार के करीब रह गए हैं। अमूमन ऐसी स्थिति सभी राज्यों की है। बड़े जलाशयों के अध्ययन से यह बात पता चली है कि उनमें से ज्यादातर में पानी की कमी आ चुकी है।
ऐसे में अब दो रास्ते बचे हैं- पहला, नए सिरे से पानी के उपयोग में नैतिकता बरती जानी चाहिए। हम पानी को हल्का और सस्ता मानते हैं और उसका दुरुपयोग करते हैं, उस पर सबसे पहले नियंत्रण लगना चाहिए और संभव हो तो इसे निश्चित रूप से कानून के दायरे में भी लाना चाहिए, क्योंकि ये एक ऐसी चीज (कॉमोडिटी) है, जो जीवन के लिए सबसे आवश्यक है।
दूसरी तरफ बड़ी आवश्यकता यह है कि चाहे कोई भी राज्य हो, सब पर एक कर्तव्य और दायित्व के रूप में उनका जल ऑडिट होना चाहिए कि वे कितना पानी भोगते और जोड़ते हैं। हमारे देश में कई ऐसे राज्य हैं, जहां वर्षा बहुत होती है, लेकिन पानी को जोड़ने का काम नगण्य है। हमारे जितने भी बड़े पानी चलित कार्य हैं, चाहे वह खेती-बाड़ी हो या उद्योग, इनको भी नियमों के दायरों में लाना होगा, ताकि पानी की वापसी भी संभव हो सके।
इसके अलावा देश के राज्यों के बीच में नदियों के पानी के बंटवारे का आधार राज्य विशेष के बारिश के पानी के संग्रह को लेकर होना चाहिए। यही समय है कि हम पानी को लेकर नए प्रयोगों व प्रयत्नों में जुट जाएं, वर्ना वह दिन दूर नहीं, जब आसमान से लेकर पाताल तक पानी के लिए हम तरस जाएंगे।

सोर्स: अमर उजाला

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