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लखीमपुर खीरी मामले में उत्तर प्रदेश सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं है। वह मामला शायद बहुत पहले रफा-दफा हो गया होता, अगर उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई न की होती।
लखीमपुर खीरी मामले में उत्तर प्रदेश सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं है। वह मामला शायद बहुत पहले रफा-दफा हो गया होता, अगर उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई न की होती। चूंकि इस मामले में एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का बेटा मुख्य आरोपी है, इसलिए वहां की पुलिस पर दबाव भी समझा जा सकता है। घटना के करीब आठ दिन बाद तक पुलिस मुख्य आरोपी को गिरफ्तार करने से बचती रही। तब भी सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त आदेश दिया, तो उसे हिरासत में लिया जा सका। पुलिस का वही रवैया मामले की जांच को लेकर भी है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय लगातार उसे फटकार लगाते हुए मामले की जांच में तेजी लाने का निर्देश देता रहा है, फिर भी पुलिस के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया। यही वजह है कि एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे कड़ी फटकार लगाई है। अब अदालत ने इस जांच प्रक्रिया पर सेवानिवृत्त न्यायाधीश की निगरानी रखने का प्रस्ताव रखा है। यह उत्तर प्रदेश सरकार को करारा तमाचा है। यानी यह उत्तर प्रदेश सरकार के लिए शर्मनाक स्थिति है कि सर्वोच्च न्यायालय को उसकी कानून-व्यवस्था पर भरोसा नहीं।
लखीमपुर खीरी मामले में आठ लोग मारे गए थे, जिनमें से शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हुए चार किसान और एक पत्रकार कार से कुचल कर मारे गए थे, तो तीन को कथित रूप से भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था। उस घटना के पीछे सोची-समझी रणनीति थी। फिर आरोपियों के भीतर इस बात का भी दंभ था कि पुलिस और राज्य सरकार उनके खिलाफ नहीं जा सकती। शुरू से ही पुलिस उस मामले पर परदा डालने का प्रयास करती रही।
इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया और उस मामले से जुड़े सभी साक्ष्यों को सुरक्षित रखने, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज करने का आदेश दिया था। मगर पुलिस ने कार से कुचलने और पीट-पीट कर मारे जाने संबंधी घटनाओं की अलग-अलग जांच करने के बजाय, एक में मिला कर जांच करनी शुरू कर दी। प्रत्यक्षदर्शियों में भी उसने उन्हीं लोगों के बयान दर्ज किए, जो पुलिस के मनमाफिक बयान दे सकते थे।
इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने पिछली बार फटकार लगाई थी कि वहां मौजूद हजारों लोगों में से कुछ ही के बयान दर्ज क्यों किए गए, तब कुछ प्रदर्शनकारी किसानों के भी बयान लिए गए। अब भी आरोपियों के फोन पुलिस ने अपनी गिरफ्त में नहीं लिए हैं। इस पर भी तीन जजों की पीठ ने नाराजगी जताते हुए कहा कि क्या पुलिस मुख्य आरोपी को बचाना चाहती है। इससे कठोर टिप्पणी पुलिस और सरकार के लिए भला क्या हो सकती है।
किसान आंदोलनकारियों की एक मांग लगातार बनी हुई है कि जब तक मुख्य आरोपी के पिता यानी गृह राज्यमंत्री अपने पद पर बने रहेंगे, तब तक इस मामले की निष्पक्ष जांच नहीं हो सकती। मगर केंद्र ने मंत्री को उनके पद पर बने रहने दिया है। फिर उत्तर प्रदेश में भी सरकार उसी पार्टी की है, जिस पार्टी से मंत्री का ताल्लुक है। मंत्री की दबंगई और गवाहों को डराने-धमकाने की शिकायतें भी लगातार मिलती रही हैं। ऐसे में लखीमपुर में निष्पक्ष जांच को लेकर स्वाभाविक ही सर्वोच्च न्यायालय का भरोसा नहीं बन पा रहा। यह बात पीठ ने स्पष्ट तौर पर कही भी और इसीलिए बाहरी किसी राज्य के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की निगरानी में जांच कराने का प्रस्ताव रखा है। यह केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की साख पर करारी चोट है।
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