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By: divyahimachal
क्या करें कोरोना जाते-जाते वापस लौटता है और जानी-पहचानी बीमारियां नये वायरस के साथ प्रकट हो जाती हैं। अब यहां इनके लिए उचित टीके या दवा की तलाश करना ऐसा ही है, जैसे किसी बबूल में से कांटे की जगह फूल को पा लेने जैसा है, या कि किसी बरखुरदार द्वारा अपने बुज़ुर्ग की सेवा का दम भरने जैसा। आजकल तो आप जानते हैं, सब ओर उल्टी गंगा बहने लगी है। मौसम को देख लो, जब गर्मी से आदमी का माथा घूमने लगे, तब घोर बरसात जम कर बरसती है। आदमी तो तीखी धूप की उम्मीद कर रहा था, अब कैसे कह दें, बरखा रानी जरा जम के बरसो, मेरा दिलबर जा न पाये, जरा झूम के बरसो। कौन कहता है भारत में अशिक्षा का बोलबाला है। यूं ही चलता रहा, तो देश की साक्षरता दर के रिकार्ड बनेंगे। बिल्कुल उसी तरह जैसे पिछले बरसों में हमने महामारी के प्रकोप के बावजूद लाकडाऊन नहीं लगाया, अधूरे लाकडाऊन से काम चलाया है और घोषणा कर दी है कि देश की विकास दर में कमी नहीं आयेगी।
भुखमरी बढ़ी तो अब हम क्या करें? भूखे नंगों का तो काम ही मास्क लगा कर नौकरी तलाशना है। भई लाख कहा था, नौकरी नहीं मिलती तो पकौड़े तल लो। लीजिये पकौड़े नहीं तलेंगे, और कोरोना के इन विकट दिनों में भी उन चन्द धनपतियों से ईष्र्या करेंगे, जिन्होंने मिट्टी को भी हाथ लगाया तो सोना हो गई। करोड़पति थे, जनता की जरूरत की चीजों को गायब करके काले बाजार में ये अरबपति हो गये। आप कहते हैं, इस अंधेरे काल में देश ने तरक्की नहीं की। जरा इनकी अट्टालिकाओं की ऊपर उठती मंजिलों की ओर देखो। यह अपनी हवेली की ऊपरी मंजिल से आवाज लगायें, तो एक की जगह दस दिलबर चली आए। तब बरखा रानी को बुलाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। आपका यह दिलबर इस हवेली में आ गया तो कभी वापस जाने का नाम नहीं लेगा। क्या आप नहीं जानते कि प्यार मोहब्बत के सर्वाधिकार इनकी महफिलों के नाम सुरक्षित हो गये हैं।
आपके लिए बाकी रह गया है महामारी का डर, इससे बचने के लिए मास्क लगाने के आदाब। बात करनी है तो दूर दो हाथ दूर रह कर बात करो। रोमांस के संवाद चिल्ला कर बोलने का अभ्यास कर लो, क्योंकि आजकल बात सामाजिक अंतर की होती है, सौंदर्य बोध की नहीं। आजकल लोग बबूल की छांव में सोने का अभ्यास कर रहे हैं, बरगदों की जगह हवेलियों का पिछवाड़ा उनके लिए हो गया है। लेकिन इतना समझाया, इसके बावजूद तुम्हारी तलाश खत्म नहीं हुई। ‘भला, बताओ इस लम्बी कतार में खड़े होकर किस दिलबर के प्रकट हो जाने का इंतजार कर रहे हो।’ जी नहीं, इंतजार दिलबर का नहीं, नई नई बीमारियों के वायरस निरोधी टीकों के लगाने का हो रहा है। किसी मौसमी बीमारी के टीके की पहली खुराक लगे, तो हम दिलबर से मुकाबला करने जायें। सुनने वाले हंस दिये। ‘मियां टीका न हुआ घातक वायरस का सामना करने की ताकत हो गया।’ लेकिन वायरस सामना और दिलबर से मुलाकात! भला क्या तुक भिड़ाया है? हमने कह दिया। लेकिन कहने, पूछने से क्या होता है? आजकल तो किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिलता। अब मुलाकात की हमारी शिद्दत देखी तो कह दिया। अब हर तरह के वायरस की डोज समय समय पर लगवाते रहना, अधिक महफूज रहोगे। हम टीका लगवा कर प्रेम करने के इस आदाब को समझ नहीं पाये, कि जैसे इस बात को भी नहीं समझे कि न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।
Rani Sahu
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