सम्पादकीय

क्या रामविलास शर्मा हिंदुत्व के समर्थक थे?

Gulabi
10 Oct 2021 3:47 PM GMT
क्या रामविलास शर्मा हिंदुत्व के समर्थक थे?
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आज हिंदी के प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक इतिहासकार भाषा विज्ञानी और विचारक रामविलास शर्मा की जयंती है।

आज हिंदी के प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक इतिहासकार भाषा विज्ञानी और विचारक रामविलास शर्मा की जयंती है। उनके निधन को दो दशक हो चुके और उनके जीवन काल में ही उनके विचारों सिद्धांतों की आलोचना होने लगी थी। उनके निधन के बाद नामवर सिंह ने उनपर "इतिहास की शव साधना" नामक लेख लिखकर रामविलास जी की तीखी आलोचना की थी जिसको लेकर काफी विवाद हुआ था।


आज कई दलित और अति वामपंथी लेखक रामविलास जी की काफी आलोचना करते हैं। उन्हें ब्राह्मणवादी बताते हैं और हिंदी जाति की उनकी अवधारणा को भी गलत मानते हैं तथा हिंदी नवजागरण की उनकी स्थापनाओं से सहमत नहीं हैं।

निराला और रामचन्द्र शुक्ल के बारे में उनकी बहुत से स्थापनाये भी उनको पूरी तरह मान्य नहीं। रामविलास शर्मा ने जीवन के अंतिम दिनों में" पाञ्चजन्य" पत्रिका को एक इंटरव्यू दिया था जिसके कारण वे बहुत विवाद में घिर गए थे। उन पर आरोप लगा कि वे" हिंदुत्व" की शरण में चले गए हैं।

उनके निधन के बाद संघ परिवार से जुड़े लोगों ने रामविलास जी पर दो दिन की संगोष्ठी भी आयोजित की थी। क्या इन घटनाओं के आधार पर हम रामविलास जी को दक्षिणपंथी मान लें, उन्हें ब्राह्मणवादी करार कर दें, उन्हें परम्परावादी स्वीकार कर लें?

यह उनके साथ अधिक ज्यादती होगी, अधिक सरलीकरण होगा। राम विलास जी ने कुल 112 किताबें लिखीं हैं। उन्होंने वेदों की प्रगतिशील व्याख्या करने अपनी परम्परा का मूल्यांकन करने से लेकर हिंदी नवजागरण, राष्ट्रवाद, भारत मे अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद भाषा समाजवाद विश्व पूंजीवाद आधुनिकता, उपनिवेशवाद साम्रज्यवाद, संस्कृति और गांधी लोहिया तथा अम्बेडकर आदि पर भी गम्भीरता से विचार विमर्श और अध्ययन किया है।

हिंदी में किसी लेखक ने शायद इतने प्रश्नों पर विचार नहीं किया। राहुल सांकृत्यायन के बाद वे दूसरे लेखक हैं जिनका विविध और विशद योगदान है। रामविलास जी का उनके जीवन काल में भी मतभेद रहा। राहुल यशपाल और अमृत राय के साथ उनके वैचारिक मतभेद जगजाहिर हैं।

रामविलास जी ने छायावाद की व्यख्याया भी मार्क्सवादी नज़रिए से की।प्रेमचन्द और महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा निराला के योगदान को स्थापित करने वाले वे पहले लेखक हैं।

रामविलास जी की सौ सेअधिक पुस्तकों को शायद ही किसी ने पूरा पढ़ा होगा। उनकी रचनावली आने वाली है लेकिन उनके पुत्र और रचनावली के दूसरे संपादक के डी शर्मा का निधन होने से इसका प्रकाशन फिलहाल खटाई में पड़ गया है लेकिन इस बीच साहित्य अकेडमी ने रामविलास जी का एक संचयन प्रकाशित किया है जिससे उनके सम्पूर्ण लेखन की एक झलक दिखाई पड़ सकती है।

492 पेज की इस किताब का सम्पादन डॉ हरिमोहन शर्मा ने किया है जो दिल्ली विश्विद्यालय में हिंदी के अध्यक्ष रहे हैं। इस किताब में रामविलास जी की कुछ कविताएं कुछ पत्र और उनकी आत्मकथा का अंश तथा विवेकानंद के एक लेख का अनुवाद भी शामिल है तथा निराला शमशेर मुक्तिबोध त्रिलोचन केदारनाथ अग्रवाल अमृत लाल नागर आदि पर लेख भी हैं। लेकिन उनके सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेख हिंदी जाति के सांस्कृतिक इतिहास की रूपरेखा, जातीय भाषा का गठन, पश्चिम की अस्वीकृति और भारतीय परंपरा संत साहित्य के अध्ययन की समस्याएं, तुलसी साहित्य के सामंतवादी मूल्य, हिंदी गद्य का विकास और भारतेन्दु काल है जिसे पढ़कर हिंदी साहित्य की वैचारिक बहसों को जाना जा सकता है। इतने विस्तृत ढंग से हिंदी के किसी आलोचक ने विचार नहीं किया।

किताब में बीस पेज की एक भूमिका भी है जिसमें रामविलास जी के विचारों और उनकी अवधारणाओं के बारे में सूत्र वाक्य दिए गए हैं। रामविलास जी सामंतवाद साम्राज्यवाद और पूंजी वाद के गहरे आलोचक हैं। वे भारतीय आधुनिकता भारतीय परंपरा के प्रगतिशील तत्त्वों को रेखांकित करते हैं। वे परम्परा को खारिज नहीं करते बल्कि उसका मूल्यांकन करते है।

वे तुलसी की युग सीमा भी बताते हैं पर अस्मिता विमर्श वादियों को खारिज नहीं करते। वे हिन्दू और मुस्लिम समाज दोनों में जाति प्रथा को मिटाने की बात करते हैं।

रामविलास शर्मा को समग्रता में देखा नहीं गया इससे उनके बारे में भ्रांति अधिक फैलाई गई और ऐसी छवि बनाई गई मानों वे ब्राह्मणवादी थे। उनका पाठ से अधिक कुपाठ किया गया। उनके लेखन की भी एक सीमा थी और कुछ अंतर्विरोध थे पर उनके बारे में सरलीकरण नही किया जा सकता।

उन्होंने जितना लिख दिया उतना दस लेखक भी मिलकर काम नहीं कर सकते। वे एक ऐसे पर्वत की तरह हैं जिनपर चढ़ना मुश्किल औऱ बिना चढ़े पर्वत की आलोचना करना संभव नहीं। रामविलास जी एक चुनौती की तरह हैं। अभी तक कोई उनकी अवधारणाओं के जवाब में ग्रंथ नहीं लिख सका है। उनके भक्त भी उनके लिखे की पूरी व्यख्याया नहीं कर पाएं हैं आलोचक तो दूर की बात।
क्रेडिट बाय लोकमत न्यूज
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