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- गरमी कर देगी बेहाल
भारतीय मौसम विभाग का इस वर्ष अधिक गरमी पड़ने का आकलन हैरान भले न करता हो, मगर चिंतित करने वाला जरूर है। पिछले साल भी भारी गरमी का रिकॉर्ड बना था, बल्कि 2020 को भारतीय रिकॉर्ड में आठवां सबसे गरम साल बताया गया था। विशेषज्ञ काफी पहले से हमें आगाह करते रहे हैं कि इस उपमहाद्वीप में बसंत का दौर छोटा होता जा रहा है और हम सीधे सर्दियों से गरमी में पहुंचने लगे हैं। जाहिर है, इन सबका असर पूरे जीवन-चक्र पर पड़ रहा है। सूचना है कि पिछले महीने तापमान बढ़ने के कारण पूर्वी ओडिशा से प्रवासी पक्षी वक्त से पहले ही लौट गए। जानकारों के मुताबिक, दीर्घकाल में फसलों की उत्पादकता भी इससे प्रभावित हो सकती है।
भारतीय मौसम विभाग ने इस बार अधिक गरमी पड़ने के पीछे जो तर्क दिए हैं, उसके मुताबिक, उत्तर भारत के मौसम का मिजाज पश्चिमी विक्षोभ से तय होता है। आम तौर पर फरवरी महीने में छह बार ये विक्षोभ आते हैं, लेकिन इस बार ऐसी एक ही स्थिति बन सकी। मौसम में हो रहे इस बदलाव को महसूस करने के लिए अब हम ऐसी सूचनाओं पर बहुत निर्भर नहीं हैं, क्योंकि बेमौसम बारिश, वर्षा-पैटर्न में तब्दीली, सर्दियों में ग्लेशियरों का टूटना और प्रलय के दृश्य साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं। हां!
मौसम विभाग के आकलनों का महत्व भविष्य की तैयारियों के लिहाज से काफी है। प्रशासनिक तंत्र को बगैर वक्त गंवाए इस दिशा में सक्रिय हो जाना चाहिए। यह बेहद स्वाभाविक है कि भीषण गरमी की स्थिति में न सिर्फ विद्युत आपूर्ति की मांग बढ़ेगी, बल्कि पानी की कमी के हालात से भी दो-चार होना पड़ सकता है। इसलिए एक सुविचारित योजना के लिए यही माकूल समय है।
मौसम के ये बदलाव सिर्फ भारत तक सीमित नहीं हैं, बल्कि प्रकृति किसी के साथ कोई मुरव्वत नहीं बरतती। इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य भूमिका से भी पूरी दुनिया अवगत है, लेकिन वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन को थामने के लिए जिस दूरदर्शिता की दरकार है, उसे दिखाने में विश्व बिरादरी नाकाम रही है। खासकर विकसित देशों से जिस अक्लमंदी की अपेक्षा की जाती है, अपने आर्थिक हितों के कारण वे उससे कतरा जाते हैं।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने पेश किया, जब उसने पेरिस समझौते से अलग होने का अविवेकी फैसला किया था। वह भी तब, जब सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाले पांच देशों में एक अमेरिका भी है। यह संतोष की बात है कि राष्ट्रपति बाइडन ने पर्यावरण संबंधी वैश्विक चिंताओं को समझा है। कुदरत तो धूप, हवा, पानी धरती के हरेक इंसान को नैसर्गिक रूप से बगैर किसी भेदभाव के सौंपती है, लेकिन नागरिक व्यवस्थाओं ने इनकी उपलब्धता को लेकर आदमी-आदमी में काफी अंतर पैदा कर दिया।
विडंबना यह है कि कार्बन उत्सर्जन के लिए सुविधा संपन्न तबका सबसे अधिक जिम्मेदार होता है, मगर दुर्योग से इसका खामियाजा हाशिए के लोगों को अधिक भुगतना पड़ता है। सूरज की तपिश और लू के थपेड़ों के शिकार इसी तबके के लोग अधिक बनते हैं। मौसम विभाग की ताजा सूचनाओं के आलोक में सूखा रहने वाले इलाकों, बेघर आबादी, मवेशियों और जीवों के लिए पहले से मौजूद कार्यक्रमों को सक्रिय करने का वक्त आ गया है।