सम्पादकीय

टोपियों का युद्ध

Rani Sahu
12 Dec 2021 7:10 PM GMT
टोपियों का युद्ध
x
दो टोपियां बीच बाजार झगड़ रही थीं

दो टोपियां बीच बाजार झगड़ रही थीं। एक बिल्कुल नई, रंगीन और बेशकीमती दिखाई दे रही थी, तो दूसरी एकदम साधारण सी कहीं-कहीं फटी हुई। बेशकीमती टोपी के साथ राष्ट्रीय मीडिया भी रिपोर्टिंग कर रहा था, जबकि फटी हुई हिम्मत करके मैदान में डटी थी। यह आजादी की टोपी थी, जिसे कभी गांधी, कभी सुभाष चंद्र, कभी अश़फाक उल्ला, तो कभी चंद्रशेखर आजाद या कभी राम प्रसाद बिस्मिल ने पहना था। यह टोपी सामने वाली भीड़ में खड़ी टोपी से इज्जत बचाना चाहती थी, लेकिन बीच में मीडिया इसी के विरोध में उलाहना दे रहा था। बेशकीमती टोपी खुद को राष्ट्रवादी साबित कर चुकी थी, क्योंकि उसके हर नारे का जनता साथ दे रही थी। वह एक तरह की जादूगर थी और इसीलिए राष्ट्रवाद के ऊपर बैठी यह टोपी सभी को मोहित कर चुकी थी। आश्चर्य यह कि आजादी की टोपी पहचानी नहीं जा रही थी, फिर भी कुछ लोगों का विश्वास था कि कभी तो आजादी को भी एक टोपी की जरूरत रही होगी। यह बात बेशकीमती टोपी व उसके समर्थक मानने को तैयार नहीं थे कि आजाद भारत के लिए किसी टोपी की भूमिका रही होगी। वे दरअसल देश को आजादी की टोपी से अलग करके नए अंदाज में पेश करना चाहते थे। उनका तो यह भी मानना था कि देश को अब नंगे सिर चलना आ गया है। सिर ढांपने के बजाय नाक ढांपने की जरूरत है। इसलिए वह आजादी की टोपी से नाक बचा रहे हैं। आजादी की टोपी चीखती रही। वह आजादी के इतिहास और तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रही थी, लेकिन बेशकीमती टोपी को अपने प्रचार पर पूर्ण भरोसा था। वह तनी हुई थी, इसलिए कहने लगी, 'देश को अब आजादी की टोपी नहीं चाहिए। इसकी वजह से नेता वीआईपी नज़र नहीं आते। इसे पहने देखकर हर भारतवासी गरीब नज़र आता है। यही टोपी हमारी गरीबी का कारण है।

ऐसी टोपी पहनकर देश बड़ी कल्पना नहीं कर सकता। आईटी क्षेत्र हो या कारपोरेट जगत, आजादी की टोपी की पुरानी बदबू नहीं झेल सकता। देश में पर्यटन के लिए या विदेश में भारतीय पर्यटन के लिए टोपी की कोई अहमियत नहीं।' बेशकीमती टोपी की कड़क भाषा और सार्वभौमिक उपस्थिति के कारण आजादी की टोपी अपना केस हारती जा रही थी। इसकी कीमत आज तक कोई नहीं दे पाया, लिहाजा यह सोचा गया कि आजादी की टोपी को केवल संग्रहालय में रखा जाए। आजादी के बाद की टोपी सस्ती थी, बिल्कुल जीओ के डाटा की तरह। किसी के सिर पर सवार होने की क्षमता के कारण इसे पहनकर बहुत कुछ छिप रहा था। अब यह टोपी ही राष्ट्रवाद बन गई है, इसलिए चोर-उचक्के भी इसे प्रमाणित कर रहे हैं। यह टोपी अपने आप में एक हुनर है, इसलिए टोपी पहनो प्रतियोगिताएं होने लगी हैं। हर चुनाव यही टोपी जीत जाती है। देश भर के लिए यह टोपी ठीक उसी तरह है जैसे मोबाइल की सस्ती रिचार्ज सुविधा। यह टोपी अब पहली तारीख की टोपी है। जो पहन पाता है, पहली को पगार ले जाता है। मजेदार बात यह कि देश का मीडिया भी यही टोपी पहनकर उच्चारण कर रहा है। टोपी का कमाल यह भी कि यह छोटे से बड़े सिर तक एक तरह विराजमान हो जाती है। टोपी अब रिमोट तंत्र से भी चल सकती है, इसलिए किसानों की टोपियों से उसकी सुरक्षा तय है। आजादी की टोपी को परास्त कर चुकी यह टोपी आजकल उत्तर प्रदेश की कपास पर मोहित है, लेकिन खेत के ऊपर अखिलेश यादव ने लाल टोपी टांग रखी है। अगले कुछ महीनों में फिर इस टोपी को लाल से युद्ध लड़ना है, तो हम भारतवासी भी देख पाएंगे कि आखिर इस बार सिर कैसे बचेगा।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story