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- टोपियों का युद्ध
दो टोपियां बीच बाजार झगड़ रही थीं। एक बिल्कुल नई, रंगीन और बेशकीमती दिखाई दे रही थी, तो दूसरी एकदम साधारण सी कहीं-कहीं फटी हुई। बेशकीमती टोपी के साथ राष्ट्रीय मीडिया भी रिपोर्टिंग कर रहा था, जबकि फटी हुई हिम्मत करके मैदान में डटी थी। यह आजादी की टोपी थी, जिसे कभी गांधी, कभी सुभाष चंद्र, कभी अश़फाक उल्ला, तो कभी चंद्रशेखर आजाद या कभी राम प्रसाद बिस्मिल ने पहना था। यह टोपी सामने वाली भीड़ में खड़ी टोपी से इज्जत बचाना चाहती थी, लेकिन बीच में मीडिया इसी के विरोध में उलाहना दे रहा था। बेशकीमती टोपी खुद को राष्ट्रवादी साबित कर चुकी थी, क्योंकि उसके हर नारे का जनता साथ दे रही थी। वह एक तरह की जादूगर थी और इसीलिए राष्ट्रवाद के ऊपर बैठी यह टोपी सभी को मोहित कर चुकी थी। आश्चर्य यह कि आजादी की टोपी पहचानी नहीं जा रही थी, फिर भी कुछ लोगों का विश्वास था कि कभी तो आजादी को भी एक टोपी की जरूरत रही होगी। यह बात बेशकीमती टोपी व उसके समर्थक मानने को तैयार नहीं थे कि आजाद भारत के लिए किसी टोपी की भूमिका रही होगी। वे दरअसल देश को आजादी की टोपी से अलग करके नए अंदाज में पेश करना चाहते थे। उनका तो यह भी मानना था कि देश को अब नंगे सिर चलना आ गया है। सिर ढांपने के बजाय नाक ढांपने की जरूरत है। इसलिए वह आजादी की टोपी से नाक बचा रहे हैं। आजादी की टोपी चीखती रही। वह आजादी के इतिहास और तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रही थी, लेकिन बेशकीमती टोपी को अपने प्रचार पर पूर्ण भरोसा था। वह तनी हुई थी, इसलिए कहने लगी, 'देश को अब आजादी की टोपी नहीं चाहिए। इसकी वजह से नेता वीआईपी नज़र नहीं आते। इसे पहने देखकर हर भारतवासी गरीब नज़र आता है। यही टोपी हमारी गरीबी का कारण है।