सम्पादकीय

युद्ध दे रहा आत्मनिर्भरता का सबक

Rani Sahu
16 May 2022 7:14 PM GMT
युद्ध दे रहा आत्मनिर्भरता का सबक
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रूसी राष्ट्रपति पुतिन के द्वारा पूर्वी यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई के लिए अनुमति देने के बाद, 24 फरवरी 2022 से चल रहे यूक्रेन पर आक्रमण के चलते दुनिया भर में चिंता व्याप्त हो गई है

रूसी राष्ट्रपति पुतिन के द्वारा पूर्वी यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई के लिए अनुमति देने के बाद, 24 फरवरी 2022 से चल रहे यूक्रेन पर आक्रमण के चलते दुनिया भर में चिंता व्याप्त हो गई है, क्योंकि इससे दुनिया की शांति भंग हो सकती है। गौरतलब है कि 1991 में सोवियत संघ समाजवादी गणराज्य के विघटन के साथ एक स्वतंत्र देश यूक्रेन का जन्म जनमत संग्रह और राष्ट्रपति चुनाव के साथ हुआ था। यूक्रेन को पूरी उम्मीद थी कि रूसी आक्रमण के बाद अमरीका उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाएगा, लेकिन अमरीका द्वारा प्रत्यक्ष सैन्य मदद से इंकार के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति ने अमरीका की भी आलोचना की है। ऐसा लगता था कि कहीं से भी मदद न मिलने के कारण ताकतवर रूस के साथ यूक्रेन की सेनाएं आत्मसमर्पण कर देंगी। लेकिन अमरीका और यूरोप द्वारा सैन्य सामग्री और अपनी इच्छाशक्ति से यूक्रेन ने अभी तक हार नहीं मानी है। वर्तमान संकट के बारे में यदि निष्पक्ष तरीके से देखा जाए तो ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि यह किसी देश के ऊपर आक्रमण है। जैसा कि भारत ने कहा भी है कि सभी विवादों को बातचीत के माध्यम से हल किया जा सकता है, और ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन यदि रूस के नजरिए से इस पर विचार किया जाए तो ध्यान में आता है कि शीतयुद्ध के समय से लेकर अभी तक एक ओर रूस और दूसरी ओर अमरीका एवं उसके मित्र अन्य 'नाटो' देशों के बीच लगातार एक तनातनी बनी हुई है। कोई संदेह नहीं, यूक्रेन द्वारा नाटो समूह में शामिल होने से रूस की सीमाओं पर नाटो उपस्थित हो जाएगा। ऐसे में रूस कभी भी नहीं चाहेगा कि किसी भी हालत में यूक्रेन नाटो का सदस्य बने। साथ ही साथ यह पहली बार नहीं है कि यूक्रेन के साथ रूस के संबंधों में टकराव की स्थिति आई है। जब-जब यूक्रेन ने नाटो के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ाने का प्रयास किया है, तब-तब रूस ने उसका प्रतिकार किया है।

यूं तो किसी भी मुल्क को किसी भी समूह में शामिल होने की स्वतंत्रता होती है, लेकिन रूस की चिंताओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में अमरीका और यूरोपीय समुदाय और इंग्लैंड द्वारा रूस पर प्रतिबंध इत्यादि की कार्रवाई से भी यूक्रेन को कोई लाभ होने वाला नहीं है। यूक्रेन को अमरीका या नाटो देशों द्वारा किसी भौतिक मदद के बिना, यूक्रेन रूस के खिलाफ इस लड़ाई में अकेला पड़ चुका है। ऐसे में भारत समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा आपसी बातचीत के माध्यम से शांति के प्रयास उपयोगी हो सकते हैं। कुछ अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का यह मानना है कि आने वाले समय में रूस के राष्ट्रपति सोवियत संघ की पुनर्स्थापना हेतु सोवियत संघ के विघटन के बाद नवोदित देशों पर भी सैन्य आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन कर सकते हैं। लेकिन इस विचार का कोई आधार दिखाई नहीं देता है। सर्वप्रथम रूस ने स्वयं कहा है कि यूक्रेन पर कब्जा करने का उसका कोई इरादा नहीं है। साथ ही साथ, कुछ समय पूर्व जब रूसी राष्ट्रपति से यह प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा कि दुनिया में केवल एक ही महाशक्ति अमरीका है और रूस को पुनः एक महाशक्ति बनाने का कोई कारण भी नहीं और अपेक्षा भी नहीं। उन्होंने कहा कि महाशक्ति बने रहने की होड़ में उन्होंने काफी आर्थिक नुकसान सहा है। गौरतलब है कि सोवियत संघ के दिनों में शीतयुद्ध के चलते, रूस के राजकोष का एक बड़ा हिस्सा सैन्य खर्च में जाता था, जिसके कारण रूस के लोगों का जीवन स्तर अन्य बराबर देशों की तुलना में बहुत कम रह गया और मानव विकास की दौड़ में कहीं ज्यादा पिछड़ गया।
गौरतलब है कि एक महाशक्ति बने रहने की कवायद में अमरीका ने भी काफी नुकसान सहा है। सामान्यतः अमरीका अपनी दादागिरी के प्रदर्शन हेतु, अपनी रणनीति के अंतर्गत विभिन्न देशों में सैन्य हस्तक्षेप करता रहा है। अफगानिस्तान समेत कई मुल्कों में अमरीकी हस्तक्षेप हाल ही के कुछ उदाहरण हैं। इन सभी प्रकार के हस्तक्षेपों का आर्थिक नुकसान के रूप में खासा खामियाजा अमरीका को भुगतना पड़ा है। इसीलिए अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ने अलग-अलग मुल्कों में अमरीकी हस्तक्षेप के नुकसानों से सबक लेते हुए भविष्य में इनसे बचने का आह्वान किया। हाल ही में वैश्विक आलोचना के बावजूद अमरीका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुला लिया था। यह निर्णय आर्थिक कारणों से ही लिया गया था। इसीलिए यूक्रेन पर रूसी आक्रमण को साम्राज्यवादी विस्तार के नाते नहीं, रूस की अपनी सीमाओं की रक्षा हेतु संवदेना के रूप में देखा जाना चाहिए। इस संबंध में यूक्रेन के घटनाक्रमों पर रूस की पहली प्रतिक्रिया नहीं है। इससे पूर्व भी कई बार रूस ने यूक्रेन पर सशस्त्र और अन्य प्रकार से हस्तक्षेप किया है। वो नहीं चाहता कि नाटो के कारण उसकी सीमाओं पर कोई संकट आए। 2004 के चुनावों में रूस समर्थक उम्मीदवार विक्टर यनुकोविच के चुनाव के संबंध में धांधली के आरोप के बाद पुनर्चुनाव हुए और 2005 के चुनावों में यूस्चौनो द्वारा सत्ता प्राप्त करने के बाद यूक्रेन को रूस के प्रभुत्व से बाहर करते हुए नाटो एवं यूरोपीय समुदाय की तरफ ले जाने का वादा किया गया।
2008 में नाटो ने यूक्रेन को अपने गठजोड़ में लेने हेतु वादा किया। लेकिन 2010 में पुनः रूस समर्थक यनुकोविच राष्ट्रपति पद के लिए विजयी हुए और यूक्रेन के ब्लैक सी बंदरगाह के रूसी जलसेना को लीज को आगे बढ़ा दिया गया। 2017 में फिर यूक्रेन के यूरोपीय समुदाय के साथ आर्थिक संबंध बढ़ने लगे। कई उतार-चढ़ावों के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति जैलेन्सकी ने अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन को गुहार लगाई कि वो यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनने दें। 2021 के मध्य में रूसी सेनाएं यूक्रेन की सीमाओं तक पहुंच गई, लेकिन यूक्रेन फिर भी रूस के लिए नापसंद कार्य करता रहा। दिसंबर 7, 2021 को बाइडन ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दी। उसके बाद से नाटो और अमरीका लगातार रूस के प्रति आक्रामक रुख अपनाए रहा। यूरोपीय समुदाय के देशों, इंग्लैंड और अमरीका द्वारा लगातार रूस को धमकियां दी जाती रहीं। इन धमकियों को दरकिनार कर इस युद्ध में सैन्य दृष्टि से ही नहीं, कूटनीतिक तौर पर भी रूस विजयी होता दिखाई दे रहा है। जहां अमरीका ही नहीं नाटो की ओर से भी यूक्रेन को कोई सहायता नहीं मिली, बल्कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी भारत और चीन समेत तीन देशों ने उस प्रस्ताव से तटस्थ रहकर पश्चिमी देशों के रुख से किनारा कर लिया है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से रूस और चीन के बीच परस्पर सहयोग बढ़ा है और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी साझेदारी बढ़ रही है। अमरीका को ज्ञात है कि रूस और चीन के बीच अभी तक जो समझ बनी है, वो राजनयिक और आर्थिक मुद्दों तक ही सीमित है।
अमरीका कभी नहीं चाहेगा कि यह सैन्य सहयोग की तरफ भी आगे बढ़ जाए। इसलिए अमरीका द्वारा यूक्रेन को सहयोग नहीं दिया जाना अमरीका की समझ दिखाता है। जहां तक अमरीका, यूरोपीय समुदाय और इंग्लैंड द्वारा यूक्रेन पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की बात है, उससे रूस को खास फर्क पड़ने वाला नहीं है, लेकिन संभव है कि प्रतिबंध लगाने वाले देशों पर ही इसका दुष्प्रभाव पड़े। इस दुष्प्रभाव के संकेत आने प्रारंभ भी हो चुके हैं और अमरीका तथा यूरोपीय देश जिस महंगाई से गुजर रहे हैं, उसमें इन प्रतिबंधों का भी योगदान है। इन प्रतिबंधों के कारण दुनिया में खाद्य पदार्थों की आवाजाही पर भी असर पड़ रहा है, जिससे खाद्य पदार्थों की कमी और मुद्रास्फीति दोनों ही बढ़ रहे हैं। कई अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक इस बात से सशंकित हैं कि इस उदाहरण का लाभ उठाते हुए चीन ताईवान पर कब्जा न कर ले। हालांकि चीन के मंसूबों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। भारत समेत दुनिया के सभी देशों को एक सीख लेनी होगी कि विस्तारवादी ताकतें अपनी सोच से बाज नहीं आ सकती। अपनी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है कि देश आर्थिकी, प्रौद्योगिकी, सैन्य और खाद्य पदार्थ, सभी दृष्टि से मजबूत हो। ऐसे में अपने आर्थिक तंत्र और प्रौद्योगिकी को मजबूत बनाते हुए भारत को अपने देश को सैन्य दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना होगा। तभी विस्तारवादी ताकतों के कुत्सित प्रयासों से हम बच सकते हैं।
डा. अश्वनी महाजन
कालेज प्रोफेसर


Rani Sahu

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