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हेमंत कुमार पारीक: बहुत से जीव ऐसे होते हैं कि जिनके विषय में हम कुछ भी नहीं जानते। अनजाने में उन छोटे-छोटे जीवों की परवाह नहीं करते जो प्रकृति के इशारे की वजह से पैदा होते हैं। वे अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं और मर जाते हैं। इस तरह उनका अंत हो जाता है। लेकिन हम शायद ही कभी इस चक्र पर गंभीरता से विचार कर पाते हैं। ऐसे ही एक बार पत्ते के नीचे लटका प्यूपा पर नजर गई।
उसी पेड़ पर दूसरे पत्ते के नीचे एक इल्ली (केटरपिलर लार्वा) चिपकी हुई थी। कुछ दिनों बाद उस इल्ली की जगह एक पारदर्शी खोल नजर आया। इसके बाद स्वाभाविक रूप से ध्यान उस इल्ली और खोल पर गया। समझ आया कि इल्ली से ही खोल बनता है। अचानक एक दिन खोल में स्पंदन होता दिखा और अगले दिन वह खोल फटा-फटा-सा नजर आया। मतलब इल्ली तितली बन उड़ गई। याद आया कि यह तितली बनने की एक प्रक्रिया है और निश्चित जीवन चक्र पूरा कर इल्ली सुंदर-सी तितली बन फूलों पर मंडराने लगती है।
सड़क से गुजरते हुए किसी दिन पहचान जाने में आसानी हुई उस इल्ली को जो बारिश के बाद यत्र-तत्र दिखाई देती है। चिउंटी या चींटी और कीट-पतंगे, जिनकी हम परवाह नहीं करते, वे भी प्रकृति द्वारा किसी खास उद्देश्य के तहत जन्म लेते हैं। सच यह है कि निरुद्देश्य यहां कोई नहीं है। अनजाने में ये छोटे-छोटे जीव हमारे द्वारा रौंदे जाते हैं।
मगर करें क्या? इस भागदौड़ से भरे जीवन में यह संभव नहीं है कि हम इन जर्रा से जीवों के विषय में सोचें। आज स्थिति यह है कि आदमी इतना असंवेदी हो गया है कि सड़क पर घायल पड़े इंसान को अस्पताल ले जाने के बजाय उसे वीडियो बनाना जरूरी लगता है। ऐसे दौर में उनके विषय में सोचना समय की बर्बादी के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन एक बात तो है कि फूलों पर मंडराती तितलियां और अंधेरी रात में आसमान में चमकते जुगनू कितना सुकून देते हैं। कई बार बारिश में इन दोनों की कमी बेहद खलती है।
यह दुनिया इतनी विराट है कि थलचर, जलचर और नभचरों की गिनती कर पाना अति दुष्कर कार्य है। गिनती हुई है, मगर वह हमेशा ही अपूर्ण होती है। और तो और, जिन जीवों का अस्तित्व समाप्तप्राय माना गया, वे भी कभी-कभी कहीं मिल जाते हैं। आश्चर्य होता है। कुछ समय पूर्व सफेद उल्लू का पाया जाना प्रकृति का चमत्कार ही है। लगता है कि मनुष्य की सीमा जहां खत्म होती है, प्रकृति वहीं से शुरू होती है। किसी कहानी में सुना है कि इस संसार में जीवों की चैरासी लाख योनियां होती हैं। मतलब यह कि चौरासी लाख जीव हैं। अगर इसे आधार माना जाए तब फिर सवाल यह उठेगा कि इस गणना का आधार क्या है? कैसे की गई होगी यह गणना?
बहरहाल, इस चर्चा का विषय वे जीव हैं जो सूक्ष्म से लेकर स्थूल हैं। सूक्ष्म तो दिखाई नहीं देते। हमारे द्वारा ली गई हरेक सांस के साथ अंदर-बाहर होते रहते हैं। बदलते मौसम में बदल जाते हैं। जिन्हें हम विषाणु और जीवाणु के नाम से जानते हैं। इनमें से एक विषाणु ने तो पूरी दुनिया में तबाही ला दी थी। लगभग दो वर्ष तक लोगों को घरों में बंद रहना पड़ा था। घातक विषाणु के हमले से हमारे कई अपने इस दुनिया से बेवक्त कूच कर गए।
आम जनजीवन के बीच हर रोज साइकिल से सैर पर निकल कर जिस सड़क से गुजरना पड़ता है, उसके एक ओर नहर है और दूसरी ओर हरे-भरे खेत। कुछ खेत प्लाट की शक्ल में बदल गए हैं और कुछ में मकानों की बुनियाद रखी जा रही है। बाकी खेत हैं। वहां आम, इमली, जामुन, जाम, बेर और बबूल के पेड़ लगे हैं। ये सब कहीं भी उग आते हैं। इन्हें अलग से खाद-पानी की जरूरत नहीं होती। कितना ही काटा जाए, ये फिर भी पनप जाते हैं।
खैर, पहले के मुकाबले अब बचे-खुचे पेड़ों में से बबूल के पेड़ पर बया के घोंसले लटकते दिखते हैं। बया को 'इंजीनियर बर्ड'कहते हैं। एक छोटा-सा पक्षी जरा-सी चोंच के बल पर इतना जटिल और सुंदर घोंसला कैसे बना लेता है? वे नन्हीं-नन्हीं इल्लियां सड़क पार कर नहर तक क्यों और कैसे चली जाती हैं? इसी दौरान सड़क से गुजर रहे वाहनों से कुचली भी जाती हैं।
साइकिल से उतर कर पैदल चलते हुए दिमाग में आता है कि इतनी सारी इल्लियां अगर तितली बन जातीं तो वहां का नजारा क्या होता! फिर लगता है कि उन इल्लियों को सड़क पार जाने की क्या जरूरत थी? खेत में तो उनकी जरूरत का सब कुछ है। पुराने दृश्य जेहन में उभर आते हैं। वे हरी-पीली रंग-बिरंगी तितलियां जो झाड़ियों में मंडराती रहती थीं, बच्चों को आकर्षित करती थीं और इसी आकर्षण में खिंचे बच्चे उन्हें पकड़ने उनके पीछे-पीछे दौड़-भाग किया करते थे।