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हां, कश्मीर घाटी में 'एथनिक क्लींजिंग', 'हिंदू सफाए' के मुस्लिम संकल्प की रात का नारा! मानों खौफ का ज्वालामुखी फट पड़ा हो! दिनः 19 जनवरी 1990। स्थानः श्रीनगर (घाटी के शहर) और वक्त सर्द रात के कोई नौ बजे। एक साथ श्रीनगर की कोई 11 सौ मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से विस्फोट हुआ! प्री-रिकार्डेड कैसेटों से नारों, गालियों, आवाजों का लावा शहर के कोने-कोने, गली-मोहल्ले के उन घरों में छितराया, जिनमें 'काफिर' थे। 'काफिर' सन्न, सुन्न, भय में कंपकंपाते, खिड़की-दरवाजे बंद करते हुए। बच्चों को छुपाते और खुद दुबकते, रोते और घबराए। जिनके पास फोन था वे गुहार लगाते, गिड़गिड़ाते हुए थे बचाओ। पर वह रात मौत के खौफ को 'काफिरों' के दिल-दिमाग की रगों को अधमरा बनवाने की थी तो शर्म, हया, कश्मीरियत सबको छोड़ कश्मीरी मुसलमान ने इंच भर भी इंसानियत नहीं दिखाई। सभी सड़कों पर निकल 'काफिरों' में सामूहिक भगदड़, भय बनाने का हांका लगाते हुए। मुस्लिम मर्द-औरत और नौजवानों की भीड़ सड़कों पर चिल्लाती हुई… अल्लाह हो अकबर! रात बारह बजते-बजते खौफ का लावा चौतरफा फैल चुका था। योजना अनुसार एक साथ 'काफिरों' उर्फ हिंदू पंडितों के घरों में फोन की घंटियां बजीं। दूसरी तरफ से पूछना होता था सब ठीक तो है… जरा बाहर जा कर देखो। पर शोर से दहले भला किस 'काफिर' में खिड़की-दरवाजा खोल बाहर देखने की हिम्मत थी। पूरी रात 'काफिर' कश्मीरी पंडित सोचते हुए थे कब सुबह हो और जान बचाएं!…
