सम्पादकीय

मुसलमानों जागो, काफिरों भागो!

Triveni
13 Aug 2021 2:44 AM GMT
मुसलमानों जागो, काफिरों भागो!
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हां, कश्मीर घाटी में ‘एथनिक क्लींजिंग’, ‘हिंदू सफाए’ के मुस्लिम संकल्प की रात का नारा! मानों खौफ का ज्वालामुखी फट पड़ा हो!

हां, कश्मीर घाटी में 'एथनिक क्लींजिंग', 'हिंदू सफाए' के मुस्लिम संकल्प की रात का नारा! मानों खौफ का ज्वालामुखी फट पड़ा हो! दिनः 19 जनवरी 1990। स्थानः श्रीनगर (घाटी के शहर) और वक्त सर्द रात के कोई नौ बजे। एक साथ श्रीनगर की कोई 11 सौ मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से विस्फोट हुआ! प्री-रिकार्डेड कैसेटों से नारों, गालियों, आवाजों का लावा शहर के कोने-कोने, गली-मोहल्ले के उन घरों में छितराया, जिनमें 'काफिर' थे। 'काफिर' सन्न, सुन्न, भय में कंपकंपाते, खिड़की-दरवाजे बंद करते हुए। बच्चों को छुपाते और खुद दुबकते, रोते और घबराए। जिनके पास फोन था वे गुहार लगाते, गिड़गिड़ाते हुए थे बचाओ। पर वह रात मौत के खौफ को 'काफिरों' के दिल-दिमाग की रगों को अधमरा बनवाने की थी तो शर्म, हया, कश्मीरियत सबको छोड़ कश्मीरी मुसलमान ने इंच भर भी इंसानियत नहीं दिखाई। सभी सड़कों पर निकल 'काफिरों' में सामूहिक भगदड़, भय बनाने का हांका लगाते हुए। मुस्लिम मर्द-औरत और नौजवानों की भीड़ सड़कों पर चिल्लाती हुई… अल्लाह हो अकबर! रात बारह बजते-बजते खौफ का लावा चौतरफा फैल चुका था। योजना अनुसार एक साथ 'काफिरों' उर्फ हिंदू पंडितों के घरों में फोन की घंटियां बजीं। दूसरी तरफ से पूछना होता था सब ठीक तो है… जरा बाहर जा कर देखो। पर शोर से दहले भला किस 'काफिर' में खिड़की-दरवाजा खोल बाहर देखने की हिम्मत थी। पूरी रात 'काफिर' कश्मीरी पंडित सोचते हुए थे कब सुबह हो और जान बचाएं!…

ब्योरे में रंच मात्र असत्य नहीं है। सत्य कटु है कि मस्जिदों से उगले गए नारों, शोर के खौफ से पहले कई दिनों से ज्वालामुखी खदबदाता-डराता हुआ था। इसलिए 19 जनवरी 1990 की रात निर्णायक, आर-पार व तलवार को गर्दन पर लटका देने की थी। जतला देना कि तुम्हें बचाने को पुलिस, सेना नहीं है। वह 'काफिरों' की जान को सुखाना था, उन्हें ऐसा अधमरा बनाना था कि पूरी सांस तभी ले सकोगे जब सब कुछ छोड़छाड़ कर भागोगे, जवाहर सुंरग पार करोगे। संदेह नहीं कि 19 जनवरी 1990 की रात आधुनिक इतिहास का वह बिरला वाकया है, जिसके आगे हिटलर और उसके नाजी सेनानियों, प्रोपेगेंडा चीफ गोयबल्स का यहुदियों का नरसंहार इसलिए मामूली लगेगा कि घाटी के मुसलमानों ने बिना गैस चैंबर के ही 'काफिरों' का घाटी में सफाया कर दिया।
क्या मैं गलत लिख रहा हूं? सोचें, हिटलर का क्या मकसद था? अपने 'फादरलैंड' से यहूदियों की समूल समाप्ति! यहूदियों को कैंपों में इकठ्ठा रखा, गैस चैंबरों से यातना दे कर मारा। मगर 19 जनवरी 1990 को घाटी के मुसलमानों ने 'काफिरों' को खौफ का करंट लगा कर अधमरा किया और भगा दिया। उस रात डराने के किस सीमा वाले नारे थे? तो जाने हिंदू परिवार में बहू-बेटियों को दहलाते हुए ये नारे- हमें पंडितों की औरतें चाहिएं!…असि गंछि कशीर बटव, वरॉय, बटन्यव सान', कशीर बनाओ पाकिस्तान, बटव वरॉय, बटन्यव सान इन दोनों कश्मीरी नारों का भाव है- हमें चाहिए पंडितों की औरतें न कि कश्मीरी मर्द। यह बात घर-घर में महिलाओं को डरा कर परिवार को भगवाने वाली थी। इसके अलावा हिंदुओं को भयाकुल, खौफजदा बनाने के अन्य नारे थे-
कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह ओ अकबर कहना होगा!
ला सारजिया, ला गारबिया, इस्लामिया! इस्लामिया मतलब पूर्व हो या पश्चिमी सभी ओर केवल इस्लाम।
मुसलमान जागो, काफिरों भागो!
इस्लाम हमारा मकसद है, कुरान हमारा दस्तूर है, जेहाद हमारा रास्ता है।
पाकिस्तान से क्या रिश्ता, ला-इलाहा इल्लल्लाह
दिल में रखो अल्लाह का खौफ, हाथ में रखो कलाश्निकोव (रायफल)
यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा
पीपुल लीग का क्या पैगाम, फतह, आजादी और इस्लाम
हम क्या चाहते?– आजादी
हमें क्या चाहिए?– पाकिस्तान, पंडित औरतें, बिना पंडित लोगों के!
ऐ जाबिरों, ऐ जालिमों, कश्मीर हमारा छोड़ दो!
इंडियन डॉग्स, गो बैक!
नारों के अलावा कैसेट्स से तुकबंदियों का प्रसारण था। जैसे तब अफगानिस्तान से सोवियत संघ के भागने का सत्य था तो उसके हवाले कश्मीरी मुसलमानों से आह्वान था-
खून ए शहीदा रंग लाया, मजहब का परचम लहराया, जागो-जागो सुबह हुई है।
रूस ने बाजी हारी है, हिंद पर लरजा तारी है, अब कश्मीर की बारी है, जागो-जागो सुबह हुई!
सोचें, 19 जनवरी 1990 की रात श्रीनगर (घाटी में बाकी जगह भी) में 'काफिरों' को भयाकुल, खौफजदा बना घाटी से उनकी 'एथनिक क्लींजिंग', सफाए के लिए किस सीमा की प्लानिंग थी। नारे मस्जिदों के लाउडस्पीकर से थे तो सड़कों पर भीड नारों से खौफ का हांका बनाते हुए। इस तरह किसी नस्ल को खौफजदा बना उसकी इलाके से 'एथनिक क्लींजिंग' के सर्वनाश का ज्वालामुखी फोड़ना तो हिटलर-गोयबल्स के शैतानी दिमाग को भी नहीं सूझा था।
कश्मीर घाटी का सत्य-12 'एथनिक क्लींजिंग' का सियासी प्री-प्लानइसलिए 19 जनवरी 1990 की घटना भुलाए जाने वाली नहीं है, बल्कि मैं उसे आने वाले वक्त की कई घाटियों और सभ्यताओं के संघर्ष के अपने सिनेरियो में यह सवाल मानता हूं कि क्या भारत के हम लोग नियति से प्राप्त नस्ल, धर्म, देश रूप की हकीकत में ऐसे नारों से बने रह सकते हैं कि मुसलमान जागो, काफिरों भागो! फिर भले राष्ट्र-राज्य और सिस्टम क्यों न बना हो!
सत्य है घाटी में 19 जनवरी 1990 को देश व सिस्टम खत्म-फेल था। श्रीनगर के घरों में हिंदू कंपकंपाते हुए थे तो शहर में बनी छावनियों, कैंपों, चौकियों में सेना, अर्धसैनिक बल व पुलिस दुबकी हुई थी। तब श्रीनगर की सात-आठ लाख आबादी थी। उनमें एक से डेढ़ लाख हिंदू। इनके अलावा सेना-बीएसएफ जैसे बलों के दो-तीन लाख लोग। सत्य है कि आईबी, रॉ, पुलिस और राजभवन सब श्रीनगर के ही एक कोने में शंकाराचार्य मंदिर की पहाड़ी के आसपास ऊंचाई से शहर को सुनते-देखते हुए थे। फोन पर हिंदुओं की चित्कार, पुकार, रोने को सबने सुना लेकिन हिंदुओं का मनोबल बनाए रखने के लिए न राज्यपाल जगमोहन ने सेना को फ्लैग मार्च का आदेश दिया और न मुख्यमंत्री (वे इस्तीफा दे कर कर गायब थे) फारूख अब्दुल्ला फोन उठाते हुए थे। न ही दिल्ली में भारत के गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कुछ किया और न भारत के प्रधानमंत्री वीपी सिंह (रक्षा मंत्री भी) का इंडियन डॉग्स गो बैक, पंडितों इस्लाम कबूल करो नहीं तो भागो या मरो जैसे नारों पर खून खौला। वे सड़कों के जिहादी शोर पर आईबी, खुफिया एजेंसियों के एसओएस की चिंता करते हुए नहीं थे। घाटी में सेना और गृह मंत्रालय की सुरक्षा फौज थी। राज्यपाल जगमोहन जगते हुए थे लेकिन सेना-सुरक्षा बलों का फ्लैग मार्च, मस्जिदों के लाउडस्पीकरों की बिजली बंद कराने या आधे घंटे में शहर की बिजली गुल कर, डरा कर, ताकत दिखला कर खौफ का जवाब खौफ से देने जैसा कोई फैसला नहीं। तभी अपना मानना है कि वीपी सिंह, मुफ्ती मोहम्मद सईद के वे 12 घंटे देशद्रोह वाले थे। उन 12 घंटों में पुलिस, सेना, सुरक्षा बल को वीपी सिंह, मुफ्ती मोहम्मद द्वारा श्रीनगर की सडकों पर नहीं उतारना न केवल कश्मीरी हिंदुओं में हमेशा के लिए यह धारणा पैठाने वाला था कि उन्हें बचाने के लिए कोई नहीं है। ईश्वर, भाग्य के भरोसे जैसे तैसे सुबह होने तक इंतजार करके मौका मिलते ही सब कुछ छोड़ पूर्वजों, 'माईज कशीर' से पांच हजार साल पुराना नाल नाता तोड़ भागना है!
निश्चित ही यह सब भारत के बतौर गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की धर्मनिरेपक्षता, इंसानियत, कश्मीरियत के साथ गद्दारी में उनके द्वारा बनवाई परिस्थितियों से था। मैं जगमोहन को मजबूर मानते हुए भी समझ नहीं पाया कि वे प्रधानमंत्री, गृह मंत्री को बाईपास करके जम्मू से ही फोन पर सेना-सुरक्षा बलों को कैंप, बाड़ों से बाहर निकल फ्लैग मार्च का आदेश क्यों नहीं दे सकते थे? यदि आईबी आदि सबसे कत्ल की रात की सूचना पहुंच गई थी तो तभी, उन घंटों में ही तो बताना था, हिंदुओं को भरोसा देना था कि भारत देश अभी मरा नहीं है!
भारत 19 जनवरी 1990 के 12 घंटे घाटी में लापता था। भारत के गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद, जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और घाटी को इस्लामियत में रंगवाने पर आमादा उग्रवादियों, आईएसआई के एजेंटों की सोची-समझी रणनीति और प्री-प्लान में 19 जनवरी 1990 को घाटी बिना हुकूमत की थी। घटनाएं साक्ष्य हैं कि 19 जनवरी से पहले के छह महीने और बाद के छह महीने में एक सुनियोजित चक्रव्यूह में घाटी की आजादी व 'एथनिक क्लींजिंग' का मिशन था। इसके अलग-अलग चरण के अलग-अलग टारगेट थे। बहुत कायदे से काम हुआ। जैसे सर्वप्रथम अराजक माहौल बनाना। भारत की हुकूमत को तार-तार, लाचार बनाना। लीडरशीप-नेतृत्व को खाली बनाते हुए प्रशासन को ठप्प बनाना। कश्मीरी मुसलमानों मतलब आईएएस-आईपीएस की सेंट्रल काडर की जगह प्रदेश के केएएस अफसरों को डीसी जैसे पदों पर बैठाना (गुल शाह-फारूख दोनों ने यह काम किया)।

कुल मिला कर घाटी में केहोस, अनिश्चितता, सियासी खालीपन का वह माहौल, वह अराजकता थी जिससे सड़कों पर पाकिस्तानी झंडे, कलाश्निकोव रायफलें लिए उग्रवादी बेफिक्री से घूमते हुए थे और पंडित वकील व बीजेपी नेता टीकालाल टपलू, मकबूल भट्ट को फांसी की सजा सुनाने वाले जस्टिस गंजू, पत्रकार-वकील प्रेमनाथ भट्ट जैसे नामी लोगों की दिन-दहाड़े हत्या हो तब भी लोकल पुलिस सख्ती से सक्रिय नहीं दिखे। उलटे हद थी जो मुख्यमंत्री फारूक अब्दुला ने बेफिक्री से कोई 70 आंतकियों (कई पाकिस्तान में ट्रेनिंग लिए हुए) को जुलाई से दिसंबर 1989 में जेलों से छोड़ा। इनकी रिहाई घाटी में इस्लामियत के बंदों को मैसेज था कि दिल्ली की हुकूमत भाड़ में और जो चाहे करो!
फारूक का वह अंदाज तो मुफ्ती मोहम्मद सईद कैसे चूकते! उनकी बेटी रूबिया का प्रायोजित अपहरण हुआ। जेकेएलएफ के अपहरणकर्ताओं ने पांच आतंकियों की रिहाई की मांग की और भारत राष्ट्र-राज्य की खुफिया-सुरक्षा एजेंसियों की सलाह के विपरीत उन आतंकियों को रिहा किया गया। उफ! वह दिन। उस दिन श्रीनगर के जो गवाह हैं सबका कहना है कि 13 दिसंबर 1989 की शाम पांच बजे ज्योंहि ये आतंकी रिहा हुए तो श्रीनगर गूंज उठा अल्लाह हो अकबर के नारों से और सड़कों पर थे कलाश्निकोव रायफल लिए आंतकी। वह दिन था जब घाटी के मुसलमानों ने सोचा-समझा कि दिल्ली में तो वह हुकूमत है, जिसे हम झुकने के लिए कहेंगे तो वह रेंगने लगेगी।
कईयों का मानना है और एक अलगाववादी हिलाल वार ने अपनी किताब 'ग्रेट डिस्क्लोजरः सीक्रेट अनमास्क्ड' में लिखा है कि पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद ने गृह मंत्री रहते हुए अपनी बेटी रूबिया सईद के अपहरण की साजिश खुद रच आंतकवादियों को छुड़वाया था तो उधर फारूक ने कहा हुआ है कि मुझे केंद्र से डराया गया कि आतंकियों की रिहाई नहीं मानी तो तुम्हारी सरकार बरखास्त कर देंगे। तभी श्रीनगर में उन दिनों राशन की दुकान पर लोग राशन लेने जाते थे तो ऐसे दुकान वाले भी थे जो कहते थे- इंशा अल्लाह अगला रसद अपन इस्लामाबाद में लेंगे। या बस के कंडक्टर सवारियों को बुलाते हुए शोर करते थे- सोपोर, हंडवोर, अपोर (सीमा पार)!
मतलब अलगाववादियों के लिए खुला मैदान! दिसंबर आखिर तक माहौल उबल कर फूटने की कगार के करीब पंहुचने लगा तो हालात बिगड़ने के हवाले गृह मंत्री मुफ्ती ने प्रधानमंत्री वीपी सिंह के कान भर जगमोहन को राज्यपाल बना कर भेजने का फैसला कराया। मुफ्ती की वह शातिर चाल थी। क्योंकि पिछले कार्यकाल में वैष्णो देवी मंदिर जैसे कामों से हिंदू इमेज बनवाए जगमोहन का दोहरा अर्थ था। एक, घाटी के मुसलमामों को भड़काना तो दूसरे देश में यह झूठ बनवाना कि सख्त प्रशासक, हिंदू जगमोहन का वीपी-मुफ्ती का फैसला सच्चा! तीसरे फारूक अब्दुल्ला के चिढ़ करके इस्तीफे देने की भी संभावना। फारूक ने तुरंत जगमोहन के ऐलान के साथ इस बहाने इस्तीफा दिया कि केंद्र ने उन्हें पहले नहीं बताया।
एक और सत्य, जनवरी में तब राजधानी जम्मू में शिफ्ट थी। प्रशासन जम्मू में! सो, जम्मू में ही 18 जनवरी 1990 को जगमोहन ने शपथ ली। 18 जनवरी को शेख अब्दुल्ला इस्तीफा दे कर सीन से गायब हुए। 19 जनवरी को हेलीकॉप्टर से जगमोहन को श्रीनगर जाना था लेकिन मौसम खराब होने के कारण उन्हें बीच रास्ते से लौटना पड़ा। 19 जनवरी के दिन में श्रीनगर में पहले की तरह जेकेएलएफ, हिजबुल मुजाहिदीन के हथियारबंद आंतकी कर्फ्यू के बावजूद घूमते व मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से प्रोपेंगेडा कराते हुए थे। ध्यान रहे चार जनवरी को लोकल उर्दू अखबार 'आफताब' में अलगाववादियों ने हिंदुओं कनवर्ट हो या कश्मीर छोड़ो या मरने को तैयार हो के मैसेज छपवा दिए थे। सो, आर-पार के करीब आते वक्त का खतरा हवा में मंडरा रहा था। पर जम्मू और जम्मू के राजभवन व खुफिया एजेंसियों से शायद जगमोहन को ब्रीफ नहीं थी कि 19 जनवरी की रात ही कत्ल की रात है।
साजिश, प्री प्लान और जबरदस्त, चौतरफा तैयारियों की कत्ल की रात रात नौ बजे शुरू हुई। श्रीनगर (घाटी के कई कस्बों-शहरों में भी) अचानक 'मुसलमानों जागो, काफिरों भागो!' के नारों से गूंज उठा। जम्मू के राजभवन में जगमोहन के फोन की घंटियां बजने लगीं तो श्रीनगर से अफसर यह बताने में समर्थ नहीं थे कि पूरे शहर में एक साथ अचानक यह कैसे? कहते हैं आईबी, खुफिया एजेंसी के श्रीनगर के अफसरों-लोगों ने दिल्ली में गृह मंत्रालय के अफसरों को फोन कर-करके उनकी नाक में दम किया। अतिरिक्त सचिव ने राज्यपाल को फोन कर कहा- सर, हमें श्रीनगर से हिंदुओं के लगातार फोन आ रहे हैं, लगता है प्रलय आ पड़ी। पंडितों पर गाज गिर पड़ी है। हम श्रीनगर में किसी अफसर से फोन पर बात नहीं कर पा रहे हैं। (Sir, we are getting frantic calls from Hindus in Srinagar. Hell seems to have broken loose. The Pandits are in utter pain. We cannot get any officer on phone in Srinagar)
कश्मीर घाटी का सत्य-10 उफ! हर शाख पर उल्लू ….
मैंने ऊपर जो लिखा है उसमें घटनाएं, तथ्य हैं और विश्लेषण मेरा अपना। भारत राष्ट्र तब घाटी में फेल था तो भारत का मीडिया, बौद्धिक जमात इस झूठ में जीती और उसे फैलाते हुई थी कि ऐसा तो होता रहता है। तब प्रिंट मीडिया का रूतबा था। किसी ने भी श्रीनगर में रात के तांडव की बैनर हेडलाइन नहीं बनाई। अखबार-पत्रिकाएं झूठ का वैसा ही नैरेटिव बनाए हुए थी जैसे आज करते हुए हैं। तब दिल्ली का मीडिया वीपी सिंह, मुफ्ती मोहम्मद सरकार व लेफ्ट के सेकुलर आइडिया में हिंदुओं को कोसते हुए वैसे ही था जैसे आज मोदी-शाह के लंगूर पानीपत की तीसरी लड़ाई के नैरेटिव में भविष्य की घाटियां बनवाते हुए हैं। सचमुच 19 जनवरी 1990 का सत्य दबाया गया। मगर हां 16 जनवरी 1990 को श्रीनगर में मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की पुलिस मुख्यालय में हुई बैठक में पुलिस को कार्रवाई के लिए हड़काते हुए उन्होंने पुलिस को ऑपरेशन के लिए कहा और उसके तहत 20 जनवरी को छोटा बाजार व गुरू बाजार में सर्च-छापामारी हुई तो अराजकता में पहले से हौसलाई मुस्लिम भीड़ सड़कों पर उतरी। आगजनी, भारी तोड़फोड़ की। सुरक्षा बलों को गोली चलानी पड़ी। गवकडाल पुल पर कोई 28 से 35 मुसलमान मारे गए तो उस घटना पर जरूर राष्ट्रीय नैरेटिव व दिल्ली मीडिया में बड़ी सुर्खियां बनीं। बाद में इसी के हवाले घाटी के मुसलमानों ने यह झूठ बनवाया कि जगमोहन कैसे जुल्मी थे और मुसलमानों का हुआ ऐसा नरसंहार
अपना मानना है 19 जनवरी 1990 का दिन भारत के गृह मंत्रालय को बतौर कलंक दिन मनाना चाहिए। उस दिन वह कश्मीर घाटी में फेल था। न वह और न जगमोहन घाटी से हिंदुओं की 'एथनिक क्लींजिंग' को रोक सके। न ही जो हुआ उसकी बाद में मईमानदारी से जांच-पड़ताल व दोषियों को वह सजा दिलवा सका। जगमोहन को यह श्रेय जरूर है कि 19 जनवरी 1990 के सात दिन बाद 26 जनवरी 1990 को 'पीपुल लीग का क्या पैगाम, फतह, आजादी और इस्लाम' के नारे लगाने वाले उन्मादियों की ईदगाह पर भीड़ की साजिश को उन्होने सफल नहीं होने दिया। साजिश रणनीति में 19 जनवरी के बाद 26 जनवरी को ईदगाह में सात-आठ लाख लोग इकठ्ठा होने वाले थे। वे सब बीबीसी आदि विदेशी मीडिया की मौजूदगी में 'आजादी' का ऐलान करते। पर जगमोहन ने उस दिन चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी तैनात कर ऐसा कर्फ्यू बनवाया कि एक भी गली में लोग घरों से बाहर नहीं निकल पाएं। उस दिन जगमोहन और उनके जरिए भारत राष्ट्र-राज्य का बल यदि श्रीनगर में नहीं दिखता और ईदगाह पर मुसलमानों का सैलाब उमड़ पडता तो न जाने क्या होता।


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