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- समाधान का इंतजार

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जरूरी नहीं कि किसी भी जटिल मामले पर होने वाली हर बातचीत नतीजे लेकर आए। शालीनता और सामान्य व्यवहार के लिए भी बातचीत जरूरी होती है और परंपराओं की यथोचित पालना से भी समाधान की आशा बनी रहती है। सरकार और किसानों के बीच वार्ता किसानों की मूल मांग पर आकर बार-बार अटक जा रही है और इस बार भी यही हुआ। सोमवार को नए साल की पहली वार्ता से बहुत उम्मीदें थीं। पिछली वार्ता में मंत्रियों ने किसानों के साथ लंगर का आनंद लिया था, लेकिन इस बार इस औपचारिकता का भी निर्वाह नहीं हुआ। भोजन का समय हुआ, तब यह बात सामने आ गई कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी रोटियां तोड़ेंगे। इससे वार्ता के समय माहौल में तल्खी का अंदाजा लगाया जा सकता है। किसानों का हठ है कि तीनों कृषि कानूनों को सरकार वापस ले, चूंकि अभी संसद का सत्र नहीं चल रहा है, इसलिए यह काम अध्यादेश लाकर भी किया जा सकता है। दूसरी ओर, सरकार पहले की तरह ही कानूनों को वापस लेने के पक्ष में नहीं है।
पहले संभावना थी कि किसानों और सरकार के बीच कानूनों के एक-एक विवादित पहलू पर चर्चा होगी, लेकिन किसान ऐसी किसी सिलसिलेवार चर्चा के पक्ष में नहीं हैं। उन्हें तीन कृषि कानूनों की वापसी और न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाने के अलावा कुछ मंजूर नहीं। पिछली वार्ता में ही सरकार ने समझाया था कि निजी क्षेत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।
कृषि वस्तुओं की संख्या ज्यादा है और निजी क्षेत्र को सरकार द्वारा तय कीमत पर खरीद के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। बेशक, भारत में कृषि एक विशाल क्षेत्र है, इतने विशाल क्षेत्र में कीमत या मूल्य तय करने की कोई कोशिश अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों को भी प्रभावित करेगी। अभी जो स्थिति है, उसमें कई राज्यों में मंडी की व्यवस्था भी नहीं है, तो स्थिति विवादास्पद हो जाएगी। यह आरोप सहज ही लगेगा कि सरकार किन्हीं खास राज्यों के किसानों के साथ विशेष व्यवहार कर रही है। अत: सरकार का काम सभी को समान भाव से देखते हुए चलना भी है। साथ ही, कोई सरकार नहीं चाहेगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए जगह-जगह आंदोलन शुरू हो जाएं। इसके अलावा मंडी या न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने में राज्य सरकारों की भी भूमिका है। राज्य सरकारें अपने स्तर पर इस भूमिका को घटा या बढ़ा सकती हैं।
Farmer, Central Government, के अलावा राज्य सरकारों को भी सोचना चाहिए। केंद्र सरकार अगर इस मुद्दे पर राज्य सरकारों से भी राय-मशविरा करे, तो भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बेहतर होगा। 8 जनवरी को अगली वार्ता होगी, लेकिन उससे पहले सरकार को अपने स्तर पर ठोस फैसले लेने की जरूरत है। देश इंतजार कर रहा है। बार-बार एक ही बात या एक ही हठ के साथ बैठना ठीक नहीं।
आंदोलन जरूरत से ज्यादा लंबा खिंच रहा है और यह किसी के लिए भी ठीक नहीं है। क्या किसानों को मनाने की नई ठोस कोशिश हो सकती है? क्या ऐसे प्रावधान पुख्ता तौर पर किए जा सकते हैं, जिनसे निजी क्षेत्र में भी किसानों को शोषण का शिकार न होना पड़े? यह देश के हित में ही है कि तमाम संबंधित पक्षों के बीच विश्वास की बहाली हो।