सम्पादकीय

जाति मजहब के सहारे राजनीति करने और चुनाव के मौके पर पाला बदलने वालों को सबक सिखाएं मतदाता

Subhi
16 Jan 2022 3:00 AM GMT
जाति मजहब के सहारे राजनीति करने और चुनाव के मौके पर पाला बदलने वालों को सबक सिखाएं मतदाता
x
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही यह देखना निराशाजनक है कि चुनावी चर्चा में विकास और सुशासन की बातें कम और भावनात्मक मुद्दे अधिक हावी हो रहे हैं।

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही यह देखना निराशाजनक है कि चुनावी चर्चा में विकास और सुशासन की बातें कम और भावनात्मक मुद्दे अधिक हावी हो रहे हैं। यह अपने देश की विडंबना है कि जब भी चुनावों, खासकर विधानसभा चुनावों का दौर आता है तो विकास और जनकल्याण की वे बातें भी नजर नहीं आतीं, जो चंद दिनों पहले तक राजनीतिक विमर्श के केंद्र में होती हैं। राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा 2017 के पिछले चुनाव की अपनी चमत्कारिक सफलता दोहराने की कोशिश कर रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पांच साल के अपने कार्यकाल के दौरान विकास के कई ऐसे कार्य किए, जो पहले की सरकारों में सियासत की भेंट चढ़े हुए थे। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का चुनाव ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता दिख रहा है, क्योंकि राजनीतिक दलों को जाति-मजहब की राजनीति करना अधिक फायदेमंद दिख रहा है। चूंकि भाजपा विपक्षी दलों की ध्रुवीकरण वाली राजनीति से अवगत है, इसलिए वह चुनावों की दिशा को अपने मूल मुद्दों यानी विकास और सुशासन के साथ हिंदू अस्मिता की ओर ले जा रही है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद अयोध्या में जिस तरह भव्य राम मंदिर निर्माण के साथ विकास का सिलसिला कायम हुआ और वाराणसी में काशी कारिडोर के रूप में एक असंभव सा कार्य किया गया, उसका स्वाभाविक लाभ भाजपा को मिलता दिख रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि भी भाजपा के लिए बड़ा संबल है, जो स्पष्ट वक्ता के साथ एक सक्षम प्रशासक के रूप में उभरे हैं।

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों का समर्थन हासिल कर अपना जनाधार व्यापक किया है। उसने यह धारणा तोड़ी है कि वह केवल अगड़ों की पार्टी है। इसी कारण वह स्वामीप्रसाद मौर्य समेत अन्य नेताओं के पार्टी छोडऩे के बावजूद अपनी जीत को लेकर उत्साहित है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को मुख्य रूप से अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा से मुख्य चुनौती मिलने जा रही है। अखिलेश ने रालोद के साथ अन्य छोटे दलों से गठबंधन किया है। अखिलेश चुनावी सफलता के लिए मुस्लिम-यादव के अपने परंपरागत आधार पर टिके हुए हैं। सपा ने भाजपा का डर दिखाकर ध्रुवीकरण करने वाली सियासत से न तो कभी परहेज किया और न उसे छिपाने की कोशिश की। जहां तक बसपा की बात है, उसके पास दलितों का एक आधार अवश्य है, लेकिन वह तब तक निर्णायक नहीं हो सकता, जब तक उसे अन्य जातियों का समर्थन न मिले। उत्तर प्रदेश में लगभग समाप्त हो चुकी कांग्रेस में प्रियंका गांधी नई जान फूंकने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि उन्हें कोई उल्लेखनीय सफलता मिलेगी।

पंजाब में भी राजनीतिक परिदृश्य भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द सिमटा दिख रहा है। कांग्रेस ने कृषि कानून विरोधी आंदोलन को हवा देने के साथ यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि सिखों की पहचान पर संकट है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि जो कांग्रेस मोदी सरकार सरीखे कृषि कानूनों की वकालत कर रही थी, वही सिख समुदाय को गुमराह करने के लिए उन कानूनों के विरोध में सबसे आगे आ गई। कांग्रेस ने सिखों के ध्रुवीकरण की कोशिश इसलिए भी की, क्योंकि वह नवजोत सिंह सिद्धू और अमरिंदर सिंह के विवाद को सही तरह नहीं संभाल सकी। भाजपा पंजाब में कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन शायद ही कर सके, लेकिन वह फिरोजपुर में पीएम के काफिले को रोकने की घटना के जरिये कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है। वह इस प्रकरण का फायदा अन्य राज्यों में भी उठा सकती है। वैसे तो अकाली दल पंजाब में एक मजबूत विकल्प रहा है, लेकिन उसके वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल की राजनीतिक सक्रियता सीमित हो जाने और अन्य नेताओं का प्रभाव सिमट जाने के कारण वह भी भावनात्मक मुद्दों के सहारे अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहा है। पंजाब में सर्वाधिक उल्लेखनीय पहलू है आम आदमी पार्टी का उभार। कांग्रेस में आई दरार और अकाली दल के पस्त होने का सबसे अधिक फायदा आप ही उठाती दिख रही है। आश्चर्य नहीं कि आप पंजाब में एक विकल्प के रूप में सामने आए।

उत्तराखंड की चुनावी तस्वीर भाजपा के लिए बहुत अनुकूल नहीं है। उसके लिए इस सवाल का जवाब देना कठिन है कि पांच साल में तीन मुख्यमंत्री क्यों बदलने पड़े? उत्तराखंड का राजनीतिक इतिहास पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन का रहा है। इस लिहाज से कांग्रेस के लिए अवसर बन सकता है, लेकिन उसके केंद्रीय नेतृत्व की निष्क्रियता और दिशाहीनता उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। यही कमजोरी भाजपा की ताकत बन सकती है। पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने जिस तरह असंतोष जताया, उससे पता चलता है कि कांग्रेस ने किस तरह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी की सक्रियता भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है।

चुनावों में ध्रुवीकरण और जातीय राजनीति के हावी रहने की आशंका के बीच इस पर सोच-विचार करने की आवश्यकता है कि यह सिलसिला कैसे रुके? कई बार तो मतदाता ही जाति-मजहब के आधार पर मतदान कर राजनीतिक दलों को वोट बैंक वाली राजनीति करने को उकसाते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि मुस्लिम समुदाय स्वयं वोट बैंक बनने के लिए तैयार रहता है। अगर वह खुद इस राजनीति को अस्वीकार करे तो राजनीतिक दल भी वास्तविक मुद्दों वाली राजनीति के लिए विवश होंगे।

Next Story