सम्पादकीय

यूपी में वोट की राजनीति: परशुराम की प्रतिमा बनवाने से ब्राह्मणों का क्या भला हो जाएगा?

Rani Sahu
5 Aug 2021 8:42 AM GMT
यूपी में वोट की राजनीति: परशुराम की प्रतिमा बनवाने से ब्राह्मणों का क्या भला हो जाएगा?
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अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास को आज एक वर्ष पूरे हुए. पिछले साल आज के ही दिन प्रधानमंत्री ने रामलला मंदिर की नींव रखी थी. इस उपलक्ष्य में आज मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ अयोध्या पहुंचे और काम की प्रगति का जायज़ा लिया

शंभूनाथ शुक्ल। अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास को आज एक वर्ष पूरे हुए. पिछले साल आज के ही दिन प्रधानमंत्री ने रामलला मंदिर की नींव रखी थी. इस उपलक्ष्य में आज मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ अयोध्या पहुंचे और काम की प्रगति का जायज़ा लिया. दूसरी तरफ़ आज लखनऊ में सपा मुखिया अखिलेश यादव ने साइकिल मार्च निकाला. उनके एजेंडे में योगी और केंद्र की मोदी सरकार की नाकामी तथा बढ़ती महंगाई थी. इधर एक महीने से अखिलेश यादव खूब एक्टिव हुए हैं. इसकी मुख्य वजह 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव है. वे अब ट्विटर और सोशल मीडिया के घेरे से निकल कर जनता के बीच आने-जाने लगे हैं. अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ सरकार की अग्नि परीक्षा भी होगी. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार को घेरने के लिए सपा ही नहीं बसपा भी सक्रिय हुई है. पिछले दिनों अयोध्या में ब्राह्मण वोटों को एकजुट करने की ख़ातिर बसपा ने सतीश चंद्र मिश्र की अगुआई में एक ब्राह्मण सम्मेलन, जिसे बाद में प्रबुद्ध जन सम्मेलन कहा गया, भी किया गया था.

हालांकि, चार और राज्यों में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. पर यह भी सर्वविदित है कि यूपी विधानसभा ही लोकसभा का रास्ता बनाती है. इसलिए सभी दलों का फ़ोकस लखनऊ है. इन सब राज्यों में क़रीब 18 करोड़ मतदाता हैं, लेकिन सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में 14.66 करोड़ हैं. फिर पंजाब में दो करोड़ से कुछ अधिक, उत्तराखंड में पौन करोड़ से थोड़े ऊपर 78.15 लाख, मणिपुर में 19.58 लाख और गोवा में 11.45 लाख वोटर हैं. इनमें से पंजाब को छोड़ कर सभी राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं. लाख टके का सवाल यह है कि क्या उत्तर प्रदेश में बीजेपी फिर 2017 जैसा कमाल दिखा पाएगी?
उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य ही नहीं माना जाता है बल्कि यह प्रदेश केंद्र को संचालित करता है. इसीलिए सभी का ध्यान यूपी की राजनीतिक हलचलों पर रहता है. कुछ राजनीतिक दल यथा- सपा, बसपा और रालोद आदि तो यूपी चुनाव के समय ही निकलते हैं. एक तो यह सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है, लोकसभा में 80 सीटें यहां से हैं और यहां की विधानसभा 403 सीटों वाली है, जिस कारण राज्य सभा में भी यह भारी पड़ता है. इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में विधान परिषद भी है, जिसमें 100 सदस्य हैं. इसलिए उत्तर प्रदेश का अर्थ है केंद्र कि सत्ता में पूरी दख़ल. यही कारण है कि यूपी में कांग्रेस के भले ही इस समय सात विधायक और एक एमपी हों, लेकिन वह भी अपने को उत्तर प्रदेश में ज़िंदा रखने का प्रयत्न करती रहती है.
उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य भी है, जिसमें ब्राह्मणों की आबादी अन्य राज्यों से बहुत ज़्यादा है. और हर राजनीतिक दल जानता है कि ब्राह्मण वोट डालता ही नहीं डलवाता भी है. वह लोगों को अपनी रुचि के अनुसार राजनीतिक दल में केंद्रित होने को बाध्य करता है. इसके लिए कोई बल प्रयोग नहीं बल्कि उसका वाक्-चातुर्य पर्याप्त है. इसीलिए सपा हो या बसपा अथवा बीजेपी या कांग्रेस कोई भी ब्राह्मणों की नाराज़गी मोल लेने को तैयार नहीं होता. अगर मोटा-मोटी आकलन को मानें तो यूपी ब्राह्मण एक जाति के तौर पर सर्वाधिक आबादी वाला समुदाय है. यही कारण है कि सपा और बसपा दोनों ही ब्राह्मणों को परशुराम के नाम पर लुभाने का जतन करते हैं और बीजेपी राम मंदिर एवं हिंदुत्त्व के नाम पर.
पिछले एक वर्ष से यह भी सुगबुगाहट तेज हुई है कि भले ही योगी आदित्य नाथ साधु हों पर उनकी जाति ठाकुर है. उत्तर प्रदेश में जैसा जातीय अहंकार है, उसमें ब्राह्मण और ठाकुर के बीच परस्पर प्रतिद्वंदिता भी खूब रहती है. इसलिए उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध ब्राह्मणों को एकजुट करने के प्रयास किए जा रहे हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती इस काम में पूरी शिद्दत से जुटे हैं. अचानक इनके अंदर ब्राह्मण प्रेम फट पड़ा है. और इसके लिए जिन परशुराम को ब्राह्मण प्रतीक बनाया गया है, और ब्राह्मण गौरव बना कर पेश किया जा रहा है, वह और भी हास्यास्पद है.
परशुराम ब्राह्मणों के प्रतीक कभी नहीं रहे. मिथ में उनकी छवि एक ऐसे साधु की है, जिसने अपने फरसे से 21 बार क्षत्रिय नरेशों की हत्या की थी. इतनी निर्ममता से, कि गर्भस्थ शिशुओं को भी नहीं छोड़ा था. लेकिन इन्हीं परशुराम की खिल्ली उड़वा देते हैं तुलसीदास. राजा जनक के दरबार में रामचंद्र जी ने शिव का धनुष पिनाक तोड़ दिया है. वायदे के अनुसार सीता उनके गले में वरमाल डाल देती हैं. तभी प्रकट होते हैं परशुराम. चीखते-चिल्लाते और तख़्त तोड़ते परशुराम. कानपुर और इसके आसपास के सौ कोस के दायरे में परशुराम लीला बड़ी मशहूर है. यह लीला कभी भी कर ली जाती है. इसमें क्रेज़ लक्ष्मण का होता है. और उनसे वाक्युद्ध में पराजित होकर परशुराम खीझते व झल्लाते हुए चले जाते हैं. इस लीला में धनुष टूटने के बाद रात को दो बजे परशुराम मंच पर शिव स्रोत का पाठ करते हुए प्रकट होते हैं,
जटाटवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌.
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥
जटाकटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि.
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम:॥
शिव स्तोत्र की यह लयबद्ध ध्वनि इतनी प्रभावोत्पादक होती थी, कि इसकी ध्वनि गूंजते ही लोग भाग कर लीला देखने आ जाया करते थे. परशुराम का अभिनय करने वाला जो भी पात्र जितनी अधिक आवाज़ के साथ इसका पारायण करे, उसे उतना ही विद्वान समझा जाता था. परशुराम को मन की गति से कहीं भी पहुंच जाने का वरदान प्राप्त था, इसलिए पलक झपकते ही वे मिथिला आ जाते हैं. वहां उपस्थित सभी राजाओं की घिग्घी बंध जाती है. परशुराम बहुत क्रोधी ऋषि थे, और उनके बारे में विख्यात था, कि पूरी पृथ्वी को उन्होंने 21 बार क्षत्रिय विहीन किया था. हो सकता है, इसका आशय रहा हो, कि उन्होंने 21 बार अत्याचारी शासकों का नाश किया था. लेकिन अब वे इस खून ख़राबा से दूर मंदराचल पर्वत पर तपस्या करते हैं. इसलिए राजा लोग निश्चिंत थे. किंतु अचानक उनके आ जाने से सब लोग घबरा गए. राजा जनक उनके पास जाकर उनकी आवभगत करते हैं.
किंतु जैसे ही परशुराम की नज़र टूटे हुए शिव धनुष "पिनाक" पर पड़ती है, वे क्रोधित हो उठते हैं. वे राजा जनक को कहते हैं, कि जनक तुम अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें बंद करो, यह बताओ कि भगवान शिव का यह धनुष किसने तोड़ा? मैं उस व्यक्ति का तत्काल वध कर दूंगा. राजा जनक तो इतना सुनते ही सन्नाटे में आ जाते हैं. वे सोचने लगते हैं, कि क्या उनकी बेटी ब्याहते ही विधवा हो जाएगी? क्योंकि परशुराम की क्रोधाग्नि से कोई बच नहीं सकता था, और युद्ध में उनसे कोई जीत नहीं सकता था. वे उनके क्रोध को शांत करने के लिए खूब अनुनय-विनय करते हैं. पर परशुराम बिफरते ही जाते हैं. तब राम स्वयं उनके समीप आकर प्रणाम करने के बाद कहते हैं, कि हे महावीर महर्षि! इस शिव धनुष को तोड़ने वाला आपका ही कोई दास है.
बस यहीं से शुरू होता है परशुराम और लक्ष्मण का तीखा संवाद. लक्ष्मण कहते हैं, कि अरे मुनिवर बचपन में तो हमने ना जाने कितने धनुष तोड़े हैं. पर किसी ने कुछ नहीं कहा. तब फिर इस पुराने और जर्जर धनुष में ऐसी क्या ममता, कि भृगुकुल के इतने महा प्रतापी ऋषि स्वयं दंड देने चले आए. इतना सुनते ही परशुराम आपा खो देते हैं. वे मंच पर चीते की तरह चिटकने लगते हैं. वे इतनी ताक़त से उछलते हैं कि तख़्त धराशायी हो जाता. परशुराम का अभिनय करने वाला जो अभिनेता शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट होता, वह तो तख़्त तोड़ देता, किंतु कमजोर अभिनेता के वश में यह नहीं होता था. परशुराम के अभिनय को और पुख़्ता करने में उसी अभिनेता को खूब वाह-वाही मिलती, जो जितना अधिक क्रोध का प्रदर्शन करता. अपने अभिनय में सच्चाई लाने के लिए, वे निजी जीवन में भी क्रोधी बन ज़ाया करते. कुछ तो भांग का सेवन करने लग जाते.
लेकिन इससे परशुराम की खिल्ली ज़्यादा उड़ती बजाय उनके प्रति श्रद्धा से. तुलसीदास के अनुसार बाद में जब परशुराम को भान होता है कि राम तो स्वयं विष्णु का अवतार हैं तो वे उन्हें परखने के लिए अपने पास का शिव धनुष राम को देते हैं और आग्रह करते हैं कि इसकी प्रत्यंचा चढ़ाएं. राम इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा कर पूछते हैं कि अब इस तीर को किस पर चलाऊं? अब परशुराम घबरा जाते हैं और अंत में राम इस तीर का संधान कर परशुराम से उनकी मन की गति से चलने की क्षमता नष्ट कर देते हैं. एक तरह से तुलसी परशुराम की खिल्ली उड़ाते हैं.
अब ऐसे मिथकीय चरित्र की प्रतिमा बनवा कर ब्राह्मणों को क्या लाभ मिलेगा? असल सवाल है कि ब्राह्मणों की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ी है. उनकी शैक्षिक योग्यता भी घटी है. और ब्राह्मण जाति की सामाजिक स्थिति भी क्षीण हुई है. क्या कोई पार्टी ब्राह्मणों के इस दारिद्र्य को दूर करने के प्रयास करेगी!


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