सम्पादकीय

हिमाचल के मत निर्माता

Rani Sahu
11 Oct 2022 7:13 PM GMT
हिमाचल के मत निर्माता
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By: divyahimachal
हिमाचल के चुनावों ने एक बार फिर बुद्धिजीवी वर्ग की अहमियत को सतह पर लाकर खड़ा कर दिया है और बहस के अनेक बिंदुओं के बीच मतदाता और मत निर्माता का भेद परोस दिया गया है। सुलाह विधानसभा में आयोजित सर्व कर्मचारी महासम्मेलन में बतौर मुख्यातिथि शांता कुमार ने मत निर्माता के रूप में कर्मचारी वर्ग का एक बड़ा दर्पण दिखाया है। ऐसे में सवाल यह कि हिमाचल का चुनावी बौद्धिक कौशल आखिर है क्या। चुनाव की विवेकशीलता के मायने यहां पूरे राष्ट्र से भिन्न हैं, तो क्या मुद्दों की फेहरिस्त भी अलग हो जाती है। यकीनन मध्यमवर्गीय हिमाचल की अपनी अलग पहचान, खासियत व महत्त्वाकांक्षा से सराबोर अपेक्षाएं रहती हैं, जो प्रदेश के बौद्धिक व राजनीतिक विकास के बीच काफी हद तक अंतर मिटा देती हैं। हम अब तक की राजनीति में जितना भी मंथन या गूंथन करते रहे हैं, उससे कहीं अलग 'मत निर्माता' के अपने समीकरण, फरमाइशें, सरोकार और बेचैनियां रही हैं। इन बेचैनियों को समेटने के लिए आरंभ से ही कर्मचारी राजनीति, सेब लॉबी, जातीय समीकरण, छात्र राजनीति और ऊपरी व निचले हिमाचल के बीच बिखरी असमानताओं को ही पढ़ा गया और इसी हिसाब से सत्ता के लाभ बंटते देखे गए, लेकिन मध्यम वर्ग की हैसियत में यह प्रदेश आज तक उत्तर नहीं ढूंढ पाया।
नीतियां व कार्यक्रम भी इस प्रदेश को राष्ट्रीय नीतियों के समाधान या बजटीय प्रावधानों की लौ में देखते रहे, जबकि स्वाभाविक रूप से मध्यम वर्गीय प्रदेश को अपनी इसी खासियत के रूप में आगे बढऩे की संभावनाओं में देखना होगा। प्रदेश में केंद्रीय संसाधनों के इस्तेमाल के लिए ही गरीब वर्ग या बीपीएल बने रहने के लाभ, मिड डे मील का आबंटन, सामाजिक सुरक्षा के दांवपेंच और जातिवाद का नारा बुलंद किया जाता है, जबकि बुद्धिजीवी वर्ग के लिए आत्मसम्मान के रास्ते तरक्की के नक्शे बदले जा सकते हैं। आश्चर्य यह कि हिमाचल के करीब चार लाख सरकारी कर्मचारियों व पेंशनरों को ही जोडक़र इन्हें मत निर्माता के रूप में देखा जाता है, जबकि निजी क्षेत्र की विविध गतिविधियों में करीब दस लाख सीधे व परोक्ष में पांच लाख लोग अपनी-अपनी आजीविका के नौकर हैं। जो प्रदेश साक्षरता दर में करीब 83 प्रतिशत दर कायम करके देश का अग्रणी राज्य हो, उसके जीवन की व्यावहारिकता और सफलता के मानदंड अलग होंगे ही।
यहां जीवन में आ रही प्रतिस्पर्धा और निजी उपलब्धियों के लिए निरंतर पैदा की जा रही क्षमता के कारण समाज का चरित्र अब केवल कर्मचारियों के शिविर या असहाय समुदाय के डेरे में नहीं बसता, लेकिन चुनाव में फंसी राजनीति और मिशन रिपीट में फंसी सरकारों ने इस बदलाव को नजरअंदाज किया है। जिस प्रदेश के लोगों की महत्त्वाकांक्षा के प्रतीक हिमाचल के बाहर निकल कर दृष्टिगोचर हो रहे हों, उसके लिए राजनीतिक समाधान और विकल्प बदलने होंगे। सियासत एक फार्मूला हो सकती है या चुनावी जीत की प्राथमिकताओं में पार्टियों का एक खास नजरिया हो सकता है, लेकिन समय के परिवर्तन ने समाज के मौलिक प्रश्नों की प्रवृत्ति बदल दी है। मध्यम वर्ग के मुद्दे न तो मिटते और न ही यह वर्ग मिट्टी का माधो बनकर राजनीति का नाच देखकर सहज रह सकता है। कमोबेश यही असहजता ऐन चुनाव के वक्त सरकारों को परेशान करती रही है। एक बार फिर हिमाचल का बुद्धिजीवी वर्ग असहजता प्रकट करता हुआ यह देख रहा है कि किस तरह चुनावी बिसात में राजनीतिक पार्टियां अपने उम्मीदवारों को लेकर इस वर्ग का मजाक उड़ाना चाहती हैं। यह मजाक पंचायत, नगर परिषदों से होता हुआ नगर निगमों के चुनावों में अपने जन-प्रतिनिधियों के चयन में देखा जा चुका है और एक बार फिर हम पाएंगे कि देश-प्रदेश तो राजनीतिक जीत का अवतार है, उसमें हम केवल अफलातून लोगों को मंचों पर सजते हुए देखेंगे। कहने को मध्यम वर्ग मत निर्माता हो सकता है, लेकिन वह हमेशा सकारात्मक नहीं नकारात्मक रूप से तथा अपनी असहजता के कारण गुस्से में केवल चेहरा बदल सकता है, न कि सही विकल्प सामने ला पाता है।
Rani Sahu

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