सम्पादकीय

वोट की खातिर 'मुफ्त'

Subhi
27 Jan 2022 3:13 AM GMT
वोट की खातिर मुफ्त
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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से वोटरों के अलग-अलग हिस्सों को मुफ्त वस्तुएं या सेवाएं दिए जाने की घोषणाएं हो रही हैं, वह मामला मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से वोटरों के अलग-अलग हिस्सों को मुफ्त वस्तुएं या सेवाएं दिए जाने की घोषणाएं हो रही हैं, वह मामला मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। इस संबंध में आई एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह गंभीर मसला है क्योंकि इस तरह की घोषणाएं लेवल प्लेइंग फील्ड को प्रभावित करती हैं। गौर करने की बात है कि इन चुनावों में विभिन्न पार्टियों के बीच लोगों के लिए 'मुफ्त' की योजनाओं का ऐलान करने की होड़ सी लग गई है। कोई बिजली मुफ्त देने की बात कर रहा है तो कोई महिलाओं को हर महीने निश्चित राशि देने का एलान। कोई स्मार्टफोन और स्कूटी फ्री देने की घोषणा लेकर सामने आ रहा है। यह सब उन राज्यों में भी हो रहा है, जो पहले से ही कर्ज के बोझ से लदे हैं।

हालांकि मौजूदा कानूनों के मुताबिक राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में किए जाने वाले वायदों को भ्रष्टाचार नहीं कहा जा सकता, लेकिन फिर भी यह सवाल तो है ही कि यह चलन चुनाव प्रक्रिया को किस रूप में प्रभावित कर रहा है और इससे आखिर किस तरह के नतीजे सामने आने वाले हैं। अगर तरह-तरह के वादे सिर्फ लोगों को भरमाने के लिए हैं और चुनाव खत्म होने के बाद सत्ता में आने वाले राजनीतिक दल इसे ठंडे बस्ते में डालने का फैसला करते हैं तो यह सीधे-सीधे मतदाताओं के साथ धोखा कहलाएगा। लेकिन अगर वे इन वादों को लेकर सचमुच गंभीर हैं और इन्हें पूरा करने की कोशिश करते हैं तो फिर उन राज्यों की अर्थव्यवस्था पर, वहां के बजट पर और करदाताओं पर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा?

इन सवालों की अनदेखी मुश्किल है। लेकिन इन्हें न्यायपालिका या चुनाव आयोग के निर्देशों के जरिए हल करने की कोशिशों के भी अपने खतरे हैं। इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए इस बात का खास तौर पर ध्यान रखने की जरूरत है कि देश के लोकतांत्रिक स्वरूप पर और बतौर वोटर लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों के दायरे पर कोई प्रतिकूल असर न पड़े। स्वाभाविक ही सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले में पर्याप्त सावधानी बरतते हुए चल रहा है।

केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जरूर जारी किए गए हैं, लेकिन फिलहाल उनसे यह बताने को कहा गया है कि 2013 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर अब तक क्या कार्रवाई की गई है, जिसमें मुफ्त की घोषणाओं को लेकर गाइडलाइन बनाने की बात कही गई थी। किसी लोकतांत्रिक समाज में इस तरह की समस्याओं का स्थायी हल यही हो सकता है कि सभी संबंधित पक्षों में ज्यादा जागरूकता और ज्यादा गंभीरता आए। उम्मीद करें कि सुप्रीम कोर्ट की ताजा पहल के संकेतों को समझते हुए इस मामले के सभी स्टेक होल्डर्स अपनी-अपनी भूमिकाओं में पहले से ज्यादा जिम्मेदार और गंभीर नजर आएंगे।


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